रहस्य सर्ग–भाग १
उर्ध्व देश उस नील तमस में,
स्तब्ध हि रही अचल हिमानी,
पथ थककर हैं लीन चतुर्दिक,
देख रहा वह गिरि अभिमानी,
दोनों पथिक चले हैं कब से,
ऊँचे-ऊँचे चढते जाते,
श्रद्धा आगे मनु पीछे थे,
साहस उत्साही से बढते।
पवन वेग प्रतिकूल उधर था,
कहता-‘फिर जा अरे बटोही
किधर चला तू मुझे भेद कर
प्राणों के प्रति क्यों निर्मोही?
छूने को अंबर मचली सी
बढी जा रही सतत उँचाई
विक्षत उसके अंग, प्रगट थे
भीषण खड्ड भयकारी खाँई।
रविकर हिमखंडों पर पड कर
हिमकर कितने नये बनाता,
दुततर चक्कर काट पवन थी
फिर से वहीं लौट आ जाता।
नीचे जलधर दौड रहे थे
सुंदर सुर-धनु माला पहने,
कुंजर-कलभ सदृश इठलाते,
चपला के गहने।
प्रवहमान थे निम्न देश में
शीतल शत-शत निर्झर ऐसे
महाश्वेत गजराज गंड से
बिखरीं मधु धारायें जैसे।
हरियाली जिनकी उभरी,
वे समतल चित्रपटी से लगते,
प्रतिकृतियों के बाह्य रेख-से स्थिर,
नद जो प्रति पल थे भगते।
लघुतम वे सब जो वसुधा पर
ऊपर महाशून्य का घेरा,
ऊँचे चढने की रजनी का,
यहाँ हुआ जा रहा सबेरा,
“कहाँ ले चली हो अब मुझको,
श्रद्धे मैं थक चला अधिक हूँ,
साहस छूट गया है मेरा,
निस्संबल भग्नाश पथिक हूँ,
लौट चलो, इस वात-चक्र से मैं,
दुर्बल अब लड न सकूँगा,
श्वास रुद्ध करने वाले,
इस शीत पवन से अड न सकूँगा।
मेरे, हाँ वे सब मेरे थे,
जिन से रूठ चला आया हूँ।”
वे नीचे छूटे सुदूर,
पर भूल नहीं उनको पाया हूँ।”
वह विश्वास भरी स्मिति निश्छल,
श्रद्धा-मुख पर झलक उठी थी।
सेवा कर-पल्लव में उसके,
कुछ करने को ललक उठी थी।
दे अवलंब, विकल साथी को,
कामायनी मधुर स्वर बोली,
“हम बढ दूर निकल आये,
अब करने का अवसर न ठिठोली।
दिशा-विकंपित, पल असीम है,
यह अनंत सा कुछ ऊपर है,
अनुभव-करते हो, बोलो क्या,
पदतल में, सचमुच भूधर है?
निराधार हैं किंतु ठहरना,
हम दोनों को आज यहीं है
नियति खेल देखूँ न, सुनो
अब इसका अन्य उपाय नहीं है।
झाँई लगती, वह तुमको,
ऊपर उठने को है कहती,
इस प्रतिकूल पवन धक्के को,
झोंक दूसरी ही आ सहती।
श्रांत पक्ष, कर नेत्र बंद बस,
विहग-युगल से आज हम रहें,
शून्य पवन बन पंख हमारे,
हमको दें आधारा, जम रहें।
घबराओ मत यह समतल है,
देखो तो, हम कहाँ आ गये”
मनु ने देखा आँख खोलकर,
जैसे कुछ त्राण पा गये।
ऊष्मा का अभिनव अनुभव था,
ग्रह, तारा, नक्षत्र अस्त थे,
दिवा-रात्रि के संधिकाल में,
ये सब कोई नहीं व्यस्त थे।
ऋतुओं के स्तर हुये तिरोहित,
भू-मंडल रेखा विलीन-सी
निराधार उस महादेश में,
उदित सचेतनता नवीन-सी।
त्रिदिक विश्व, आलोक बिंदु भी,
तीन दिखाई पडे अलग व,
त्रिभुवन के प्रतिनिधि थे मानो वे,
अनमिल थे किंतु सजग थे।
मनु ने पूछा, “कौन नये,
ग्रह ये हैं श्रद्धे मुझे बताओ?
