Jaishankar Prasad

 

जयशंकर प्रसाद

(१८८९ – १९३६)

जयशंकर प्रसाद कवि, नाटककार, कहानीकार, उपन्यासकार तथा निबन्ध-लेखक थे। वे हिन्दी के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। आधुनिक हिन्दी साहित्य के इतिहास में इनके कृतित्व का गौरव अक्षुण्ण है। वे एक युगप्रवर्तक लेखक थे जिन्होंने एक ही साथ कविता, नाटक, कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में हिन्दी को गौरवान्वित होने योग्य कृतियाँ दीं। (साभार: विकिपीडिया)

काम सर्ग–भाग १

“मधुमय वसंत जीवन-वन के,
बह अंतरिक्ष की लहरों में।
कब आये थे तुम चुपके से,
रजनी के पिछले पहरों में?

क्या तुम्हें देखकर आते यों,
मतवाली कोयल बोली थी?
उस नीरवता में अलसाई,
कलियों ने आँखे खोली थीं?

जब लीला से तुम सीख रहे,
कोरक-कोने में लुक करना।
तब शिथिल सुरभि से धरणी में,
बिछलन न हुई थी? सच कहना।

जब लिखते थे तुम सरस हँसी,
अपनी, फूलों के अंचल में।
अपना कल कंठ मिलाते थे,
झरनों के कोमल कल-कल में।

निश्चित आह वह था कितना,
उल्लास, काकली के स्वर में।
आनन्द प्रतिध्वनि गूँज रही,
जीवन दिगंत के अंबर में।

शिशु चित्रकार! चंचलता में,
कितनी आशा चित्रित करते!
अस्पष्ट एक लिपि ज्योतिमयी,
जीवन की आँखों में भरते।

लतिका घूँघट से चितवन की,
वह कुसुम-दुग्ध-सी मधु-धारा।
प्लावित करती मन-अजिर रही,
था तुच्छ विश्व वैभव सारा।

वे फूल और वह हँसी रही,
वह सौरभ, वह निश्वास छना।
वह कलरव, वह संगीत अरे!
वह कोलाहल एकांत बना।”

कहते-कहते कुछ सोच रहे,
लेकर निश्वास निराशा की।
मनु अपने मन की बात,रुकी,
फिर भी न प्रगति अभिलाषा की।

“ओ नील आवरण जगती के!
दुर्बोध न तू ही है इतना।
अवगुंठन होता आँखों का,
आलोक रूप बनता जितना।

चल-चक्र वरुण का ज्योति भरा
व्याकुल तू क्यों देता फेरी?
तारों के फूल बिखरते हैं,
लुटती है असफलता तेरी।

नव नील कुंज हैं झूम रहे,
कुसुमों की कथा न बंद हुई।
है अतंरिक्ष आमोद भरा,
हिम-कणिका ही मकरंद हुई।

इस इंदीवर से गंध भरी,
बुनती जाली मधु की धारा।
मन-मधुकर की अनुरागमयी,
बन रही मोहिनी-सी कारा।

अणुओं को है विश्राम कहाँ?
यह कृतिमय वेग भरा कितना।
अविराम नाचता कंपन है,
उल्लास सजीव हुआ कितना?

उन नृत्य-शिथिल-निश्वासों की,
कितनी है मोहमयी माया?
जिनसे समीर छनता-छनता,
बनता है प्राणों की छाया।

आकाश-रंध्र हैं पूरित-से,
यह सृष्टि गहन-सी होती है।
आलोक सभी मूर्छित सोते,
यह आँख थकी-सी रोती है।

सौंदर्यमयी चंचल कृतियाँ,
बनकर रहस्य हैं नाच रहीं।
मेरी आँखों को रोक वही,
आगे बढने में जाँच रहीं।

मैं देख रहा हूँ जो कुछ भी,
वह सब क्या छाया उलझन है?
सुंदरता के इस परदे में,
क्या अन्य धरा कोई धन है?

मेरी अक्षय निधि तुम क्या हो,
पहचान सकूँगा क्या न तुम्हें?
उलझन प्राणों के धागों की,
सुलझन का समझूँ मान तुम्हें।

माधवी निशा की अलसाई,
अलकों में लुकते तारा-सी।
क्या हो सूने-मरु अंचल में,
अंतःसलिला की धारा-सी।

श्रुतियों में चुपके-चुपके से कोई,
मधु-धारा घोल रहा,
इस नीरवता के परदे में,
जैसे कोई कुछ बोल रहा।

है स्पर्श मलय के झिलमिल सा,
संज्ञा को और सुलाता है।
पुलकित हो आँखे बंद किये,
तंद्रा को पास बुलाता है।

व्रीड़ा है यह चंचल कितनी,
विभ्रम से घूँघट खींच रही।
छिपने पर स्वयं मृदुल कर से,
क्यों मेरी आँखे मींच रही?

