Premchand

प्रेमचंद

(३१ जुलाई १८८० – ८ अक्टूबर १९३६)

1906 से 1936 के बीच लिखा गया प्रेमचंद का साहित्य इन तीस वर्षों का सामाजिक सांस्कृतिक दस्तावेज है। इसमें उस दौर के समाजसुधार आन्दोलनों, स्वाधीनता संग्राम तथा प्रगतिवादी आन्दोलनों के सामाजिक प्रभावों का स्पष्ट चित्रण है। उनमें दहेज, अनमेल विवाह, पराधीनता, लगान, छूआछूत, जाति भेद, विधवा विवाह, आधुनिकता, स्त्री-पुरुष समानता, आदि उस दौर की सभी प्रमुख समस्याओं का चित्रण मिलता है। आदर्शोन्मुख यथार्थवाद उनके साहित्य की मुख्य विशेषता है। हिन्दी कहानी तथा उपन्यास के क्षेत्र में 1918 से 1936 तक के कालखण्ड को ‘प्रेमचंद युग’ या ‘प्रेमचन्द युग’ कहा जाता है। (साभार: विकिपीडिया)

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निर्मला: अध्याय 5 / भाग 17

कृष्णा के विवाह के बाद सुधा चली गई, लेकिन निर्मला मैके ही में रह गई। वकील साहब बार-बार लिखते थे, पर वह न जाती थी। वहां जाने को उसका जी न चाहता था। वहां कोई ऐसी चीज न थी, जो उसे खींच ले जाये। यहां माता की सेवा और छोटे भाइयों की देखभाल में उसका समय बड़े आनन्द के कट जाता था। वकील साहब खुद आते तो शायद वह जाने पर राजी हो जाती, लेकिन इस विवाह में, मुहल्ले की लड़कियों ने उनकी वह दुर्गत की थी कि बेचारे आने का नाम ही न लेते थे। सुधा ने भी कई बार पत्र लिखा, पर निर्मला ने उससे भी हीले-हव़ाले किया। आखिर एक दिन सुधा ने नौकर को साथ लिया और स्वयं आ धमकी। जब दोनों गले मिल चुकीं, तो सुधा ने कहा-तुम्हें तो वहां जाते मानो डर लगता है। निर्मला- हां बहिन, डर तो लगता है। ब्याह की गई तीन साल में आई, अब की तो वहां उम्र ही खतम हो जायेगी, फिर कौन बुलाता है और कौन आता है? सुधा- आने को क्या हुआ, जब जी चाहे चली आना। वहां वकील साहब बहुत बेचैन हो रहे हैं। निर्मला- बहुत बेचैन, रात को शायद नींद न आती हो। सुधा- बहिन, तुम्हारा कलेजा पत्थर का है। उनकी दशा देखकर तरस आता है। कहते थे, घर मे कोई पूछने वाला नहीं, न कोई लड़का, न बाला, किससे जी बहलायें? जब से दूसरे मकान में उठ आए हैं, बहुत दुखी रहते हैं। निर्मला- लड़के तो ईश्वर के दिये दो-दो हैं। सुधा- उन दोनों की तो बड़ी शिकायत करते थे। जियाराम तो अब बात ही नहीं सुनता-तुर्की-बतुर्की जवाब देता है। रहा छोटा, वह भी उसी के कहने में है। बेचारे बड़े लड़के की याद करके रोया करते हैं। निर्मला- जियाराम तो शरीर न था, वह बदमाशी कब से सीख गया? मेरी तो कोई बात न टालता था, इशारे पर काम करता था। सुधा- क्या जाने बहिन, सुना, कहता है, आप ही ने भैया को जहर देकर मार डाला, आप हत्यारे हैं। कई बार तुमसे विवाह करने के लिए ताने दे चुका है। ऐसी-ऐसी बातें कहता है कि वकील साहब रो पड़ते हैं। अरे, और तो क्या कहूं, एक दिन पत्थर उठाकर मारने दौड़ा था। निर्मला ने गम्भीर चिन्ता में पड़कर कहा- यह लड़का तो बड़ा शैतान निकला। उसे यह किसने कहा कि उसके भाई को उन्होंने जहर दे दिया है? सुधा- वह तुम्हीं से ठीक होगा। निर्मला को यह नई चिन्ता पैदा हुई। अगर जिया की यही रंग है, अपने बाप से लड़ने पर तैयार रहता है, तो मुझसे क्यों दबने लगा? वह रात को बड़ी देर तक इसी फिक्र मे डूबी रही। मंसाराम की आज उसे बहुत याद आई। उसके साथ जिन्दगी आराम से कट जाती। इस लड़के का जब अपने पिता के सामने ही वह हाल है, तो उनके पीछे उसके साथ कैसे निर्वाह होगा! घर हाथ से निकल ही गया। कुछ-न-कुछ कर्ज अभी सिर पर होगा ही, आमदनी का यह हाल। ईश्ववर ही बेड़ा पार लगायेंगे। आज पहली बार निर्मला को बच्चों की फिक्र पैदा हुई। इस बेचारी का न जाने क्या हाल होगा? ईश्वर ने यह विपत्ति सिर डाल दी। मुझे तो इसकी जरुरत न थी। जन्म ही लेना था, तो किसी भाग्यवान के घर जन्म लेती। बच्ची उसकी छाती से लिपटी हुई सो रही थी। माता ने उसको और भी चिपटा लिया, मानो कोई उसके हाथ से उसे छीने लिये जाता है। निर्मला के पास ही सुधा की चारपाई भी थी। निर्मेला तो चिन्त्ज्ञ सागर मे गोता था रही थी और सुधा मीठी नींद का आनन्द उठा रही थी। क्या उसे अपने बालक की फिक्र सताती है? मृत्यु तो बूढ़े और जवान का भेद नहीं करती, फिनर सुधा को कोई चिन्ता क्यों नहीं सताती? उसे तो कभी भविष्य की चिन्ता से उदास नहीं देखा। सहसा सुधा की नींद खुल गई। उसने निर्मला को अभी तक जागते देखा, तो बोली- अरे अभी तुम सोई नहीं? निर्मला- नींद ही नहीं आती। सुधा- आंखें बन्द कर लो, आप ही नींद आ जायेगी। मैं तो चारपाई पर आते ही मर-सी जाती हूं। वह जागते भी हैं, तो खबर नहीं होती। न जाने मुझे क्यों इतनी नींद आती है। शायद कोई रोग है। निर्मला- हां, बड़ा भारी रोग है। इसे राज-रोग कहते हैं। डॉक्टर साहब से कहो-दवा शुरु कर दें। सुधा- तो आखिर जागकर क्या सोचूं? कभी-कभी मैके की याद आ जाती है, तो उस दिन जरा देर में आंख लगती है। निर्मला- डॉक्टर साहब की यादा नहीं आती? सुधा- कभी नहीं, उनकी याद क्यों आये? जानती हूं कि टेनिस खेलकर आये होंगे, खाना खाया होगा और आराम से लेटे होंगे। निर्मला- लो, सोहन भी जाग गया। जब तुम जाग गईं तो भला यह क्यों सोने