बन्दर
विचारों और क्रियाओं में,
कार्यों और योजनाओं में,
अक्सर मिलता है—
किसी अंधे कुँए की गहराई लिए चौड़ी खाई सा
एक बड़ा अंतर
जिसे पाटने के प्रयास में
आदमी होने का दावा करता हर आधुनिक बंदर
अंततः करता हुआ उसी पुरानी कहावत को चरितार्थ
अपने हाथों के न जाने कितने नारियल
फेंक चुका हठात
और फिर भी नहीं करता यह सत्य स्वीकार
कि जिन्हें फेंक रहा वह पत्थर समझकर
वे तो हैं वो स्वर्ण अवसर
जिनका सदुपयोग यदि वह कर पाता
तो सतह से ऊपर उठ कुछ मनुष्य बन पाता।
और वह खाई?
वह तो उसी क्षण मिट जाती
जब मानव धर्म की दीक्षा पाती
यह बंदरों की जाति।