उद्बुद्ध क्षितिज की श्याम छटा,
इस उदित शुक्र की छाया में।
ऊषा-सा कौन रहस्य लिये,
सोती किरनों की काया में।

उठती है किरनों के ऊपर,
कोमल किसलय की छाजन-सी।
स्वर का मधु-निस्वन रंध्रों में,
जैसे कुछ दूर बजे बंसी।

सब कहते हैं- ‘खोलो खोलो,
छवि देखूँगा जीवन धन की’।
आवरन स्वयं बनते जाते हैं,
भीड़ लग रही दर्शन की।

चाँदनी सदृश खुल जाय कहीं,
अवगुंठन आज सँवरता सा,
जिसमें अनंत कल्लोल भरा,
लहरों में मस्त विचरता सा।

अपना फेनिल फन पटक रहा,
मणियों का जाल लुटाता-सा।
उनिन्द्र दिखाई देता हो,
उन्मत्त हुआ कुछ गाता-सा।”

“जो कुछ हो, मैं न सम्हालूँगा,
इस मधुर भार को जीवन के।
आने दो कितनी आती हैं,
बाधायें दम-संयम बन के।

नक्षत्रों, तुम क्या देखोगे,
इस ऊषा की लाली क्या है?
संकल्प भरा है उनमें
संदेहों की जाली क्या है?

कौशल यह कोमल कितना है,
सुषमा दुर्भेद्य बनेगी क्या?
चेतना इंद्रियों की मेरी,
मेरी ही हार बनेगी क्या?

“पीता हूँ, हाँ मैं पीता हूँ,
यह स्पर्श,रूप, रस गंध भरा
मधु, लहरों के टकराने से,
ध्वनि में है क्या गुंजार भरा।

तारा बनकर यह बिखर रहा,
क्यों स्वप्नों का उन्माद अरे!
मादकता-माती नींद लिये,
सोऊँ मन में अवसाद भरे।

चेतना शिथिल-सी होती है,
उन अधंकार की लहरों में”
मनु डूब चले धीरे-धीरे
रजनी के पिछले पहरों में।

उस दूर क्षितिज में सृष्टि बनी,
स्मृतियों की संचित छाया से।
इस मन को है विश्राम कहाँ,
चंचल यह अपनी माया से।

 

काम सर्ग–भाग २

जागरण-लोक था भूल चला,
स्वप्नों का सुख-संचार हुआ।
कौतुक सा बन मनु के मन का,
वह सुंदर क्रीड़ागार हुआ।

था व्यक्ति सोचता आलस में,
चेतना सजग रहती दुहरी।
कानों के कान खोल करके,
सुनती थी कोई ध्वनि गहरी।

“प्यासा हूँ, मैं अब भी प्यासा,
संतुष्ट ओध से मैं न हुआ।
आया फिर भी वह चला गया,
तृष्णा को तनिक न चैन हुआ।

देवों की सृष्टि विलिन हुई,
अनुशीलन में अनुदिन मेरे।
मेरा अतिचार न बंद हुआ,
उन्मत्त रहा सबको घेरे।

मेरी उपासना करते वे,
मेरा संकेत विधान बना।
विस्तृत जो मोह रहा मेरा,
वह देव-विलास-वितान तना।

मैं काम, रहा सहचर उनका,
उनके विनोद का साधन था।
हँसता था और हँसाता था,
उनका मैं कृतिमय जीवन था।

जो आकर्षण बन हँसती थी,
रति थी अनादि-वासना वही।
अव्यक्त-प्रकृति-उन्मीलन के,
अंतर में उसकी चाह रही।

हम दोनों का अस्तित्व रहा,
उस आरंभिक आवर्त्तन-सा।
जिससे संसृति का बनता है,
आकार रूप के नर्त्तन-सा।

उस प्रकृति-लता के यौवन में,
उस पुष्पवती के माधव का।
मधु-हास हुआ था वह पहला,
दो रूप मधुर जो ढाल सका।”