लगा? सुधा- हां बहिन, इसकी अजीब आदत है। मेरे साथ सोता और मेरे ही साथ जागता है। उस जन्म का कोई तपस्वी है। देखो, इसके माथे पर तिलक का कैसा निशान है। बांहों पर भी ऐसे ही निशान हैं। जरुर कोई तपस्वी है। निर्मला- तपस्वी लोग तो चन्दन-तिलक नहीं लगाते। उस जन्म का कोई धूर्त पुजारी होगा। क्यों रे, तू कहां का पुजारी था? बता? सुधा- इसका ब्याह मैं बच्ची से करुंगी। निर्मला- चलो बहिन, गाली देती हो। बहिन से भी भाई का ब्याह होता है? सुधा- मैं तो करुंगी, चाहे कोई कुछ कहे। ऐसी सुन्दर बहू और कहां पाऊंगी? जरा देखो तो बहन, इसकी देह कुछ गर्म है या मुझके ही मालूम होती है। निर्मला ने सोहन का माथा छूकर कहा-नहीं-नहीं, देह गर्म है। यह ज्वर कब आ गया! दूध तो पी रहा है न? सुधा- अभी सोया था, तब तो देह ठंडी थी। शायद सर्दी लग गई, उढ़ाकर सुलाये देती हूं। सबेरे तक ठीक हो जायेगा। सबेरा हुआ तो सोहन की दशा और भी खराब हो गई। उसकी नाक बहने लगी और बुखार और भी तेज हो गया। आंखें चढ़ गईं और सिर झुक गया। न वह हाथ-पैर हिलाता था, न हंसता-बोलता था, बस, चुपचाप पड़ा था। ऐसा मालूम होता था कि उसे इस वक्त किसी का बोलना अच्छा नहीं लगता। कुछ-कुछ खांसी भी आने लगी। अब तो सुधा घबराई। निर्मला की भी राय हुई कि डॉक्टर साहब को बुलाया जाये, लेकिन उसकी बूढ़ी माता ने कहा-डॉक्टर-हकीम साहब का यहां कुछ काम नहीं। साफ तो देख रही हूं। कि बच्चे को नजर लग गई है। भला डॉक्टर आकर क्या करेंगे? सुधा- अम्मांजी, भला यहां नजर कौन लगा देगा? अभी तक तो बाहर कहीं गया भी नहीं। माता- नजर कोई लगाता नहीं बेटी, किसी-किसी आदमी की दीठ बुरी होती है, आप-ही-आप लग जाती है। कभी-कभी मां-बाप तक की नजर लग जाती है। जब से आया है, एक बार भी नहीं रोया। चोंचले बच्चों को यही गति होती है। मैं इसे हुमकते देखकर डरी थी कि कुछ-न-कुछ अनिष्ट होने वाला है। आंखें नहीं देखती हो, कितनी चढ़ गई हैं। यही नजर की सबसे बड़ी पहचान है। बुढ़िया महरी और पड़ोस की पंडिताइन ने इस कथन का अनुमोदन कर दिया। बस महंगू ने आकर बच्चे का मुंह देखा और हंस कर बोला-मालकिन, यह दीठ है और नहीं। जरा पतली-पतली तीलियां मंगवा दीजिए। भगवान ने चाहा तो संझा तक बच्चा हंसने लगेगा। सरकण्डे के पांच टुकड़े लाये गये। महगूं ने उन्हें बराबर करके एक डोरे से बांध दिया और कुछ बुदबुदाकर उसी पोले हाथों से पांच बार सोहन का सिर सहलाया। अब जो देखा, तो पांचों तीलियां छोटी-बड़ी हो गेई थी। सब स्त्रीयों यह कौतुक देखकर दंग रह गईं। अब नजर में किसे सन्देह हो सकता था। महगूं ने फिर बच्चे को तीलियों से सहलाना शुरु किया। अब की तीलियां बराबर हो गईं। केवल थोड़ा-सा अन्तर रह गया। यह सब इस बात का प्रमाण था कि नजर का असर अब थोड़ा-सा और रह गया है। महगू सबको दिलासा देकर शाम को फिर आने का वायदा करके चला गया। बालक की दशा दिन को और खराब हो गई। खांसी का जोर हो गया। शाम के समय महगूं ने आकरा फिर तीलियों का तमाशा किया। इस वक्त पांचों तीलियों बराबर निकलीं। स्त्रीयां निश्चित हो गईं लेकिन सोहन को सारी रात खांसते गुजरी। यहां तक कि कई बार उसकी आंखें उलट गईं। सुधा और निर्मला दोनों ने बैठकर सबेरा किया। खैर, रात कुशल से कट गई। अब वृद्वा माताजी नया रंग लाईं। महगूं नजर न उतार सका, इसलिए अब किसी मौलवी से फूंक डलवाना जरुरी हो गया। सुधा फिर भी अपने पति को सूचना न दे सकी। मेहरी सोहन को एक चादर से लपेट कर एक मस्जिद में ले गई और फूंक डलवा लाई, शाम को भी फूंक छोड़ी, पर सोहन ने सिर न उठाया। रात आ गई, सुधा ने मन मे निश्चय किया कि रात कुशल से बीतेगी, तो प्रात:काल पति को तार दूंगी। लेकिन रात कुशल से न बीतने पाई। आधी रात जाते-जाते बच्चा हाथ से निकल गया। सुधा की जीन- सम्पत्ति देखते-देखते उसके हाथों से छिन गई। वही जिसके विवाह का दो दिन पहले विनोद हो रहा था, आज सारे घर को रुला रहा है। जिसकी भोली-भाली सूरत देखकर माता की छाती फूल उठती थी, उसी को देखकर आज माता की छाती फटी जाती है। सारा घर सुधा को समझाता था, पर उसके आंसू न थमते थे, सब्र न होता था। सबसे बड़ा दु:ख इस बात का था का पति को कौन मुंह दिखलाऊंगी! उन्हें खबर तक न दी। रात ही को तार दे दिया गया और दूसरे दिन डॉक्टर सिन्हा नौ बजते-बजते मोटर पर आ पहुंचे। सुधा ने उनके आने की खबर पाई, तो और भी फूट-फूटकर रोने लगी। बालक की जल-क्रिया हुई, डॉक्टर साहब कई बार अन्दर आये, किन्तु सुधा उनके पास न गई। उनके सामने कैसे जाये? कौन मुंह दिखाये? उसने अपनी नादानी से उनके जीवन का रत्न छीनकर दरिया में डाल दिया। अब उनके पास जाते उसकी छाती के टुकड़े-टुकड़े हुए जाते थे। बालक को उसकी गोद में देखकर पति की आंखे चमक उठती थीं। बालक हुमककर पिता की गोद में चला जाता था। माता फिर बुलाती, तो पिता की छाती से चिपट जाता था और लाख चुमराने-दुलारने पर भी बाप को गोद न छोड़ता था। तब मां कहती थी- बैड़ा मतलबी है। आज वह किसे गोद मे लेकर पति के पास जायेगी? उसकी सूनी गोद देखकर कहीं वह चिल्लाकर रो न पड़े। पति के सम्मुख जाने की अपेक्षा उसे मर जाना कहीं आसान जान पड़ता था। वह एक क्षण के