Jaishankar Prasad

 

जयशंकर प्रसाद

(१८८९ – १९३६)

जयशंकर प्रसाद कवि, नाटककार, कहानीकार, उपन्यासकार तथा निबन्ध-लेखक थे। वे हिन्दी के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। आधुनिक हिन्दी साहित्य के इतिहास में इनके कृतित्व का गौरव अक्षुण्ण है। वे एक युगप्रवर्तक लेखक थे जिन्होंने एक ही साथ कविता, नाटक, कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में हिन्दी को गौरवान्वित होने योग्य कृतियाँ दीं। (साभार: विकिपीडिया)

इड़ा सर्ग–भाग १

“किस गहन गुहा से अति अधीर
झंझा-प्रवाह-सा निकला
यह जीवन विक्षुब्ध महासमीर
ले साथ विकल परमाणु-पुंज।

नभ, अनिल, अनल,
भयभीत सभी को भय देता।
भय की उपासना में विलीन
प्राणी कटुता को बाँट रहा।

जगती को करता अधिक दीन
निर्माण और प्रतिपद-विनाश में।
दिखलाता अपनी क्षमता
संघर्ष कर रहा-सा सब से।

सब से विराग सब पर ममता
अस्तित्व-चिरंतन-धनु से कब।
यह छूट पड़ा है विषम तीर
किस लक्ष्य भेद को शून्य चीर?

जो अचल हिमानी से रंजित
देखे मैंने वे शैल-श्रृंग।
अपने जड़-गौरव के प्रतीक
उन्मुक्त, उपेक्षा भरे तुंग।

वसुधा का कर अभिमान भंग
अपनी समाधि में रहे सुखी,
बह जाती हैं नदियाँ अबोध
कुछ स्वेद-बिंदु उसके लेकर,

वह स्मित-नयन गत शोक-क्रोध
स्थिर-मुक्ति, प्रतिष्ठा मैं वैसी
चाहता नहीं इस जीवन की
मैं तो अबाध गति मरुत-सदृश,

हूँ चाह रहा अपने मन की
जो चूम चला जाता अग-जग।
प्रति-पग में कंपन की तरंग
वह ज्वलनशील गतिमय पतंग।

अपनी ज्वाला से कर प्रकाश
जब छोड़ चला आया सुंदर
प्रारंभिक जीवन का निवास
वन, गुहा, कुंज, मरू-अंचल में हूँ

खोज रहा अपना विकास
पागल मैं, किस पर सदय रहा-
क्या मैंने ममता ली न तोड़
किस पर उदारता से रीझा-

किससे न लगा दी कड़ी होड़?
इस विजन प्रांत में बिलख रही
मेरी पुकार उत्तर न मिला
लू-सा झुलसाता दौड़ रहा-

कब मुझसे कोई फूल खिला?
मैं स्वप्न देखत हूँ उजड़ा-
कल्पना लोक में कर निवास
देख कब मैंने कुसुम हास

इस दुखमय जीवन का प्रकाश
नभ-नील लता की डालों में
उलझा अपने सुख से हताश
कलियाँ जिनको मैं समझ रहा

वे काँटे बिखरे आस-पास
कितना बीहड़-पथ चला और
पड़ रहा कहीं थक कर नितांत
उन्मुक्त शिखर हँसते मुझ पर-

रोता मैं निर्वासित अशांत
इस नियति-नटी के अति भीषण
अभिनय की छाया नाच रही
खोखली शून्यता में प्रतिपद-

असफलता अधिक कुलाँच रही
पावस-रजनी में जुगनू गण को
दौड़ पकड़ता मैं निराश
उन ज्योति कणों का कर विनाश

जीवन-निशीथ के अंधकार
तू, नील तुहिन-जल-निधि बन कर
फैला है कितना वार-पार
कितनी चेतनता की किरणें हैं

डूब रहीं ये निर्विकार
कितना मादकतम, निखिल भुवन
भर रहा भूमिका में अबंग
तू, मूर्त्तिमान हो छिप जाता

