धैर्य
प्रायः,
घटनाओं से पीड़ित हो,
या फिर दुर्घटनाओं से आच्छादित हो,
क्रोध और झुंझलाहट में भर,
हम प्रण लेते हैं—
घटित के कारणों का पता कर,
अपनी दुर्बलताओं से अवगत हो, उन्हें दूर करने का
स्वयं को वचन देते हैं।
पर जब प्रतिकूलताएँ हमें उस कगार तक लाती हैं
जो हमारे धैर्य की अंतिम सीमा होता है,
और गिरने से नहीं रोक पाते हम स्वयं को एक अंधे कुँए में
तो, तलहटी पर पड़ी
हमारे ही नियमों की सूखी लकड़ियाँ
टूटती हैं चरमरा कर
हमारे ही बोझ से।
सच में—
धैर्य की उस कगार पर
विश्वास की डोर का साथ होना
कितना जरूरी है !