लिए भी निर्मला को न छोड़ती थी कि कहीं पति से सामना न हो जाये। निर्मला ने कहा- बहिन, जो होना था वह हो चुका, अब उनसे कब तक भागती फिरोगी। रात ही को चले जायेंगे। अम्मां कहती थीं। सुधा से सजल नेत्रों से ताकते हुए कहा- कौन मुंह लेकर उनके पास जाऊं? मुझे डर लग रहा है कि उनके सामने जाते ही मेरा पैरा न थर्राने लगे और मैं गिर पडूं। निर्मला- चलो, मैं तुम्हारे साथ चलती हूं। तुम्हें संभाले रहूंगी। सुधा- मुझे छोड़कर भाग तो न जाओगी? निर्मला- नहीं-नहीं, भागूंगी नहीं। सुधा- मेरा कलेजा तो अभी से उमड़ा आता है। मैं इतना घोर व्रजपाता होने पर भी बैठी हूं, मुझे यही आश्चर्य हो रहा है। सोहन को वह बहुत प्यार करते थे बहिन। न जाने उनके चित्त की क्या दशा होगी। मैं उन्हें ढाढ़स क्या दूंगी, आप हो रोती रहूंगी। क्या रात ही को चले जायेंगे? निर्मला- हां, अम्मांजी तो कहती थी छुट्टी नहीं ली है। दोनो सहेलियां मर्दाने कमरे की ओर चलीं, लेकिन कमरे के द्वार पर पहुंचकर सुधा ने निर्मला से विदा कर दिया। अकेली कमरे मे दाखिल हुई। डॉक्टर साहब घबरा रहे थे कि न जाने सुधा की क्या दशा हो रही है। भांति-भांति की शंकाएं मन मे आ रही थीं। जाने को तैयार बैठे थे, लेकिन जी न चाहता था। जीवन शून्य-सा मालूम होता था। मन-ही-मन कुढ़ रहे थे, अगर ईश्वर को इतनी जल्दी यह पदार्थ देकर छीन लेना था, तो दिया ही क्यों था? उन्होंने तो कभी सन्तान के लिए ईश्वर से प्रार्थना न की थी। वह आजन्म नि:सन्तान रह सकते थे, पर सन्तान पाकर उससे वंचित हो जाना उन्हं असह्रा जान पड़ता था। क्या सचमुच मनुष्य ईश्वर का खिलौना है? यही मानव जीवन का महत्व है? यह केवल बालकों का घरौंदा है, जिसके बनने का न कोई हेतु है न बिगड़ने का? फिर बालकों को भी तो अपने घरौंदे से अपनी कागेज की नावों से, अपनी लकड़ी के घोड़ों से ममता होती है। अच्छे खिलौने का वह जान के पीछे छिपाकर रखते हैं। अगर ईश्वर बालक ही है तो वह विचित्र बालक है। किन्तु बुद्वि तो ईश्चर का यह रुप स्वीकार नहीं करती। अनन्त सृष्टि का कर्त्ता उद्दण्ड बालक नहीं हो सकता है। हम उसे उन सारे गुणों से विभूषित करते हैं, जो हमारी बुद्वि का पहुंच से बाहर है। खिलाड़ीपन तो साउन महान् गुणों मे नहीं! क्या हंसते-खेलते बालकों का प्राण हर लेना खेल है? क्या ईश्वर ऐसा पैशाचिक खेल खेलता है? सहसा सुधा दबे-पांव कमरे में दाखिल हुई। डासॅक्टर साहब उठ खड़े हुए और उसके समीप आकर बोले-तुम कहां थी, सुधा? मैं तुम्हारी राह देख रहा था। सुधा की आंखों से कमरा तैरता हुआ जान पड़ा। पति की गर्दन मे हाथ डालकर उसने उनकी छाती पर सिर रख दिया और रोने लगी, लेकिन इस अश्रु-प्रवाह में उसे असीम धैर्य और सांत्वना का अनुभव हो रहा था। पति के वक्ष-स्थल से लिपटी हुई वह अपने हृदय में एक विचित्र स्फूर्ति और बल का संचार होते हुए पाती थी, मानो पवन से थरथराता हुआ दीपक अंचल की आड़ में आ गया हो। डॉक्टर साहब ने रमणी के अश्रु-सिंचित कपोलों को दोनो हाथो में लेकर कहा-सुधा, तुम इतना छोटा दिल क्यों करती हो? सोहन अपने जीवन में जो कुछ करने आया था, वह कर चुका था, फिर वह क्यों बैठा रहता? जैसे कोई वृक्ष जल और प्रकाश से बढ़ता है, लेकिन पवन के प्रबल झोकों ही से सुदृढ़ होता है, उसी भांति प्रणय भी दु:ख के आघातों ही से विकास पाता है। खुशी के साथ हंसनेवाले बहुतेरे मिल जाते हैं, रंज में जो साथ रोये, वहर हमारा सच्चा मित्र है। जिन प्रेमियों को साथ रोना नहीं नसीब हुआ, वे मुहब्बत के मजे क्या जानें? सोहन की मृत्यु ने आज हमारे द्वैत को बिलकुल मिटा दिया। आज ही हमने एक दूसरे का सच्चा स्वरुप देखा।;?! सुधा ने सिसकते हुए कहा- मैं नजर के धोखे में थी। हाय! तुम उसका मुंह भी न देखने पाये। न जाने इन सदिनों उसे इतनी समझ कहां से आ गई थी। जब मुझे रोते देखता, तो अपने केष्ट भूलकर मुस्करा देता। तीसरे ही दिन मरे लाडले की आंख बन्द हो गई। कुछ दवा-दर्पन भी न करने पाईं। यह कहते-कहते सुधा के आंसू फिर उमड़ आये। डॉक्टर सिन्हा ने उसे सीने से लगाकर करुणा से कांपती हुई आवाज में कहा-प्रिये, आज तक कोई ऐसा बालक या वृद्व न मरा होगा, जिससे घरवालों की दवा-दर्पन की लालसा पूरी हो गई। सुधा- निर्मला ने मेरी बड़ी मदद की। मैं तो एकाध झपकी ले भी लेती थी, पर उसकी आंखें नहीं झपकी। रात-रात लिये बैठी या टहलती रहती थी। उसके अहसान कभी न भूलंगी। क्या तुम आज ही जा रहे हो? डॉक्टर- हां, छुट्टी लेने का मौका न था। सिविल सर्जन शिकार खेलने गया हुआ था। सुधा- यह सब हमेशा शिकार ही खेला करते हैं? डॉक्टर- राजाओं को और काम ही क्या है? सुधा- मैं तो आज न जाने दूंगी। डॉक्टर- जी तो मेरा भी नहीं चाहता। सुधा- तो मत जाओ, तार दे दो। मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी। निर्मला को भी लेती चलूंगी। सुधा वहां से लौटी, तो उसके हृदय का बोझ हलका हो गया था। पति की प्रेमपूर्णा कोमल वाणी ने उसके सारे शोक और संताप का हरण कर लिया था। प्रेम में असीम विश्वास है, असीम धैर्य है और असीम बल है।

निर्मला: अध्याय 5 / भाग 18