प्रतिपल के परिवर्त्तन अनंग
ममता की क्षीण अरुण रेख
खिलती है तुझमें ज्योति-कला
जैसे सुहागिनी की ऊर्मिल

अलकों में कुंकुमचूर्ण भला
रे चिरनिवास विश्राम प्राण के
मोह-जलद-छया उदार
मायारानी के केशभार

जीवन-निशीथ के अंधकार
तू घूम रहा अभिलाषा के
नव ज्वलन-धूम-सा दुर्निवार
जिसमें अपूर्ण-लालसा, कसक

चिनगारी-सी उठती पुकार
यौवन मधुवन की कालिंदी
बह रही चूम कर सब दिंगत
मन-शिशु की क्रीड़ा नौकायें

बस दौड़ लगाती हैं अनंत
कुहुकिनि अपलक दृग के अंजन
हँसती तुझमें सुंदर छलना
धूमिल रेखाओं से सजीव

चंचल चित्रों की नव-कलना
इस चिर प्रवास श्यामल पथ में
छायी पिक प्राणों की पुकार-
बन नील प्रतिध्वनि नभ अपार

उजड़ा सूना नगर-प्रांत
जिसमें सुख-दुख की परिभाषा
विध्वस्त शिल्प-सी हो नितांत
निज विकृत वक्र रेखाओं से,

प्राणी का भाग्य बनी अशांत
कितनी सुखमय स्मृतियाँ,
अपूर्णा रूचि बन कर मँडराती विकीर्ण
इन ढेरों में दुखभरी कुरूचि

दब रही अभी बन पात्र जीर्ण
आती दुलार को हिचकी-सी
सूने कोनों में कसक भरी।
इस सूखर तरु पर मनोवृति

आकाश-बेलि सी रही हरी
जीवन-समाधि के खँडहर पर जो
जल उठते दीपक अशांत
फिर बुझ जाते वे स्वयं शांत।

यों सोच रहे मनु पड़े श्रांत
श्रद्धा का सुख साधन निवास
जब छोड़ चले आये प्रशांत
पथ-पथ में भटक अटकते वे

आये इस ऊजड़ नगर-प्रांत
बहती सरस्वती वेग भरी
निस्तब्ध हो रही निशा श्याम
नक्षत्र निरखते निर्मिमेष

वसुधा को वह गति विकल वाम
वृत्रघ्नी का व जनाकीर्ण
उपकूल आज कितना सूना
देवेश इंद्र की विजय-कथा की

स्मृति देती थी दुख दूना
वह पावन सारस्वत प्रदेश
दुस्वप्न देखता पड़ा क्लांत
फैला था चारों ओर ध्वांत।

“जीवन का लेकर नव विचार
जब चला द्वंद्व था असुरों में
प्राणों की पूजा का प्रचार
उस ओर आत्मविश्वास-निरत

सुर-वर्ग कह रहा था पुकार-
मैं स्वयं सतत आराध्य आत्म-
मंगल उपासना में विभोर
उल्लासशीलता मैं शक्ति-केन्द्र,

किसकी खोजूँ फिर शरण और
आनंद-उच्छलित-शक्ति-स्त्रोत
जीवन-विकास वैचित्र्य भरा
अपना नव-नव निर्माण किये

रखता यह विश्व सदैव हरा,
प्राणों के सुख-साधन में ही,
संलग्न असुर करते सुधार
नियमों में बँधते दुर्निवार

था एक पूजता देह दीन
दूसरा अपूर्ण अहंता में
अपने को समझ रहा प्रवीण
दोनों का हठ था दुर्निवार,

दोनों ही थे विश्वास-हीन-
फिर क्यों न तर्क को शस्त्रों से
वे सिद्ध करें-क्यों हि न युद्ध
उनका संघर्ष चला अशांत

वे भाव रहे अब तक विरुद्ध
मुझमें ममत्वमय आत्म-मोह
स्वातंत्र्यमयी उच्छृंखलता
हो प्रलय-भीत तन रक्षा में

