Shagan Mukherjee

शागान मुखर्जी 

(१९७०–वर्तमान)

वाराणसी में जन्म, प्राथमिक शिक्षा दिल्ली में, और उत्तर प्रदेश में चित्रकला में स्नातकोत्तर की पढ़ाई—पेशे से ग्राफ़िक डिज़ाइनर रहे शागान विभिन्न मीडिया संस्थानों में उच्च पदों पर लम्बे समय तक कार्यरत रहे। इधर कुछ वर्षों से वे कला और साहित्य के विभिन्न क्षेत्रों में पुनः सक्रिय हो गए हैं। पिता करुणानिधान मुखर्जी अपने समय के मूर्धन्य चित्रकार, कवि, और कहानीकार थे। शागान उन्हीं की विरासत को आगे ले जाने की दिशा में प्रयासरत हैं।

  1. साहित्य कला
  2.  » 
  3. Prose
  4.  » Bai story by Shagan Mukherjee

बाई

“भाभी, मैं कल से नही आऊंगी,” सुशीला ने काम ख़त्म करके जाते हुए कहा।
नमिता ने एकदम चौंककर पूछा, “क्यों?”
“वो भाभी मैं पेट से हूँ,” सुशीला ने शरमाते हुए कहा।
“अच्छा,” नमिता ने संशय से सुशीला की तरफ देखा, “तुझे देखकर लगता तो नहीं है….कितने महीने हुए”?
“अरे भाभी कल ही तो पता चला है शाम को…आज डॉक्टर के पास जाना है,” सुशीला मुस्कुराते हुए बोली, “पर आप चिंता मत करो, मेरी भतीजी है न सविता, वो आ जाएगी कल से”।
नमिता ने राहत की सांस ली, “ठीक है। अपना ख़याल रखना।”

अगले दिन सुबह सुशीला वापस आ गई।

नमिता ने हैरान होते हुए पूछा, “अरे, तू कैसे आ गई? सविता को आना था ना?”
सुशीला थोड़ा रुआँसी होकर बोली, “वो भाभी रिपोर्ट ग़लत थी, अभी नहीं हुआ है।”
“रिपोर्ट कैसे ग़लत हो सकती है, कहाँ से टेस्ट करवाया था?”
“नहीं भाभी—वो तीन दिन हो गए थे महीना आये, तो मैंने खुद ही कर लिया था किट से।”
नमिता ने अपना माथा पकड़ लिया, “अरे कम से कम पैंतालीस दिन बाद करना होता है—इतनी भी क्या जल्दी है तुझे?”
“अब क्या बताऊँ भाभी, पांच साल से कोशिश कर रहें हैं; डॉक्टर की दवाई भी खा रहीं हूँ….अब तो घर वाले ताना देने लगे हैं। डॉक्टर कह रही हैं हो जायेगा थोड़ा सब्र करो। पर हर महीने मायूसी ही हाथ लगती है।”
“सुशीला सुन, ऐसे नहीं होता है— इतना दिमाग पर ज़ोर देगी तो टेंशन में ही रहेगी। इस पर से ध्यान हटा, हल्की कसरत कर, अपना वज़न घटा थोड़ा। ये सब भी ज़रूरी होता है, बस सब ऐसे ही नहीं हो जाता। मानसिक रूप से शांत और ख़ुशहाल होना पड़ता है। इसे एक काम की तरह करेगी तो मुश्किल आएगी ही,” नमिता ने समझाया।
“आप ठीक कह रही हो भाभी, पर घर जाते ही घर वाले और रिश्तेदारों की आँखें सवाल पूछने लगती हैं। दिमाग़ फिर उसी तरफ सोचने लगता है।”
नमिता ने उसके कंधे पर हाथ रखा और बैठाया, “ये बता किस डॉक्टर के पास जा रही है, पांच साल तो बहुत होते हैं। तेरे सारे टेस्ट करवाए डॉक्टर ने?”
“हाँ भाभी, बहुत सारे टेस्ट करवाए। डॉक्टर तो कहती है सब ठीक ही है, कभी कभी ऐसा हो जाता है, तू कोशिश करती रह।”
“अरे ऐसे कैसे,” नमिता ने झुंझलाते हुए कहा, “जब तेरे सारे टेस्ट ठीक हैं तो फिर हो क्यों नहीं रहा? पति के टेस्ट भी करवाए क्या डॉक्टर ने?”
“क्या बोल रही हो भाभी—ऐसा होता है क्या? आदमी का क्या टेस्ट होगा, वो तो ठीक ही हैं….और ऐसी बात उनसे करने की हिम्मत भी नहीं है मेरी,” सुशीला ने सहम कर कहा।
नमिता ने झिड़क कर कहा, “क्या पागलपन है ये! कमी पुरुष में भी हो सकती है। अपने पति को प्यार से समझा, डॉक्टर से टेस्ट की पर्ची बनवा ले। और तब भी ना माने तो मेरे पास ले आना; मैं बात करुँगी।”
“नहीं नहीं भाभी, बहुत गुस्से वाले हैं वो। उनको पता चला कि मैंने आपसे इतनी बात की है इस बारे में तो मेरी ठुकाई कर देंगे।”
नमिता ने आँखे तरेर कर सुशीला को देखा, “ऐसे कैसे ठुकाई कर देगा, तू बात कर उससे, प्यार से समझा वो मान जायेगा। चल अब काम समेट जल्दी, मुझे खाना भी बनाना है।”