जब हमारे ऊपर कोई बड़ी विपत्ति आ पड़ती है, तो उससे हमें केवल दु:ख ही नहीं होता, हमें दूसरों के ताने भी सहने पड़ते हैं। जनता को हमारे ऊपर टिप्पणियों करने का वह सुअवसर मिल जाता है, जिसके लिए वह हमेशा बेचैन रहती है। मंसाराम क्या मरा, मानों समाज को उन पर आवाजें कसने का बहान मिल गया। भीतर की बातें कौन जाने, प्रत्यक्ष बात यह थी कि यह सब सौतेली मां की करतूत है चारों तरफ यही चर्चा थी, ईश्वर ने करे लड़कों को सौतेली मां से पाला पड़े। जिसे अपना बना-बनाया घर उजाड़ना हो, अपने प्यारे बच्चों की गर्दन पर छुरी फेरनी हो, वह बच्चों के रहते हुए अपना दूसरा ब्याह करे। ऐसा कभी नहीं देखा कि सौत के आने पर घर तबाह न हो गया हो, वही बाप जो बच्चों पर जान देता था सौत के आते ही उन्हीं बच्चों का दुश्मन हो जाता है, उसकी मति ही बदल जाती है। ऐसी देवी ने जैन्म ही नहीं लिया, जिसने सौत के बच्चों का अपना समझा हो। मुश्किल यह थी कि लोग टिप्पणियों पर सन्तुष्ट न होते थे। कुछ ऐसे सज्जन भी थे, जिन्हें अब जियाराम और सियाराम से विशेष स्नेह हो गया था। वे दानों बालकों से बड़ी सहानुभूति प्रकट करते, यहां तक कि दो-सएक महिलाएं तो उसकी माता के शील और स्वभाव को याद करे आंसू बहाने लगती थीं। हाय-हाय! बेचारी क्या जानती थी कि उसके मरते ही लाड़लों की यह दुर्दशा होगी! अब दूध-मक्खन काहे को मिलता होगा! जियाराम कहता- मिलता क्यों नहीं? महिला कहती- मिलता है! अरे बेटा, मिलना भी कई तरह का होता है। पानीवाल दूध टके सेर का मंगाकर रख दिया, पियों चाहे न पियो, कौन पूछता है? नहीं तो बेचारी नौकर से दूध दुहवा कर मंगवाती थी। वह तो चेहरा ही कहे देता है। दूध की सूरत छिपी नहीं रहती, वह सूरत ही नहीं रहीं जिया को अपनी मां के समय के दूध का स्वाद तो याद था सनहीं, जो इस आक्षेप का उत्तर देता और न उस समय की अपनी सूरत ही याद थी, चुप रह जाता। इन शुभाकांक्षाओं का असर भी पड़ना स्वाभाविक था। जियाराम को अपने घरवालों से चिढ़ होती जाती थी। मुंशीजी मकान नीलामी हो जोने के बाद दूसरे घर में उठ आये, तो किराये की फिक्र हुई। निर्मला ने मक्खन बन्द कर दिया। वह आमदनी हा नहीं रही, तो खर्च कैसे रहता। दोनों कहार अलगे कर दिये गये। जियाराम को यह कतर-ब्योंत बुरी लगती थी। जब निर्मला मैके चली गयी, तो मुंशीजी ने दूध भी बन्द कर दिया। नवजात कन्या की चिनता अभी से उनके सिर पर सवार हा गयी थी। सियाराम ने बिगड़कर कहा- दूध बन्द रहने से तो आपका महल बन रहा होगा, भोजन भी बंद कर दीजिए! मुंशीजी- दूध पीने का शौक है, तो जाकर दुहा क्यों नही लाते? पानी के पैसे तो मुझसे न दिये जायेंगे। जियाराम- मैं दूध दुहाने जाऊं, कोई स्कूल का लड़का देख ले तब? मुंशीजी- तब कुछ नहीं। कह देना अपने लिए दूध लिए जाता हूं। दूध लाना कोई चोरी नहीं है। जियाराम- चोरी नहीं है! आप ही को कोई दूध लाते देख ले, तो आपको शर्म न आयेगी। मुंशीजी- बिल्कुल नहीं। मैंने तो इन्हीं हाथों से पानी खींचा है, अनाज की गठरियां लाया हूं। मेरे बाप लखपति नहीं थे। जियाराम-मेरे बाप तो गरीब नहीं, मैं क्यों दूध दुहाने जाऊं? आखिर आपने कहारों को क्यों जवाब दे दिया? मंशीजी- क्या तुम्हें इतना भी नहीं सूझता कि मेरी आमदनी अब पहली सी नहीं रही इतने नादान तो नहीं हो? जियाराम- आखिर आपकी आमदनी क्यों कम हो गयी? मुंशीजी- जब तुम्हें अकल ही नहीं है, तो क्या समझाऊं। यहां जिन्दगी से तंगे आ गया हूं, मुकदमें कौन ले और ले भी तो तैयार कौन करे? वह दिल ही नहीं रहा। अब तो जिंदगी के दिन पूरे कर रहा हूं। सारे अरमान लल्लू के साथ चले गये। जियाराम- अपने ही हाथों न। मुंशीजी ने चीखकर कहा- अरे अहमक! यह ईश्वर की मर्जी थी। अपने हाथों कोई अपना गला काटता है। जियाराम- ईश्वर तो आपका विवाह करने न आया था। मंशीजी अब जब्त न कर सके, लाल-लाल आंखें निकालक बोले-क्या तुम आज लड़ने के लिए कमर बांधकर आये हो? आखिर किस बिरते पर? मेरी रोटियां तो नहीं चलाते? जब इस काबिल हो जाना, मुझे उपदेश देना। तब मैं सुन लूंगा। अभी तुमको मुझे उपदेश देने का अधिकार नहीं है। कुछ दिनों अदब और तमीज़ सीखो। तुम मेरे सलाहकार नहीं हो कि मैं जो काम करुं, उसमें तुमसे सलाह लूं। मेरी पैदा की हुई दौलत है, उसे जैसे चाहूं खर्च कर सकता हूं। तुमको जबान खोलने का भी हक नहीं है। अगर फिर तुमने मुझसे बेअदबी की, तो नतीजा बुरा होगा। जब मंसाराम ऐसा रत्न खोकर मरे प्राण न निकले, तो तुम्हारे बगैर मैं मर न जाऊंगा, समझ गये? यह कड़ी फटकार पाकर भी जियाराम वहां से न टला। नि:शंक भाव से बोला-तो आप क्या चाहते हैं कि हमें चाहे कितनी ही तकलीफ हो मुंह न खोले? मुझसे तो यह न होगा। भाई साहब को अदब और तमीज का जो इनाम मिला, उसकी मुझे भूख नहीं। मुझमें जहर खाकर प्राण देने की हिम्मत नहीं। ऐसे अदब को दूर से दंडवत करता हूं। मुंशीजी- तुम्हें ऐसी बातें करते हुए शर्म नहीं आती? जियाराम- लड़के अपने बुजुर्गों ही की नकल करते हैं। मुंशीजी का क्रोध शान्त हो गया। जियाराम पर उसका कुछ भी असर न होगा, इसका उन्हें यकीन हो गया। उठकर टहलने चले गये। आज उन्हें सूचना मिल गयी के इस घर का शीघ्र ही सर्वनाश होने वाला हैं। उस दिन