दीपक कुमार

 

दीपक कुमार

(१९६४ – वर्तमान)

दीपक उस पीढ़ी से आते हैं जिसने “भारत” और “इंडिया” दोनों को प्रचुरता से देखा, जिया, और भोगा है। उनका बचपन बिहार के छोटे शहरों, कस्बों, और गाँवों में बीता जबकि वयस्क जीवन महानगरों में व्यतीत हुआ है। साहित्य से गहरा लगाव होने के साथ-साथ वे लम्बे समय से हिंदी व अंग्रेजी पत्रकारिता (आई० टी०), मार्केट रिसर्च, तथा लेखन में भी सक्रिय रहे हैं। उनकी रचनाओं में इन विभिन्न पृष्ठभूमियों का समावेश और समायोजन स्पष्ट दिखाई देता है।

  1. साहित्य कला
  2.  » 
  3. Prose
  4.  » Ki aaya mausam dosti ka

कि आया मौसम दोस्ती का!

साहित्य में जो स्थान बसन्त को मिला है, वही भारतवर्ष में चुनाव को । इसका शुभागमन होते ही देश की राजनीतिक अमराइयों में लाउडस्पीकर की कूक गूंज उठती है। उदास-मुरझाए खड़े अस्सी साल के ठूँठ अचानक झक खद्दर से लद जाते हैं। चारों ओर श्वेत वस्त्रो में अटके फुटबालों को लुढ़कते देख लगता है मानो शस्यश्यामला धरती ने सफेद चूनर ओढ़ ली हो।

अहा! चुनावन्ती ब्यार के बहते ही सब पर जादू सा असर होता है। क्या छुटभइये और क्या बड़भइये , सभी इसकी महक से बौरा जाते हैं। समूचा व्यवहार ही बदल जाता है उनका। नेता नाम का बहुचर्चित प्राणी यकायक बड़ा ही मिलनसार बन जाता है। एकदम फ्री सप्लाई हो जाती है उसकी। यहाँ तक कि लोग देख-देख कर बोर हो जाते है। पहचानने तक से इंकार करने लगते हैं। पर वह नहीं करता। झट पहचान लेता है और चिपक जाता, कि आया मौसम दोस्ती का…!

दोस्ती के इस मौसम में नेता सबसे दोस्ती करता है और सबसे गले मिलता है—चोर से और अधिकारी से, व्यापारी  से और भिखारी से, और यहां तक कि जनता बिचारी से भी। जनता बिचारी अपना पुराना रोना ले बैठती है। नेता सब सुनना चाहता है पर उसके पास टाइम कम होता है। उसे कइयों से मिलना जो होता है।

वह विरोधी दल के नेता से मिलने जाता है। विरोधी नेता भी पूरे तपाक से मिलता है।
– अहोभाग्य जो आप पधारे! आदेश करें।
– अजी आदेश कैसा! मैं तो जनता का सेवक हूं। अभी भी सेवा करने को निकला था। सोचा आपसे मिलता चलूँ।
– बड़ा अच्छा किया यहां आकर। बल्कि मेरी मानिए तो यहीं टिक जाइए और हमारी पार्टी के माध्यम से जनता की सेवा कीजिए।
– आपने तो मुझे धर्मसंकट में डाल दिया। तिकड़म पार्टी वाले भी बहुत बुला रहे हैं। सेवा कार्यों के लिए तीन करोड़ दे रहे हैं। जीतने पर राज्य मंत्री बना कर सेवा के और अवसर भी देंगे।
– तो आपने क्या तय किया है ?
– अजी तय क्या करना है। जहां सेवा के अधिक अवसर मिलेंगे वहां जाऊंगा।
– फिर तो आप हमारे साथ ही आ जाइए। हम आपको पाँच करोड़ तथा उप-मंत्री पद देंगे।
– हें हें हें…  अब आपकी बात कैसे टाल सकता हूं मैं…!

इस प्रकार दोनों में दोस्ती हो जाती है। कुछ लोगों को यह बात फूटी आँखों नहीं सुहाती। वे इस पवित्र रिश्ते को दलबदल का नाम देकर बदनाम करने का प्रयास करते हैं। दुष्प्रचार द्वारा नेता को जनता की नज़रों में गिराना चाहते हैं । भोली-भाली जनता का इस प्रकार गुमराह होना नेता के सेवक मन को गवारा नहीं होता। सो, वह प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाकर पत्रकारों की सेवा करता है। उनके खाने-पीने और पहनने-ओढ़ने की व्यवस्था करता है । जो पत्रकार ज्यादा भूखे-नंगे होते हैं, उन्हें जेब खर्च भी देता है। पत्रकार बहुत प्रभावित होते हैं। नेता के सेवाभाव और मैत्रीभाव पर उन्हें कोई संदेह नहीं रह जाता।

तब नेता एक वक्तव्य देता है। पत्रकार उसे बड़े मनोयोग से नोट करते है और फिर जनता को परोसते हैं ताकि वह गुमराह न हो। बताते हैं कि नेता ने जो किया है, उसे दलबदल नहीं अपितु चुनावी गठबंधन कहते हैं । राजनीति के शास्त्रों में इससे पवित्र बंधन दूसरा नहीं बताया गया है। देश की श्रद्धालु जनता संतुष्ट हो जाती है।

सभी संतुष्ट हो जाते हैं, सिवाय कुछ शंकालुओं के। वे शंका व्यक्त करते है कि चुनाव के बाद नेता का व्यवहार फिर उलट जाएगा। नादान और नासमझ हैं वे। नहीं जानते कि नेता एक अत्यन्त ही संवेदनशील प्राणी है। उसकी कोमल प्रकृति पर तीखे मौसमों  का बड़ा प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और उसकी मिलनसारिता एकदम से नष्ट हो जाती है। दोस्ती का रस बनाने वाले हारमोन काम करना बंद कर देते हैं। इससे वह चिड़चिड़ा हो जाता है और जनता से मिलना-जुलना बंद कर देता है।

कोई क्या जाने कि अपनी प्यारी जनता से न मिल सकने का उसे कितना दुख होता है। बेचारा! क्या करे ? मजबूर हो जाता है मौसम के हाथों। और चूंकि वह जानता है कि चुनाव का मौसम आए बिना उसके अंदर दोस्ती का रस बनना संभव नहीं, इसलिए वह इस मौसम को पतली गली से निकाल लाने के अवसर की ताक में हमेशा रहता है। अपने इस चिरन्तन प्रयास में वह कभी सफल होता है कभी असफल। ईश्वर करे कि वह अधिक से अधिक बार सफल हो ताकि हम अधिक से अधिक बार गा सकें—कि आया मौसम दोस्ती का!