पूजन करने की व्याकुलता
वह पूर्व द्वंद्व परिवर्त्तित हो
मुझको बना रहा अधिक दीन-
सचमुच मैं हूँ श्रद्धा-विहीन।”

मनु तुम श्रद्धाको गये भूल
उस पूर्ण आत्म-विश्वासमयी को
उडा़ दिया था समझ तूल
तुमने तो समझा असत् विश्व

जीवन धागे में रहा झूल
जो क्षण बीतें सुख-साधन में
उनको ही वास्तव लिया मान
वासना-तृप्ति ही स्वर्ग बनी,

यह उलटी मति का व्यर्थ-ज्ञान
तुम भूल गये पुरुषत्त्व-मोह में
कुछ सत्ता है नारी की
समरसता है संबंध बनी

अधिकार और अधिकारी की।”
जब गूँजी यह वाणी तीखी
कंपित करती अंबर अकूल
मनु को जैसे चुभ गया शूल।

“यह कौन? अरे वही काम
जिसने इस भ्रम में है डाला
छीना जीवन का सुख-विराम?
प्रत्यक्ष लगा होने अतीत

जिन घड़ियों का अब शेष नाम
वरदान आज उस गतयुग का
कंपित करता है अंतरंग
अभिशाप ताप की ज्वाला से

जल रहा आज मन और अंग-”
बोले मनु-” क्या भ्रांत साधना
में ही अब तक लगा रहा
क्ा तुमने श्रद्धा को पाने

के लिए नहीं सस्नेह कहा?
पाया तो, उसने भी मुझको
दे दिया हृदय निज अमृत-धाम
फिर क्यों न हुआ मैं पूर्ण-काम?”

“मनु उसने त कर दिया दान
वह हृदय प्रणय से पूर्ण सरल
जिसमें जीवन का भरा मान
जिसमें चेतना ही केवल

निज शांत प्रभा से ज्योतिमान
पर तुमने तो पाया सदैव
उसकी सुंदर जड़ देह मात्र
सौंदर्य जलधि से भर लाये

केवल तुम अपना गरल पात्र
तुम अति अबोध, अपनी अपूर्णता को
न स्वयं तुम समझ सके
परिणय जिसको पूरा करता

उससे तुम अपने आप रुके
कुछ मेरा हो’ यह राग-भाव
संकुचित पूर्णता है अजान
मानस-जलनिधि का क्षुद्र-यान।

हाँ अब तुम बनने को स्वतंत्र
सब कलुष ढाल कर औरों पर
रखते हो अपना अलग तंत्र
द्वंद्वों का उद्गम तो सदैव

शाश्वत रहता वह एक मंत्र
डाली में कंटक संग कुसुम
खिलते मिलते भी हैं नवीन
अपनी रुचि से तुम बिधे हुए

जिसको चाहे ले रहे बीन
तुमने तो प्राणमयी ज्वाला का
प्रणय-प्रकाश न ग्रहण किया
हाँ, जलन वासना को जीवन

भ्रम तम में पहला स्थान दिया-
अब विकल प्रवर्त्तन हो ऐसा जो
नियति-चक्र का बने यंत्र
हो शाप भरा तव प्रजातंत्र।

यह अभिनव मानव प्रजा सृष्टि
द्वयता मेम लगी निरंतर ही
वर्णों की करति रहे वृष्टि
अनजान समस्यायें गढती

रचती हों अपनी विनिष्टि
कोलाहल कलह अनंत चले,
एकता नष्ट हो बढे भेद
अभिलषित वस्तु तो दूर रहे,

हाँ मिले अनिच्छित दुखद खेद
हृदयों का हो आवरण सदा
अपने वक्षस्थल की जड़ता
पहचान सकेंगे नहीं परस्पर

चले विश्व गिरता पड़ता
सब कुछ भी हो यदि पास भरा
पर दूर रहेगी सदा तुष्टि
दुख देगी यह संकुचित दृष्टि।