मैं किस लोक बीच पहुँचा,
इस इंद्रजाल से मुझे बचाओ”
“इस त्रिकोण के मध्य बिंदु,
तुम शक्ति विपुल क्षमता वाले ये,
एक-एक को स्थिर हो देखो,
इच्छा ज्ञान, क्रिया वाले ये।
वह देखो रागारुण है जो,
उषा के कंदुक सा सुंदर,
छायामय कमनीय कलेवर,
भाव-मयी प्रतिमा का मंदिर।
शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध की,
पारदर्शिनी सुघड पुतलियाँ,
चारों ओर नृत्य करतीं ज्यों,
रूपवती रंगीन तितलियाँ
इस कुसुमाकर के कानन के,
अरुण पराग पटल छाया में,
इठलातीं सोतीं जगतीं ये,
अपनी भाव भरी माया में।
वह संगीतात्मक ध्वनि इनकी,
कोमल अँगडाई है लेती,
मादकता की लहर उठाकर,
अपना अंबर तर कर देती।
आलिगंन सी मधुर प्रेरणा,
छू लेती, फिर सिहरन बनती,
नव-अलंबुषा की व्रीडा-सी,
खुल जाती है, फिर जा मुँदती।
यह जीवन की मध्य-भूमि,
है रस धारा से सिंचित होती,
मधुर लालसा की लहरों से,
यह प्रवाहिका स्पंदित होती।
जिसके तट पर विद्युत-कण से।
मनोहारिणी आकृति वाले,
छायामय सुषमा में विह्वल,
विचर रहे सुंदर मतवाले।
सुमन-संकुलित भूमि-रंध्र-से,
मधुर गंध उठती रस-भीनी,
वाष्प अदृश फुहारे इसमें,
छूट रहे, रस-बूँदे झीनी।
घूम रही है यहाँ चतुर्दिक,
चलचित्रों सी संसृति छाया,
जिस आलोक-विदु को घेरे,
वह बैठी मुसक्याती माया।
भाव चक्र यह चला रही है,
इच्छा की रथ-नाभि घूमती,
नवरस-भरी अराएँ अविरल,
चक्रवाल को चकित चूमतीं।
यहाँ मनोमय विश्व कर रहा,
रागारुण चेतन उपासना,
माया-राज्य यही परिपाटी,
पाश बिछा कर जीव फाँसना।
ये अशरीरी रूप, सुमन से,
केवल वर्ण गंध में फूले,
इन अप्सरियों की तानों के,
मचल रहे हैं सुंदर झूले।
भाव-भूमिका इसी लोक की,
जननी है सब पुण्य-पाप की।
ढलते सब, स्वभाव प्रतिकृति,
बन गल ज्वाला से मधुर ताप की।
नियममयी उलझन लतिका का,
भाव विटपि से आकर मिलना,
जीवन-वन की बनी समस्या,
आशा नभकुसुमों का खिलना।
रहस्य सर्ग–भाग २
चिर-वसंत का यह उदगम है,
पतझर होता एक ओर है,
अमृत हलाहल यहाँ मिले है,
सुख-दुख बँधते, एक डोर हैं।”
“सुदंर यह तुमने दिखलाया,
किंतु कौन वह श्याम देश है?
कामायनी बताओ उसमें,
क्या रहस्य रहता विशेष है”
“मनु यह श्यामल कर्म लोक है,
धुँधला कुछ-कुछ अधंकार-सा
सघन हो रहा अविज्ञात
यह देश, मलिन है धूम-धार सा।
कर्म-चक्र-सा घूम रहा है,
यह गोलक, बन नियति-प्रेरणा,
सब के पीछे लगी हुई है,
कोई व्याकुल नयी एषणा।
श्रममय कोलाहल, पीडनमय,
विकल प्रवर्तन महायंत्र का,
क्षण भर भी विश्राम नहीं है,
प्राण दास हैं क्रिया-तंत्र का।
भाव-राज्य के सकल मानसिक,
सुख यों दुख में बदल रहे हैं,
हिंसा गर्वोन्नत हारों में ये,
अकडे अणु टहल रहे हैं।
ये भौतिक संदेह कुछ करके,
जीवित रहना यहाँ चाहते,
भाव-राष्ट्र के नियम यहाँ पर,
दंड बने हैं, सब कराहते।
करते हैं, संतोष नहीं है,
जैसे कशाघात-प्रेरित से-
प्रति क्षण करते ही जाते हैं,
भीति-विवश ये सब कंपित से।
नियाते चलाती कर्म-चक्र यह,
तृष्णा-जनित ममत्व-वासना,
पाणि-पादमय पंचभूत की,
यहाँ हो रही है उपासना।
यहाँ सतत संघर्ष विफलता,
कोलाहल का यहाँ राज है,
अंधकार में दौड लग रही
मतवाला यह सब समाज है।
स्थूल हो रहे रूप बनाकर,
कर्मों की भीषण परिणति है,
आकांक्षा की तीव्र पिपाशा
ममता की यह निर्मम गति है।
यहाँ शासनादेश घोषणा,
विजयों की हुंकार सुनाती,
यहाँ भूख से विकल दलित को,
