कर्म
व्यक्ति का प्रारब्ध ही
निर्धारित करता है,
उसके जीवन का उपलब्ध।
पर क्या है वह प्रारब्ध—
कोई देन अलौकिक,
या फिर, कोई साध्य स्वैच्छिक?
नहीं, नहीं—
यह तो है प्रतिबिम्ब मात्र
जीवन के कर्मों का,
उस महादर्पण में
जो निर्गुण और निराकार होकर भी द्रष्टा है
तभी तो,
कर्मों का प्रकार ही
सौभाग्य या दुर्भाग्य का स्रष्टा है।