अनवरत उठे कितनी उमंग
चुंबित हों आँसू जलधर से
अभिलाषाओं के शैल-श्रृंग
जीवन-नद हाहाकार भरा-

हो उठती पीड़ा की तरंग
लालसा भरे यौवन के दिन
पतझड़ से सूखे जायँ बीत
संदेह नये उत्पन्न रहें

उनसे संतप्त सदा सभीत
फैलेगा स्वजनों का विरोध
बन कर तम वाली श्याम-अमा
दारिद्रय दलित बिलखाती हो यह

शस्यश्यामला प्रकृति-रमा
दुख-नीरद में बन इंद्रधनुष
बदले नर कितने नये रंग-
बन तृष्णा-ज्वाला का पतंग।

 

इड़ा सर्ग–भाग २

वह प्रेम न रह जाये पुनीत
अपने स्वार्थों से आवृत
हो मंगल-रहस्य सकुचे सभीत
सारी संसृति हो विरह भरी,

गाते ही बीतें करुण गीत
आकांक्षा-जलनिधि की सीमा हो
क्षितिज निराशा सदा रक्त
तुम राग-विराग करो सबसे

अपने को कर शतशः विभक्त
मस्तिष्क हृदय के हो विरुद्ध,
दोनों में हो सद्भाव नहीं
वह चलने को जब कहे कहीं

तब हृदय विकल चल जाय कहीं
रोकर बीते सब वर्त्तमान
क्षण सुंदर अपना हो अतीत
पेंगों में झूलें हार-जीत।

संकुचित असीम अमोघ शक्ति
जीवन को बाधा-मय पथ पर
ले चले मेद से भरी भक्ति
या कभी अपूर्ण अहंता में हो

रागमयी-सी महासक्ति
व्यापकता नियति-प्रेरणा बन
अपनी सीमा में रहे बंद
सर्वज्ञ-ज्ञान का क्षुद्र-अशं

विद्या बनकर कुछ रचे छंद
करत्तृत्व-सकल बनकर आवे
नश्वर-छाया-सी ललित-कला
नित्यता विभाजित हो पल-पल में

काल निरंतर चले ढला
तुम समझ न सको, बुराई से
शुभ-इच्छा की है बड़ी शक्ति
हो विफल तर्क से भरी युक्ति।

जीवन सारा बन जाये युद्ध
उस रक्त, अग्नि की वर्षा में
बह जायँ सभी जो भाव शुद्ध
अपनी शंकाओं से व्याकुल तुम

अपने ही होकर विरूद्ध
अपने को आवृत किये रहो
दिखलाओ निज कृत्रिम स्वरूप
वसुधा के समतल पर उन्नत

चलता फिरता हो दंभ-स्तूप
श्रद्धा इस संसृति की रहस्य-
व्यापक, विशुद्ध, विश्वासमयी
सब कुछ देकर नव-निधि अपनी

तुमसे ही तो वह छली गयी
हो वर्त्तमान से वंचित तुम
अपने भविष्य में रहो रुद्ध
सारा प्रपंच ही हो अशुद्ध।

तुम जरा मरण में चिर अशांत
जिसको अब तक समझे थे
सब जीवन परिवर्त्तन अनंत
अमरत्व, वही भूलेगा तुम

व्याकुल उसको कहो अंत
दुखमय चिर चिंतन के प्रतीक
श्रद्धा-वमचक बनकर अधीर
मानव-संतति ग्रह-रश्मि-रज्जु से

भाग्य बाँध पीटे लकीर
‘कल्याण भूमि यह लोक’
यही श्रद्धा-रहस्य जाने न प्रजा।
अतिचारी मिथ्या मान इसे

परलोक-वंचना से भरा जा
आशाओं में अपने निराश
निज बुद्धि विभव से रहे भ्रांत
वह चलता रहे सदैव श्रांत।”