से पिता और पुत्र मे किसी न किसी बात पर रोज ही एक झपट हो जाती है। मुंशीजी ज्यों-त्यों तरह देते थे, जियाराम और भी शेर होता जाता था। एक दिन जियाराम ने रुक्मिणी से यहां तक कह डाला- बाप हैं, यह समझकर छोड़ देता हूं, नहीं तो मेरे ऐसे-ऐसे साथी हैं कि चाहूं तो भरे बाजार मे पिटवा दूं। रुक्मिणी ने मुंशीजी से कह दिया। मुंशीजी ने प्रकट रुप से तो बेपरवाही ही दिखायी, पर उनके मन में शंका समा गया। शाम को सैर करना छोड़ दिया। यह नयी चिन्ता सवार हो गयी। इसी भय से निर्मला को भी न लाते थे कि शैतान उसके साथ भी यही बर्ताव करेगा। जियाराम एक बार दबी जबान में कह भी चुका था- देखूं, अबकी कैसे इस घर में आती है? मुंशीजी भी खूब समझ गये थे कि मैं इसका कुछ भी नहीं कर सकता। कोई बाहर का आदमी होता, तो उसे पुलिस और कानून के शिंजे में कसते। अपने लड़के को क्या करें? सच कहा है- आदमी हारता है, तो अपने लड़कों ही से। एक दिन डॉक्टर सिन्हा ने जियाराम को बुलाकर समझाना शुरु किया। जियाराम उनका अदब करता था। चुपचाप बैठा सुनता रहा। जब डॉक्टर साहब ने अन्त में पूछा, आखिर तुम चाहते क्या हो? तो वह बोला- साफ-साफ कह दूं? बूरा तो न मानिएगा? सिन्हा- नहीं, जो कुछ तुम्हारे दिल में हो साफ-साफ कह दो। जियाराम- तो सुनिए, जब से भैया मरे हैं, मुझे पिताजी की सूरत देखकर क्रोध आता है। मुझे ऐसा मालूम होता है कि इन्हीं ने भैया की हत्या की है और एक दिन मौका पाकर हम दोनों भाइयों को भी हत्या करेंगे। अगर उनकी यह इच्छा न होती तो ब्याह ही क्यों करते? डॉक्टर साहब ने बड़ी मुश्किल से हंसी रोककर कहा- तुम्हारी हत्या करने के लिए उन्हें ब्याह करने की क्या जरुरत थी, यह बात मेरी समझ में नहीं आयी। बिना विवाह किये भी तो वह हत्या कर सकते थे। जियाराम- कभी नहीं, उस वक्त तो उनका दिल ही कुछ और था, हम लोगों पर जान देते थे अब मुंह तके नहीं देखना चाहते। उनकी यही इच्छा है कि उन दोनों प्राणियों के सिवा घर में और कोई न रहे। अब जसे लड़के होंगे उनक रास्ते से हम लोगों का हटा देना चाहते है। यही उन दोनों आदमियों की दिली मंशा है। हमें तरह-तरह की तकलीफें देकर भगा देना चाहते हैं। इसीलिए आजकल मुकदमे नहीं लेते। हम दोनों भाई आज मर जायें, तो फिर देखिए कैसी बहार होती है। डॉक्टर- अगर तुम्हें भागना ही होता, तो कोई इल्जाम लगाकर घर से निकल न देते? जियाराम- इसके लिए पहले ही से तैयार बैठा हूं। डॉक्टर- सुनूं, क्या तैयारी कही है? जियाराम- जब मौका आयेगा, देख लीजिएगा। यह कहकर जियराम चलता हुआ। डॉक्टर सिन्हा ने बहुत पुकारा, पर उसने फिर कर देखा भी नहीं। कई दिन के बाद डॉक्टर साहब की जियाराम से फिर मुलाकात हो गयी। डॉक्टर साहब सिनेमा के प्रेमी थे और जियाराम की तो जान ही सिनेमा में बसती थी। डॉक्टर साहब ने सिनेमा पर आलोचना करके जियाराम को बातों में लगा लिया और अपने घर लाये। भोजन का समय आ गया था,, दोनों आदमी साथ ही भोजन करने बैठे। जियाराम को वहां भोजन बहुत स्वादिष्ट लगा, बोल- मेरे यहां तो जब से महाराज अलग हुआ खाने का मजा ही जाता रहा। बुआजी पक्का वैष्णवी भोजन बनाती हैं। जबरदस्ती खा लेता हूं, पर खाने की तरफ ताकने को जी नहीं चाहता। डॉक्टर- मेरे यहां तो जब घर में खाना पकता है, तो इसे कहीं स्वादिष्ट होता है। तुम्हारी बुआजी प्याज-लहसुन न छूती होंगी? जियाराम- हां साहब, उबालकर रख देती हैं। लालाली को इसकी परवाह ही नहीं कि कोई खाता है या नहीं। इसीलिए तो महाराज को अलग किया है। अगर रुपये नहीं है, तो गहने कहां से बनते हैं? डॉक्टर- यह बात नहीं है जियाराम, उनकी आमदनी सचमुच बहुत कम हो गयी है। तुम उन्हें बहुत दिक करते हो। जियाराम- (हंसकर) मैं उन्हें दिक करता हूं? मुझससे कसम ले लीजिए, जो कभी उनसे बोलता भी हूं। मुझे बदनाम करने का उन्होंने बीड़ा उठा लिया है। बेसबब, बेवजह पीछे पड़े रहते हैं। यहां तक कि मेरे दोस्तों से भी उन्हें चिढ़ है। आप ही सोचिए, दोस्तों के बगैर कोई जिन्दा रह सकता है? मैं कोई लुच्चा नहीं हू कि लुच्चों की सोहबत रखूं, मगर आप दोस्तों ही के पीछे मुझे रोज सताया करते हैं। कल तो मैंने साफ कह दिया- मेरे दोस्त घर आयेंगे, किसी को अच्छा लगे या बुरा। जनाब, कोई हो, हर वक्त की धौंस हीं सह सकता। डॉक्टर- मुझे तो भाई, उन पर बड़ी दया आती है। यह जमाना उनके आराम करने का था। एक तो बुढ़ापा, उस पर जवान बेटे का शोक, स्वास्थ्य भी अच्छा नहीं। ऐसा आदमी क्या कर सकता है? वह जो कुछ थोड़ा-बहुत करते हैं, वही बहुत है। तुम अभी और कुछ नहीं कर सकते, तो कम-से-कम अपने आचरण से तो उन्हें प्रसन्न रख सकते हो। बुड्ढ़ों को प्रसन्न करना बहुत कठिन काम नहीं। यकीन मानो, तुम्हारा हंसकर बोलना ही उन्हें खुश करने को काफी है। इतना पूछने में तुम्हारा क्या खर्च होता है। बाबूजी, आपकी तबीयत कैसी है? वह तुम्हारी यह उद्दण्डता देखकर मन-ही-मन कुढ़ते रहते हैं। मैं तुमसे सच कहता हूं, कई बार रो चुके हैं। उन्होनें मान लो शादी करने में गलती की। इसे वह भी स्वीकार करते हैं, लेकिन तुम अपने कर्त्तव्य से क्यों मुंह मोड़ते हो? वह तुम्हारे पिता है, तुम्हें उनकी सेवा