दीपक कुमार

 

दीपक कुमार

(१९६४ – वर्तमान)

दीपक उस पीढ़ी से आते हैं जिसने “भारत” और “इंडिया” दोनों को प्रचुरता से देखा, जिया, और भोगा है। उनका बचपन बिहार के छोटे शहरों, कस्बों, और गाँवों में बीता जबकि वयस्क जीवन महानगरों में व्यतीत हुआ है। साहित्य से गहरा लगाव होने के साथ-साथ वे लम्बे समय से हिंदी व अंग्रेजी पत्रकारिता (आई० टी०), मार्केट रिसर्च, तथा लेखन में भी सक्रिय रहे हैं। उनकी रचनाओं में इन विभिन्न पृष्ठभूमियों का समावेश और समायोजन स्पष्ट दिखाई देता है।

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अथ टेबुलाय नमः

कुर्सी को लेकर हमारे समाज में कई भ्रांतियां व्याप्त हैं। लोग अकारण ही इसके महत्व को बढ़ा-चढ़ाकर देखते हैं। यह मिल जाए तो स्वयं को धन्य मान बैठते हैं। सामने रखे टेबल को नजरअंदाज कर देते हैं। हालांकि इसमें कसूर उनका कम और कुर्सी की पब्लिसिटी करने वालों का अधिक है। कम्बख्तों ने ऐसी जोरदार पब्लिसिटी की कि लोगों की सोच कुर्सी तक ही जाकर अटक गयी। आगे नहीं बढ़ी। बढ़ती तो उन्हें दीखता कि आगे एक बड़ा टेबुल भी पड़ा है जो उस कुर्सी से कई गुना भारी है। कई बार तो यह इतना भारी होता है कि तीन- चार जन मिलकर भी इसे नहीं उठा पाते। दूसरी ओर, भारी से भारी कुर्सी भी एक अकेले के हिलाए हिल जाती है।

प्राय: सुनने में आता है कि अमुक की कुर्सी अचानक जाती रही और वह दो कौड़ी का रह गया। ऐसा इसलिए होता है कि अमुक ने अपनी पहचान कुर्सी से बनायी और कौड़ियाँ कुर्सी के हत्थे पर टिकायी होती हैं। जो उसने टेवुल से पहचान बनायी होती तो उसे उठाने को कई लोग बुलाए जाते। भीड़ जुटती। अच्छा खासा हँगामा खड़ा होता जिसे सूंघ कर अखबारवाले आ टपकते और खबर अखबारों में चली जाती। इधर मेज दरवाजे में अटक जाती और निकाले न निकलती (इसके लिए अफसरों को चाहिए कि मेज अपने चैम्बर में ही बनावाएँ और बढ़ई से उसे दरवाजे की नाप से बड़ा बनाने की ताकीद करें।) इस दौरान अमुक कोर्ट जाकर स्टे ऑर्डर ले आता और मेज यथास्थान रख दी जाती। साथ ही, कौड़ियाँ मेज की दराज में रखी होने के कारण, न गुम होतीं, न कम होतीं और न ही अमुक दो कौड़ी का हो पाता। उल्टा, सर पर जीत का सेहरा बंधा होने के कारण उसकी कीमत और बढ़ जाती।

वैसे भी देखा जाए तो असली शान टेबल से ही आती है। टेबल पर आप तरह-तरह की चीजें सजा सकते हैं। घंटी रख सकते है जिसे दबाते ही चपरासी आकर अदब से ‘यस सर’ कहे। फोन रख सकते हैं और दफ्तर के खर्च पर दूर के रिश्तेदारों को आवाज दे अचंभित कर सकते हैं। कुछ नहीं तो यूँ ही चोगा गरदन में अटकाए मिलने आने वालों पर अपना व्यस्त होना जाहिर कर सकते हैं। कुछ लोग तो अपनी मेज पर दो-तीन फोन रख लेते हैं और बदल-बदल कर इस्तेमाल करते हैं। कभी एक साथ सारे फोनों पर भी बतिया लेते हैं। उस समय वे सरकस के उस कलाकार की याद दिलाते हैं जो एक साथ चार सिगार पीता हो। अफसर से मिलने आए हए को मुफ्त का यह तमाशा बहुत भाता है। वह बैठा-बैठा बोर नहीं होता।

फोन के अलावा मेज पर गुलदस्ते भी रखे जा सकते हैं। यदि मेज थोड़ी बड़ी हो तो उस पर रंगीन मछलियों वाला जार भी आ सकता है। ये सारी चीजें रखने का लाभ यह होता है कि मरियल चौखटे वाले हाकिम भी रोबीले जान पड़ते हैं। यदि चौखटा पहले ही ठीक हो तो पर्सनालिटी और भी निखरी मालूम होती है।

इतनी सारी सुन्दर चीजें कुर्सी पर नहीं सजायी जा सकतीं। उस पर अधिक से अधिक सामान्य लीवर का एक आदमी और कम लीवर वाले दो आदमी बैठ सकते हैं। वैसे दो बैठते नहीं क्योंकि इस मामले में पार्टनरशिप का चलन अभी शुरू नहीं हुआ है। भविष्य में भी इसके शुरू होने की संभावना नहीं है। कारण कि कुर्सी पर बैठते ही आदमी का लीवर बढ़ने लगता है और कुछ ही दिनों में इतना बढ़ता है कि कुर्सी छोटी पड़ जाती है।

टेबल के केस में ऐसा नहीं होता। उस पर बैठने वाले को हर दिशा में फैलने की पूरी छूट होती है। आदमी चाहे तो ज्यादा से ज्यादा फैलकर गिनीज बुक में अपना नाम दर्ज करा सकता है।

बिना टेबल के कुर्सी पर बैठा शख़्स दफ्तर के बाहर बैठे अर्दली सा लगता है। यदि कुर्सी गद्दीदार हुई तो वह हद से हद उस आगन्तुक सा लगता है जिसे साहब के व्यस्त होने की वजह से घंटों इंतजार करना पड़ता हो। कुर्सी को कितना भी क्यों न सजा लें, टेबल के अभाव में उस पर बैठकर आप अफसर कतई नहीं लग सकते।

आवश्यकता है कि आप टेबल के महत्व को पहचानें और कुर्सी की जगह टेबल की पूजा करनी शुरू करें।

(२६ फरवरी १९९५ को विश्वमित्र में दैनिक प्रकाशित)