मैं सब कुछ सुन रहा था, सुशीला के जाने के बाद मैंने नमिता से कहा, “इतना सब समझाने की ज़रूरत नहीं थी। इनका अपना तरीका होता है जीने का। ये शहरों में सिर्फ काम करने आते हैं, मानसिकता और शिक्षा का स्तर नहीं बढ़ता इनका। समझाने का कोई फ़ायदा नहीं होने वाला। अगर वाकई में इनकी सहायता करनी है तो इनके साथ जाकर खड़ा होना पड़ेगा, वरना कोई बदलाव नहीं आएगा इनके जीवन में।”
“ऐसे कैसे नहीं आएगा,” नमिता भड़क उठी, “ये लोग अशिक्षित हैं, पर हम तो नहीं हैं। हमारा फ़र्ज़ बनता है इनको समझाना—समाज के प्रति हमारी भी कोई ज़िम्मेदारी है! हमारी एजुकेशन का क्या फायदा? इनमें जागरूकता लानी पड़ेगी। अब देखो, क्या पता इसका पति मान जाये और सब ठीक हो जाये!”
मैंने कहा “तुम जितना आसान सोच रही हो, उतना आसान है नहीं। रातों-रात किसी की मानसिकता नहीं बदली जा सकती। बात करनी होती है, समझाना पड़ता है, समय देना होता है। जादू की छड़ी नहीं कि घुमाया और काम हो गया।”
नमिता ने कंधे उचकाए और रसोई में चली गई।

अगले दो दिन सुशीला काम पर नहीं आयी। नमिता गुस्से में पैर पटकते हुए सारे घर में घूम रही थी। फ़ोन भी नहीं उठा रही थी सुशीला, सोसाइटी ऑफिस को भी कोई खबर नहीं थी सुशीला की। सारा काम नमिता को करना पड़ रहा था।
मैंने सुबह की चाय बना दी और अख़बार लेकर बैठ गया। एक खबर पर मेरी नज़र पड़ी, पूरी खबर पढ़कर मैंने भारी मन से अखबार नमिता को थमा दिया।
सुशीला की अधजली लाश पाई गई थी उसके घर से, पति फरार था और घरवाले गिरफ़्तार। शायद सुशीला ने नमिता की बात मान कर ‘प्यार से समझाने की कोशिश’ कर ही डाली थी।
मैंने नमिता की तरफ देखा, उसने अख़बार लपेट कर टेबल पर रख दिया। सूनी आँखों से छत को देखने लगी।
मुझे लगा अभी बात करना ठीक न होगा, आत्मग्लानि से भरी बैठी होगी, सोच रही होगी ठीक नहीं किया, इतना दबाव नहीं डालना चाहिए था सुशीला पर…सब मेरी ग़लती है, ठीक से हैंडल नहीं किया…।”

हम दोनों ख़ामोशी से चाय पीते रहे। फिर नमिता उठी और भारी मन से बोली, “अब फिर से बाई का इंतज़ाम करना पड़ेगा, सोसाइटी ऑफिस में फ़ोन करती हूँ’।

मैं हैरान होकर नमिता को फ़ोन करते देखता रहा। हमारा फ़र्ज़, समाज के प्रति ज़िम्मेदारी, एजुकेशन, जागरूकता जैसे शब्द मेरे ज़ेहन में गूंजने लगे। बाहर काले बदल घिर आये थे, अँधेरा हो गया था और मेरे अंदर जैसे कुछ बरस रहा था।