पदतल में फिर फिर गिरवाती।
यहाँ लिये दायित्व कर्म का,
उन्नति करने के मतवाले,
जल-जला कर फूट पड रहे
ढुल कर बहने वाले छाले।
यहाँ राशिकृत विपुल विभव सब,
मरीचिका-से दीख पड रहे,
भाग्यवान बन क्षणिक भोग के वे,
विलीन, ये पुनः गड रहे।
बडी लालसा यहाँ सुयश की,
अपराधों की स्वीकृति बनती,
अंध प्रेरणा से परिचालित,
कर्ता में करते निज गिनती।
प्राण तत्त्व की सघन साधना जल,
हिम उपल यहाँ है बनता,
पयासे घायल हो जल जाते,
मर-मर कर जीते ही बनता
यहाँ नील-लोहित ज्वाला कुछ,
जला-जला कर नित्य ढालती,
चोट सहन कर रुकने वाली धातु,
न जिसको मृत्यु सालती।
वर्षा के घन नाद कर रहे,
तट-कूलों को सहज गिराती,
प्लावित करती वन कुंजों को,
लक्ष्य प्राप्ति सरिता बह जाती।”
“बस अब ओर न इसे दिखा तू,
यह अति भीषण कर्म जगत है,
श्रद्धे वह उज्ज्वल कैसा है,
जैसे पुंजीभूत रजत है।”
“प्रियतम यह तो ज्ञान क्षेत्र है,
सुख-दुख से है उदासीनत,
यहाँ न्याय निर्मम, चलता है,
बुद्धि-चक्र, जिसमें न दीनता।
अस्ति-नास्ति का भेद, निरंकुश करते,
ये अणु तर्क-युक्ति से,
ये निस्संग, किंतु कर लेते,
कुछ संबंध-विधान मुक्ति से।
यहाँ प्राप्य मिलता है केवल,
तृप्ति नहीं, कर भेद बाँटती,
बुद्धि, विभूति सकल सिकता-सी,
प्यास लगी है ओस चाटती।
न्याय, तपस्, ऐश्वर्य में पगे ये,
प्राणी चमकीले लगते,
इस निदाघ मरु में, सूखे से,
स्रोतों के तट जैसे जगते।
मनोभाव से काय-कर्म के
समतोलन में दत्तचित्त से,
ये निस्पृह न्यायासन वाले,
चूक न सकते तनिक वित्त से
अपना परिमित पात्र लिये,
ये बूँद-बूँद वाले निर्झर से,
माँग रहे हैं जीवन का रस,
बैठ यहाँ पर अजर-अमर-से।
यहाँ विभाजन धर्म-तुला का,
अधिकारों की व्याख्या करता,
यह निरीह, पर कुछ पाकर ही,
अपनी ढीली साँसे भरता।
उत्तमता इनका निजस्व है,
अंबुज वाले सर सा देखो,
जीवन-मधु एकत्र कर रही,
उन सखियों सा बस लेखो।
यहाँ शरद की धवल ज्योत्स्ना,
अंधकार को भेद निखरती,
यह अनवस्था, युगल मिले से,
विकल व्यवस्था सदा बिखरती।
देखो वे सब सौम्य बने हैं,
किंतु सशंकित हैं दोषों से,
वे संकेत दंभ के चलते,
भू-वालन मिस परितोषों से।
यहाँ अछूत रहा जीवन रस,
छूओ मत, संचित होने दो।
बस इतना ही भाग तुम्हारा,
तृष्णा मृषा, वंचित होने दो।
सामंजस्य चले करने ये,
किंतु विषमता फैलाते हैं,
मूल-स्वत्व कुछ और बताते,
इच्छाओं को झुठलाते हैं।
स्वयं व्यस्त पर शांत बने-से,
शास्त्र शस्त्र-रक्षा में पलते,
ये विज्ञान भरे अनुशासन,
क्षण क्षण परिवर्त्तन में ढलते।
यही त्रिपुर है देखा तुमने,
तीन बिंदु ज्योतोर्मय इतने,
अपने केन्द्र बने दुख-सुख में,
भिन्न हुए हैं ये सब कितने
ज्ञान दूर कुछ, क्रिया भिन्न है,
इच्छा क्यों पूरी हो मन की,
एक दूसरे से न मिल सके,
यह विडंबना है जीवन की।”
महाज्योति-रेख सी बनकर,
श्रद्धा की स्मिति दौडी उनमें,
वे संबद्ध हुए फर सहसा,
जाग उठी थी ज्वाला जिनमें।
नीचे ऊपर लचकीली वह,
विषम वायु में धधक रही सी,
महाशून्य में ज्वाल सुनहली,
सबको कहती ‘नहीं नहीं सी।
शक्ति-तंरग प्रलय-पावक का,
उस त्रिकोण में निखर-उठा-सा।
चितिमय चिता धधकती अविरल,
महाकाल का विषय नृत्य था,
विश्व रंध्र ज्वाला से भरकर,
करता अपना विषम कृत्य था,
स्वप्न, स्वाप, जागरण भस्म हो,
इच्छा क्रिया ज्ञान मिल लय थे,
दिव्य अनाहत पर-निनाद में,
श्रद्धायुत मनु बस तन्मय थे।