अभिशाप-प्रतिध्वनि हुई लीन
नभ-सागर के अंतस्तल में
जैसे छिप जाता महा मीन
मृदु-मरूत्-लहर में फेनोपम

तारागण झिलमिल हुए दीन
निस्तब्ध मौन था अखिल लोक
तंद्रालस था वह विजन प्रांत
रजनी-तम-पूंजीभूत-सदृश

मनु श्वास ले रहे थे अशांत
वे सोच रहे थे” आज वही
मेरा अदृष्ट बन फिर आया
जिसने डाली थी जीवन पर

पहले अपनी काली छाया
लिख दिया आज उसने भविष्य
यातना चलेगी अंतहीन
अब तो अवशिष्ट उपाय भी न।”

करती सरस्वती मधुर नाद
बहती थी श्यामल घाटी में
निर्लिप्त भाव सी अप्रमाद
सब उपल उपेक्षित पड़े रहे

जैसे वे निष्ठुर जड़ विषाद
वह थी प्रसन्नता की धारा
जिसमें था केवल मधुर गान
थी कर्म-निरंतरता-प्रतीक

चलता था स्ववश अनंत-ज्ञान
हिम-शीतल लहरों का रह-रह
कूलों से टकराते जाना
आलोक अरुण किरणों का उन पर

अपनी छाया बिखराना-
अदभुत था निज-निर्मित-पथ का
वह पथिक चल रहा निर्विवाद
कहता जाता कुछ सुसंवाद।

प्राची में फैला मधुर राग
जिसके मंडल में एक कमल
खिल उठा सुनहला भर पराग
जिसके परिमल से व्याकुल हो

श्यामल कलरव सब उठे जाग
आलोक-रश्मि से बुने उषा-
अंचल में आंदोलन अमंद
करता प्रभात का मधुर पवन

सब ओर वितरने को मरंद
उस रम्य फलक पर नवल चित्र सी
प्रकट हुई सुंदर बाला
वह नयन-महोत्सव की प्रतीक

अम्लान-नलिन की नव-माला
सुषमा का मंडल सुस्मित-सा
बिखरता संसृति पर सुराग
सोया जीवन का तम विराग।

वह विश्व मुकुट सा उज्जवलतम
शशिखंड सदृश था स्पष्ट भाल
दो पद्म-पलाश चषक-से दृग
देते अनुराग विराग ढाल

गुंजरित मधुप से मुकुल सदृश
वह आनन जिसमें भरा गान
वक्षस्थल पर एकत्र धरे
संसृति के सब विज्ञान ज्ञान

था एक हाथ में कर्म-कलश
वसुधा-जीवन-रस-सार लिये
दूसरा विचारों के नभ को था
मधुर अभय अवलंब दिये

त्रिवली थी त्रिगुण-तरंगमयी,
आलोक-वसन लिपटा अराल
चरणों में थी गति भरी ताल।
नीरव थी प्राणों की पुकार

मूर्छित जीवन-सर निस्तरंग
नीहार घिर रहा था अपार
निस्तब्ध अलस बन कर सोयी
चलती न रही चंचल बयार

पीता मन मुकुलित कंज आप
अपनी मधु बूँदे मधुर मौन
निस्वन दिगंत में रहे रुद्ध
सहसा बोले मनु ” अरे कौन-

आलोकमयी स्मिति-चेतना
आयी यह हेमवती छाया’
तंद्रा के स्वप्न तिरोहित थे
बिखरी केवल उजली माया

वह स्पर्श-दुलार-पुलक से भर
बीते युग को उठता पुकार
वीचियाँ नाचतीं बार-बार।
प्रतिभा प्रसन्न-मुख सहज खोल

वह बोली-” मैं हूँ इड़ा, कहो
तुम कौन यहाँ पर रहे डोल”
नासिका नुकीली के पतले पुट
फरक रहे कर स्मित अमोल

” मनु मेरा नाम सुनो बाले
मैं विश्व पथिक स रहा क्लेश।”
” स्वागत पर देख रहे हो तुम
यह उजड़ा सारस्वत प्रदेश

