भ्रम
कश्ती जूझे तूफ़ान में
या कड़ी रहे किनारे
जीवन सदा चलता है
एक सहारे के सहारे।
पर क्या है वह सहारा—
क्या अटूट विश्वास ईश्वर पर हमारा ?
यदि हाँ,
तो उसके टूटने पर भी जीवन क्यों न रुक पाया,
उजड़े हिरोशिमा को हमने फिर से क्यों बसाया ?
तब सहारा शायद नैतिकता और उसूलों का हो!
या, रिश्तों की प्रगाढ़ता और मूल्यों का हो !
पर,
उनकी सामूहिक हत्या का समाचार जब आया
तो ज़िन्दगी का सफ़र क्यों न रुक पाया ?
अवश्य ही इसलिए—
कि वस्तुतः
मनुष्य इन सहारों पर आश्रित कभी नहीं रहा है।
जीवन तो दरअसल
एक भ्रम के सहारे चलता रहा है।
नियति के अगणित कठोर विश्वासघात
मानव इसीलिए सह पाया
क्योंकि, एक के बिखरते ही
दूसरे भ्रम का सहारा बटोर पाया।