करनी चाहिए। एक बात भी ऐसी मुंह से न निकालनी चाहिए, जिससे उनका दिल दुखे। उन्हें यह खयाल करने का मौका ही क्यों दे कि सब मेरी कमाई खाने वाले हैं, बात पूछने वाला कोई नहीं। मेरी उम्र तुमसे कहीं ज्यादा है, जियाराम, पर आज तक मैंने अपने पिताजी की किसी बात का जवाब नहीं दिया। वह आज भी मुझे डांटते है, सिर झुकाकर सुन लेता हूं। जानता हूं, वह जो कुछ कहते हैं, मेरे भले ही को कहते हैं। माता-पिता से बढ़कर हमारा हितैषी और कौन हो सकता है? उसके ऋण से कौन मुक्त हो सकता है? जियाराम बैठा रोता रहा। अभी उसके सद्भावों का सम्पूर्णत: लोप न हुआ था, अपनी दुर्जनता उसे साफ नजर आ रही थी। इतनी ग्लानि उसे बहुत दिनों से न आयी थी। रोकर डॉक्टर साहब से कहा- मैं बहुत लज्जित हूं। दूसरों के बहकाने में आ गया। अब आप मेरी जरा भी शिकयत न सुनेंगे। आप पिताजी से मेरे अपराध क्षमा कर दीजिए। मैं सचमुच बड़ा अभागा हूं। उन्हें मैंने बहुत सताया। उनसे कहिए- मेरे अपराध क्षमा कर दें, नहीं मैं मुंह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाऊंगा, डूब मरुंगा। डॉक्टर साहब अपनी उपदेश-कुशलता पर फूले न समाये। जियाराम को गले लगाकर विदा किया। जियाराम घर पहुंचा, तो ग्यारह बज गये थे। मुंशीजी भोजन करे अभी बाहर आये थे। उसे देखते ही बोले- जानते हो कै बजे है? बारह का वक्त है। जियाराम ने बड़ी नम्रता से कहा- डॉक्टर सिन्हा मिल गये। उनके साथ उनके घर तक चला गया। उन्होंने खाने के लिए जिद कि, मजबूरन खाना पड़ा। इसी से देर हो गयी। मुंशीज- डॉक्टर सिन्हा से दुखड़े रोने गये होंगे या और कोई काम था। जियाराम की नम्रता का चौथा भाग उड़ गय, बोला- दुखड़े रोने की मेरी आदत नहीं है। मुंशीजी- जरा भी नहीं, तुम्हारे मुंह मे तो जबान ही नहीं। मुझसे जो लोग तुम्हारी बातें करते हैं, वह गढ़ा करते होंगे? जियाराम- और दिनों की मैं नहीं कहता, लेकिन आज डॉक्टर सिन्हा के यहां मैंने कोई बात ऐसी नहीं की, जो इस वक्त आपके सामने न कर सकूं। मुंशीजी- बड़ी खुशी की बात है। बेहद खुशी हुई। आज से गुरुदीक्षा ले ली है क्या? जियाराम की नम्रता का एक चतुर्थांश और गायब हो गया। सिर उठाकर बोला- आदमी बिना गुरुदीक्षा लिए हुए भी अपनी बुराइयों पर लज्जित हो सकता है। अपाना सुधार करने के लिए गुरुपन्त्र कोई जरुरी चीज नहीं। मुंशीजी- अब तो लुच्चे न जमा होंगे? जियाराम- आप किसी को लुच्चा क्यों कहते हैं, जब तक ऐसा कहने के लिए आपके पास कोई प्रमाण नहीं? मुंशीजी- तुम्हारे दोस्त सब लुच्चे-लफंगे हैं। एक भी भला आदमी नही। मैं तुमसे कई बार कह चुका कि उन्हें यहां मत जमा किया करोख् पर तुमने सुना नहीं। आज में आखिर बार कहे देता हूं कि अगर तुमने उन शोहदों को जमा किया, तो मुझो पुलिस की सहायता लेनी पड़ेगी। जियाराम की नम्रता का एक चतुर्थांश और गायब हो गया। फड़ककार बोला- अच्छी बात है, पुलिस की सहायता लीजिए। देखें क्या करती है? मेरे दोस्तों में आधे से ज्यादा पुलिस के अफसरों ही के बेटे हैं। जब आप ही मेरा सुधार करने पर तुले हुए है, तो मैं व्यर्थ क्यों कष्ट उठाऊं? यह कहता हुआ जियाराम अपने कमरे मे चला गया और एक क्षण के बाद हारमोनिया के मीठे स्वरों की आवाज बाहर आने लगी। सहृदयता का जलया हुआ दीपक निर्दय व्यंग्य के एक झोंके से बुझ गया। अड़ा हुआ घोड़ा चुमकाराने से जोर मारने लगा था, पर हण्टर पड़ते ही फिर अड़ गया और गाड़ी की पीछे ढकेलने लगा।

निर्मला: अध्याय 5 / भाग 19

अबकी सुधा के साथ निर्मला को भी आना पड़ा। वह तो मैके में कुछ दिन और रहना चाहती थी, लेकिन शोकातुर सुधा अकेले कैसे रही! उसको आखिर आना ही पड़ा। रुक्मिणी ने भूंगी से कहा- देखती है, बहू मैके से कैसा निखरकर आयी है! भूंगी ने कहा- दीदी, मां के हाथ की रोटियां लड़कियों को बहुत अच्छी लगती है। रुक्मिणी- ठीक कहती है भूंगी, खिलाना तो बस मां ही जानती है। निर्मला को ऐसा मालूम हुआ कि घर का कोई आदमी उसके आने से खुश नहीं। मुंशीजी ने खुशी तो बहुत दिखाई, पर हृदयगत चिनता को न छिपा सके। बच्ची का नाम सुधा ने आशा रख दिया था। वह आशा की मूर्ति-सी थी भी। देखकर सारी चिन्ता भाग जाती थी। मुंशीजी ने उसे गोद में लेना चाहा, तो रोने लगी, दौड़कर मां से लिपट गयी, मानो पिता को पहचानती ही नहीं। मुंशीजी ने मिठाइयों से उसे परचाना चाहा। घर में कोई नौकर तो था नहीं, जाकर सियाराम से दो आने की मिठाइयां लाने को कहा। जियराम भी बैठा हुआ था। बोल उठा- हम लोगों के लिए तो कभी मिठाइयां नहीं आतीं। मंशीजी ने झुंझलाकर कहा- तुम लोग बच्चे नहीं हो। जियाराम- और क्या बूढ़े हैं? मिठाइयां मंगवाकर रख दीजिए, तो मालूम हो कि बच्चे हैं या बूढ़े। निकालिए चार आना और आशा के बदौलत हमारे नसीब भी जागें। मुंशीजी- मेरे पास इस वक्त पैसे नहीं है। जाओ सिया, जल्द जाना। जियाराम- सिया नहीं जायेगा। किसी का गुलाम नहीं है। आशा अपने बाप की बेटी है, तो वह भी अपने बाप का बेटा है। मुंशीजी- क्या फजूज की बातें करते हो। नन्हीं-सी बच्ची की बराबरी करते तुम्हें शर्म नही आती? जाओ सियाराम, ये पैसे लो। जियाराम- मत जाना सिया! तुम किसी के नौकर नहीं