भौति हलचल से यह
चंचल हो उठा देश ही था मेरा
इसमें अब तक हूँ पड़ी
इस आशा से आये दिन मेरा।”

” मैं तो आया हूँ- देवि बता दो
जीवन का क्या सहज मोल
भव के भविष्य का द्वार खोल
इस विश्वकुहर में इंद्रजाल

जिसने रच कर फैलाया है
ग्रह, तारा, विद्युत, नखत-माल
सागर की भीषणतम तरंग-सा
खेल रहा वह महाकाल

तब क्या इस वसुधा के
लघु-लघु प्राणी को करने को सभीत
उस निष्ठुर की रचना कठोर
केवल विनाश की रही जीत

तब मूर्ख आज तक क्यों समझे हैं
सृष्टि उसे जो नाशमयी
उसका अधिपति होगा कोई,
जिस तक दुख की न पुकार गयी

सुख नीड़ों को घेरे रहता
अविरत विषाद का चक्रवाल
किसने यह पट है दिया डाल
शनि का सुदूर वह नील लोक

जिसकी छाया-फैला है
ऊपर नीचे यह गगन-शोक
उसके भी परे सुना जाता
कोई प्रकाश का महा ओक

वह एक किरण अपनी देकर
मेरी स्वतंत्रता में सहाय
क्या बन सकता है? नियति-जाल से
मुक्ति-दान का कर उपाय।”

कोई भी हो वह क्या बोले,
पागल बन नर निर्भर न करे
अपनी दुर्बलता बल सम्हाल
गंतव्य मार्ग पर पैर धरे-

मत कर पसार-निज पैरों चल,
चलने की जिसको रहे झोंक
उसको कब कोई सके रोक?
हाँ तुम ही हो अपने सहाय?

जो बुद्धि कहे उसको न मान कर
फिर किसकी नर शरण जाय
जितने विचार संस्कार रहे
उनका न दूसरा है उपाय

यह प्रकृति, परम रमणीय
अखिल-ऐश्वर्य-भरी शोधक विहीन
तुम उसका पटल खोलने में परिकर
कस कर बन कर्मलीन

सबका नियमन शासन करते
बस बढ़ा चलो अपनी क्षमता
तुम ही इसके निर्णायक हो,
हो कहीं विषमता या समता

तुम जड़ा को चैतन्या करो
विज्ञान सहज साधन उपाय
यश अखिल लोक में रहे छाय।”
हँस पड़ा गगन वह शून्य लोक

जिसके भीतर बस कर उजड़े
कितने ही जीवन मरण शोक
कितने हृदयों के मधुर मिलन
क्रंदन करते बन विरह-कोक

ले लिया भार अपने सिर पर
मनु ने यह अपना विषम आज
हँस पड़ी उषा प्राची-नभ में
देखे नर अपना राज-काज

चल पड़ी देखने वह कौतुक
चंचल मलयाचल की बाला
लख लाली प्रकृति कपोलों में
गिरता तारा दल मतवाला

उन्निद्र कमल-कानन में
होती थी मधुपों की नोक-झोंक
वसुधा विस्मृत थी सकल-शोक।
“जीवन निशीथ का अधंकार

भग रहा क्षितिज के अंचल में
मुख आवृत कर तुमको निहार
तुम इड़े उषा-सी आज यहाँ
आयी हो बन कितनी उदार

कलरव कर जाग पड़े
मेरे ये मनोभाव सोये विहंग
हँसती प्रसन्नता चाव भरी
बन कर किरनों की सी तरंग

अवलंब छोड़ कर औरों का
जब बुद्धिवाद को अपनाया
मैं बढा सहज, तो स्वयं
बुद्धि को मानो आज यहाँ पाया

मेरे विकल्प संकल्प बनें,
जीवन ही कर्मों की पुकार
सुख साधन का हो खुला द्वार।”

कामायनी

कामायनी
चिंता सर्ग: भाग १ और २
आनंद सर्ग: भाग १ और २