“वह मूल शक्ति उठ खड़ी हुई,
अपने आलस का त्याग किये।
परमाणु बल सब दौड़ पड़े,
जिसका सुंदर अनुराग लिये।

कुंकुम का चूर्ण उड़ाते से,
मिलने को गले ललकते से।
अंतरिक्ष में मधु-उत्सव के,
विद्युत्कण मिले झलकते से।

वह आकर्षण, वह मिलन हुआ,
प्रारंभ माधुरी छाया में।
जिसको कहते सब सृष्टि,बनी
मतवाली माया में।

प्रत्येक नाश-विश्लेषण भी,
संश्लिष्ट हुए, बन सृष्टि रही।
ऋतुपति के घर कुसुमोत्सव था,
मादक मरंद की वृष्टि रही।

भुज-लता पड़ी सरिताओं की,
शैलों के गले सनाथ हुए।
जलनिधि का अंचल व्यजन बना,
धरणी के दो-दो साथ हुए।

कोरक अंकुर-सा जन्म रहा,
हम दोनों साथी झूल चले।
उस नवल सर्ग के कानन में,
मृदु मलयानिल के फूल चले।

हम भूख-प्यास से जाग उठे,
आकांक्षा-तृप्ति समन्वय में।
रति-काम बने उस रचना में जो,
रही नित्य-यौवन वय में?’

“सुरबालाओं की सखी रही,
उनकी हृत्त्री की लय थी
रति, उनके मन को सुलझाती,
वह राग-भरी थी, मधुमय थी।

मैं तृष्णा था विकसित करता,
वह तृप्ति दिखती थी उनकी,
आनन्द-समन्वय होता था
हम ले चलते पथ पर उनको।

वे अमर रहे न विनोद रहा,
चेतना रही, अनंग हुआ।
हूँ भटक रहा अस्तित्व लिये,
संचित का सरल प्रंसग हुआ।”

“यह नीड़ मनोहर कृतियों का,
यह विश्व कर्म रंगस्थल है।
है परंपरा लग रही यहाँ,
ठहरा जिसमें जितना बल है।

वे कितने ऐसे होते हैं
जो केवल साधन बनते हैं।
आरंभ और परिणामों को,
संबध सूत्र से बुनते हैं।

ऊषा की सज़ल गुलाली जो,
घुलती है नीले अंबर में।
वह क्या? क्या तुम देख रहे,
वर्णों के मेघाडंबर में?

अंतर है दिन औ ‘रजनी का
यह, साधक-कर्म बिखरता है।
माया के नीले अंचल में,
आलोक बिदु-सा झरता है।”

“आरंभिक वात्या-उद्गम मैं,
अब प्रगति बन रहा संसृति का।
मानव की शीतल छाया में,
ऋणशोध करूँगा निज कृति का।

दोनों का समुचित परिवर्त्तन,
जीवन में शुद्ध विकास हुआ।
प्रेरणा अधिक अब स्पष्ट हुई,
जब विप्लव में पड़ ह्रास हुआ।

यह लीला जिसकी विकस चली,
वह मूल शक्ति थी प्रेम-कला।
उसका संदेश सुनाने को,
संसृति में आयी वह अमला।

हम दोनों की संतान वही,
कितनी सुंदर भोली-भाली।
रंगों ने जिससे खेला हो,
ऐसे फूलों की वह डाली।

जड़-चेतनता की गाँठ वही,
सुलझन है भूल-सुधारों की।
वह शीतलता है शांतिमयी,
जीवन के उष्ण विचारों की।

उसको पाने की इच्छा हो
तो, “योग्य बनो”-कहती-कहती,
वह ध्वनि चुपचाप हुई सहसा,
जैसे मुरली चुप हो रहती।

मनु आँख खोलकर पूछ रहे-
“पथ कौन वहाँ पहुँचाता है?
उस ज्योतिमयी को देव कहो,
कैसे कोई नर पाता है?”

पर कौन वहाँ उत्तर देता,
वह स्वप्न अनोखा भंग हुआ।
देखा तो सुंदर प्राची में,
अरूणोदय का रस-रंग हुआ।

उस लता कुंज की झिल-मिल से,
हेमाभरश्मि थी खेल रही।
देवों के सोम-सुधा-रस की,
मनु के हाथों में बेल रही।

कामायनी

कामायनी
चिंता सर्ग: भाग १ और २
आनंद सर्ग: भाग १ और २