मेरा पड़ोसी लोकतंत्र तरक्की कर रहा है
लोकतंत्र के बारे में मैं अच्छी तरह जानता हूँ। मेरा पड़ोसी है और किस्मत का तेज है—सन १९४७ में पैदा हुआ और सन १९५० तक उसके नाम भारत नाम का प्लॉट अलॉट हो चुका था। वैसे उसकी पैदाइश के बारे में कुछ तय नहीं हो पाया है। इसको लेकर विभिन्न मत पाए जाते हैं। कुछ के अनुसार वह अहिंसक आंदोलन से उत्पन्न हुआ जबकि कुछ अन्य उसे सशस्त्र क्रांति की उपज बताते हैं। मत जो भी सही हो, एक विचित्र बात जरूर हुई कि पैदा होने के तुरंत बाद ही यह घटोत्कच की भांति बड़ा हो गया।
कालांतर में इसकी कई संतानें हुईं , जिनमें से १३० करोड़ से अधिक अभी जीवित हैं। वैसे परिवार नियोजन के वर्तमान दौर में इतने बच्चों का होना कुछ ठीक तो नहीं पर उसे समझाए कौन। समझाने के लिए दिल्ली जाना पड़ेगा। वहां उसका एक आलीशान गोलाकार मकान है, जिसमें जाने के लिए पास बनवाना पड़ता है। अंदर टोपी खद्दर से ढके उसके कुछ चेले तरह-तरह के दाँव आजमा रहे होते हैं। इन दाँवों में चीखना, चिल्लाना, गालियां देना व हाथापाई करना आदि शामिल हैं । उस्ताद लोकतंत्र वहीं कहीं बैठा होता है, पर पहचान में नहीं आता। कारण कि उसके कई चेलों ने उसी की शक्ल वाले मुखौटे पहने होते हैं। वैसे यदि वह सामने भी हो तो मैं नहीं पहचान पाऊंगा। इसलिए कि वह मेरे पड़ोस वाले मकान में कभी रहा ही नहीं। उस मकान में उसकी विधवा बहन गरीबी रहती है।
लोकतंत्र की एक सौतेली बहन डेमोक्रेसी भी है जो विदेश में रहती है। कुछ अधिक समझदार है और बच्चे उसके कुछ कम है। इसलिए मजे में हैं। दूसरी ओर लोकतंत्र के पास सदा पैसों की कमी होती है। पर उसे इस बात का बहुत गरूर है कि ज्यादा बच्चे होने के कारण उसे अपनी बिरादरी में सबसे बड़ा माना जाता है। और तंगी का क्या है—जब बहुत बढ़ जाती है तो उसे निपटाने हेतु हवाई जहाज में बैठकर भिक्षाटन को निकल जाता है। ऋषियों की बनाई प्राचीन परम्परा है यह। उस पर चलने में कोई बुराई नहीं।
जब वह लौटता है तो उसके पात्र डॉलर से भरे होते हैं। पर वह अपने पास कुछ नहीं रखता। सारा कुछ अपने चेलो और उनके यार-दोस्तों में बांट देता है। बाकियों को यह बात अखरती है। वे उसे गालियां देते हैं और बुरा बताते हैं। लोकतंत्र को, स्वाभाविक है, यह सब पसंद नहीं आता। वह लोगों को समझाता है,पर वे नहीं समझते। पथराव तक करने लगते हैं। मजबूरन, बेचारे लोकतंत्र को पहले लाठीचार्ज और फिर फायरिंग करवानी पड़ती है।
लोग लोकतंत्र की मजबूरी को नहीं समझते,पर मैं समझता हूं। उसका पड़ोसी जो हूँ। पड़ोसी अगर पड़ोसी के काम नहीं आएगा तो कौन आएगा। लोकतंत्र को अपना पड़ोसी मानने वाले कई अन्य सज्जन पहले भी उसके काम आ चुके हैं। आप कहेंगे कि हम ही लोकतंत्र के काम क्यों आते हैं, वह भी हमारे काम क्यों नहीं आता? क्या पड़ोसी धर्म उसके लिए नहीं है? है जनाब, बिल्कुल है और उसे वह जी जान से निभा भी रहा है। बस, इतना भर है कि उसने अपना पड़ोसी हमें न मानकर पूंजीवाद को मान रखा है। वह निरंतर उसके काम आता रहता है। हमें वह अपना पड़ोसी इसलिए नहीं मानता कि उसने हमें कभी देखा ही नहीं। मैं पहले ही अर्ज कर चुका हूँ कि मेरे साथ वाले मकान में वह कभी नहीं रहा। अतः उसे दोष देने की कोई तुक नहीं।
वैसे लोकतंत्र तेजी से उन्नति के पथ पर अग्रसर है। समाजवाद के उसके आदर्श का तेजी से प्रसार हो रहा है। पहले केवल प्रोफेसरों के बेटे-बेटियों के नम्बर बढ़ पाते थे। अब, हर छात्र नकल मारने से लेकर नम्बर बढ़वाने तक के अपने अधिकारों को पहचानने लगा है। नौकरियां अब परिचय के स्थान पर पैसों से मिलती हैं और पहले आओ, पहले पाओ’ के आधार पर दी जाती हैं। इससे रोजगार के अवसर हर व्यक्ति के लिए समान रूप से बढ़ गए हैं। हां, जेब में पैसों का होना अनिवार्य है। इन पैसों का प्रबंध अभी तक आला अफसर, नेता, और जरायमपेशा लोग ही कर पाते थे, पर अब तो आम आदमी भी जागरूक हो रहा है। लूटने के अपने जिस अधिकार से वह अभी तक अनभिज्ञ था, अब उसके प्रति सचेत होता जा रहा है। कुछ लोग तो बहुत ही जागरूक हो गए हैं। सरकारी खजाने अथवा बैंक भी लूट लेते हैं। यह सब कुछ लोकतंत्र के प्रभाव से ही संभव हुआ है।
अपने पड़ोसी की तरक्की से मैं बहुत खुश हूँ । अब वह दिन दूर नहीं जब लूटने के अधिकार को संविधान में मौलिक अधिकारों की सूची में शामिल करने की मांग की जाएगी। उस दिन लोकतंत्र सफलता के एक अहम सोपान को छुएगा। मेरे लिए वह बड़े गर्व का क्षण होगा। पड़ोसी तरक्की करे तो खुशी होती ही है। यही स्वस्थ परम्परा है।
(१४ फरवरी १९९५ को चतुरंग भारत तथा पंजाब केसरी में प्रकाशित)