हो। सिया बड़ी दुविधा में पड़ गया। किसका कहना माने? अन्त में उसने जियाराम का कहना मानने का निश्चय किया। बाप ज्यादा-से-ज्यादा घुड़क देंगे, जिया तो मारेगा, फिर वह किसके पास फरियाद लेकर जायेगा। बोला- मैं न जाऊंगा। मुंशीजी ने धमकाकर कहा- अच्छा, तो मेरे पास फिर कोई चीज मांगने मत आना। मुंशीजी खुद बाजार चले गये और एक रुपये की मिठाई लेकर लौटे। दो आने की मिठाई मांगते हुए उन्हें शर्म आयी। हलवाई उन्हें पहचानता था। दिल में क्या कहेगा? मिठाई लिए हुए मुंशीजी अन्दर चले गये। सियाराम ने मिठाई का बड़ा-सा दोना देखा, तो बाप का कहना न मानने का उसे दुख हुआ। अब वह किस मुंह से मिठाई लेने अन्द जायेगा। बड़ी भूल हुई। वह मन-ही-मन जियाराम को चोटों की चोट और मिठाई की मिठास में तुलना करने लगा। सहसा भूंगी ने दो तश्तरियां दोनो के सामने लाकर रख दीं। जियाराम ने बिगड़कर कहा- इसे उठा ले जा! भूंगी- काहे को बिगड़ता हो बाबू क्या मिठाई अच्छी नहीं लगती? जियाराम- मिठाई आशा के लिए आयी है, हमारे लिए नहीं आयी? ले जा, नहीं तो सड़क पर फेंक दूंगा। हम तो पैसे-पैसे के लिए रटते रहते ह। औ यहां रुपये की मिठाई आती है। भूंगी- तुम ले लो सिया बाबू, यह न लेंगे न सहीं। सियाराम ने डरते-डरते हाथ बढ़ाया था कि जियाराम ने डांटकर कहा- मत छूना मिठाई, नहीं तो हाथ तोड़कर रख दूंगा। लालची कहीं का! सियाराम यह धुड़की सुनकर सहम उठा, मिठाई खाने की हिम्मत न पड़ी। निर्मला ने यह कथा सुनी, तो दोनों लड़कों को मनाने चली। मुंशजी ने कड़ी कसम रख दी। निर्मला- आप समझते नहीं है। यह सारा गुस्सा मुझ पर है। मुंशीजी- गुस्ताख हो गया है। इस खयाल से कोई सख्ती नहीं करता कि लोग कहेंगे, बिना मां के बच्चों को सताते हैं, नहीं तो सारी शरारत घड़ी भर में निकाल दूं। निर्मला- इसी बदनामी का तो मुझे डर है। मुंशीजी- अब न डरुंगा, जिसके जी में जो आये कहे। निर्मला- पहले तो ये ऐसे न थे। मुंशीजी- अजी, कहता है कि आपके लड़के मौजूद थे, आपने शादी क्यों की! यह कहते भी इसे संकोच नहीं हाता कि आप लोगों ने मंसाराम को विष दे दिया। लड़का नहीं है, शत्रु है। जियाराम द्वार पर छिपकर खड़ा था। स्त्री-पुरुष मे मिठाई के विषय मे क्या बातें होती हैं, यही सुनने वह आया था। मुंशीजी का अन्तिम वाक्य सुनकर उससे न रहा गया। बोल उठा- शत्रु न होता, तो आप उसके पीछे क्यों पड़ते? आप जो इस वक्त कर हरे हैं, वह मैं बहुत पहले समझे बैठा हूं। भैया न समझ थे, धोखा ख गये। हमारे साथ आपकी दाला न गलेगी। सारा जमाना कह रहा है कि भाई साहब को जहर दिया गया है। मैं कहता हूं तो आपको क्यों गुस्सा आता है? निर्मला तो सन्नाटे में आ गयी। मालूम हुआ, किसी ने उसकी देह पर अंगारे डाल दिये। मंशजी ने डांटकर जियाराम को चुप कराना चाहा, जियाराम नि:शं खड़ा ईंट का जवाब पत्थर से देता रहा। यहां तक कि निर्मला को भी उस पर क्रोध आ गया। यह कल का छोकरा, किसी काम का न काज का, यो खड़ा टर्रा रहा है, जैसे घर भर का पालन-पोषण यही करता हो। त्योंरियां चढ़ाकर बोली- बस, अब बहुत हुआ जियाराम, मालूम हो गया, तुम बड़े लायक हो, बाहर जाकर बैठो। मुंशीजी अब तक तो कुछ दब-दबकर बोलते रहे, निर्मला की शह पाई तो दिल बढ़ गया। दांत पीसकर लपके और इसके पहले कि निर्मला उनके हाथ पकड़ सकें, एक थप्पड़ चला ही दिया। थप्पड़ निर्मला के मुंह पर पड़ा, वही सामने पडी। माथा चकरा गया। मुंशीजी ने सूखे हाथों में इतनी शक्ति है, इसका वह अनुमान न कर सकती थी। सिर पकड़कर बैठ गयी। मुंशीजी का क्रोध और भी भड़क उठा, फिर घूंसा चलाया पर अबकी जियाराम ने उनका हाथ पकड़ लिया और पीछे ढकेलकर बोला- दूर से बातें कीजिए, क्यांे नाहक अपनी बेइज्जती करवाते हैं? अम्मांजी का लिहाज कर रहा हूं, नहीं तो दिखा देता। यह कहता हुआ वह बाहर चला गया। मुंशीजी संज्ञा-शून्य से खड़े रहे। इस वक्त अगर जियाराम पर दैवी वज्र गिर पड़ता, तो शायद उन्हें हार्दिक आनन्द होता। जिस पुत्र का कभी गोद में लेकर निहाल हो जाते थे, उसी के प्रति आज भांति-भांति की दुष्कल्पनाएं मन में आ रही थीं। रुक्मिणी अब तक तो अपनी कोठरी में थी। अब आकर बोली-बेटा आपने बराबर का हो जाये तो उस पर हाथ न छोड़ना चाहिए। मुंशीजी ने ओंठ चबाकर कहा- मैं इसे घर से निकालकर छोडूंगा। भीख मांगे या चोरी करे, मुझसे कोई मतलब नहीं। रुक्मिणी- नाक किसकी कटेगी? मुंशीजी- इसकी चिन्ता नहीं। निर्मला- मैं जानती कि मेरे आने से यह तुफान खड़ा हो जायेगा, तो भूलकर भी न आती। अब भी भला है, मुझे भेज दीजिए। इस घर में मुझसे न रहा जायेगा। रुक्मिणी- तुम्हारा बहुत लिहाज करता है बहू, नहीं तो आज अनर्थ ही हो जाता। निर्मला- अब और क्या अनर्थ होगा दीदीजी? मैं तो फूंक-फूंककर पांव रखती हूं, फिर भी अपयश लग ही जाता है। अभी घर में पांव रखते देर नहीं हुई और यह हाल हो गेया। ईश्वर ही कुशल करे। रात को भोजन करने कोई न उठा, अकेले मुंशीजी ने खाया। निर्मला को आज नयी चिन्ता हो गयी- जीवन कैसे पार लगेगा? अपना ही पेट होता तो विशेष चिन्ता न थी। अब तो एक नयी विपत्ति गले पड़ गयी थी। वह सोच रही थी- मेरी बच्ची के भाग्य में क्या लिखा है राम?

निर्मला: अध्याय 5 / भाग 20

चिन्ता में नींद कब आती है? निर्मला चारपाई पर करवटें बदल रही थी। कितना चाहती थी कि नींद आ जाये, पर नींद ने न आने की कसम सी खा ली थी। चिराग बुझा दिया था, खिड़की के दरवाजे खोल दिये थे, टिक-टिक करने वाली घड़ी भी दूसरे कमरे में रख आयीय थी, पर नींद का नाम था। जितनी बातें सोचनी थीं, सब सोच चुकी, चिन्ताओं का भी अन्त हो गया, पर पलकें न झपकीं। तब उसने फिर लैम्प जलाया और एक पुस्तक पढ़ने लगी। दो-चार ही पृष्ठ पढ़े होंगे कि झपकी आ गयी। किताब खुली रह गयी। सहसा जियाराम ने कमरे में कदम रखा। उसके पांव थर-थर कांप रहे थे। उसने कमरे मे ऊपर-नीचे देखा। निर्मला सोई हुई थी, उसके सिरहाने ताक पर, एक छोटा-सा पीतल का सन्दूकचा रक्खा हुआ था। जियाराम दबे पांव गया, धीरे से सन्दूकचा उतारा और बड़ी तेजी से कमरे के बाहर निकला। उसी वक्त निर्मला की आंखें खुल गयीं। चौंककर उठ खड़ी हुई। द्वार पर आकर देखा। कलेजा धक् से हो गया। क्या यह जियाराम है? मेरे केमरे मे क्या करने आया था। कहीं मुझे धोखा तो नहीं हुआ? शायद दीदीजी के कमरे से आया हो। यहां उसका काम ही क्या था? शायद मुझसे कुछ कहने आया हो, लेकिन इस वक्त क्या कहने आया होगा? इसकी नीयत क्या है? उसका दिल कांप उठा। मुंशीजी ऊपर छत पर सो रहे थे। मुंडेर न होने के कारण निर्मला ऊपर न सो सकती थी। उसने सोचा चलकर उन्हें जगाऊं, पर जाने की हिम्मत न पड़ी। शक्की आदमी है, न जाने क्या समझ बैठें और क्या करने पर तैयार हो जायें? आकर फिर पुस्तक पढ़ने लगी। सबेरे पूछने पर आप ही मालूम हो जायेगा। कौन जाने मुझे धोखा ही हुआ हो। नींद मे कभी-कभी धोखा हो जाता है, लेकिन सबेरे पूछने का निश्चय कर भी उसे फिर नींद नहीं आयी। सबेरे वह जलपान लेकर स्वयं जियाराम के पास गयी, तो वह उसे देखकर चौंक पड़ा। रोज तो भूंगी आती थी आज यह क्यों आ रही है? निर्मला की ओर ताकने की उसकी हिम्मत न पड़ी। निर्मला ने उसकी ओर विश्वासपूर्ण नेत्रों से देखकर पूछा- रात को तुम मेरे कमरे मे गये थे? जियाराम ने विस्मय दिखाकर कहा- मैं? भला मैं रात को क्या करने जाता? क्या कोई गया था? निर्मला ने इस भाव से कहा, मानो उसे उसकी बात का पूरी विश्वास हो गया- हां, मुझे ऐसा मालूम हुआ कि कोई मेरे कमरे से निकला। मैंने उसका मुंह तो न देखा, पर उसकी पीठ देखकर अनुमान किया कि शयद तुम किसी काम से आये हो। इसका पता कैसे चले कौन था? कोई था जरुर इसमें कोई सन्देह नहीं। जियाराम अपने को निरपराध सिद्व करने की चेष्टा कर कहने लगा- मै। तो रात को थियेटर देखने चला गया था। वहां से लौटा तो एक मित्र के घर लेट रहा। थोड़ी देर हुई लौटा हूं। मेरे साथ और भी कई मित्र थे। जिससे जी चाहे, पूछ लें। हां, भाई मैं बहुत डरता हूं। ऐसा न हो, कोई चीज गायब हो गयी, तो मेरा नामे लगे। चोर को तो कोई पकड़ नहीं सकता, मेरे मत्थे जायेगी। बाबूजी को आप जानती हैं। मुझो मारने दौडेंगे। निर्मला- तुम्हारा नाम क्यों लगेगा? अगर तुम्हीं होते तो भी तुम्हें कोई चोरी नहीं लगा सकता। चोरी दूसरे की चीज की जाती है, अपनी चीज की चोरी कोई नहीं करता। अभी तक निर्मला की निगाह अपने सन्दूकचे पर न पड़ी थी। भोजन बनाने लगी। जब वकील साहब कचहरी चले गये, तो वह सुधा से मिलने चली। इधर कई दिनों से मुलाकात न हुई थी, फिर रातवाली घटना पर विचार परिवर्तन भी करना था। भूंगी से कहा- कमरे मे से गहनों का बक्स उठा ला। भूंगी ने लौटकर कहा- वहां तो कहीं सन्दूक नहीं हैं। ककहां रखा था? निर्मला ने चिढ़कर कहा- एक बार में तो तेरा काम ही कभी नहीं होता। वहां छोड़कर और जायेगा कहां। आलमारी में देखा था? भूंगी- नहीं बहूजी, आलमारी में तो नहीं देखा, झूठ क्यों बोलूं? निर्मला मुस्करा पड़ी। बोली- जा देख, जल्दी आ। एक क्षण में भूंगी फिर खाली हाथ लौट आयी- आलमारी में भी तो नहीं है। अब जहां बताओ वहां देखूं। निर्मला झुंझलाकर यह कहती हुई उठ खड़ी हुई- तुझे ईश्वर ने आंखें ही न जाने किसलिए दी! देख, उसी कमरे में से लाती हूं कि नहीं। भूंगी भी पीछे-पीछे कमरे में गयी। निर्मला ने ताक पर निगाह डाली, अलमारी खोलकर देखी। चारपाई के नीचे झांककार देखा, फिर कपड़ों का बडा संदूक खोलकर देखा। बक्स का कहीं पता नहीं। आश्चर्य हुआ, आखिर बक्सा गया कहां? सहसा रातवाली घटना बिजली की भांति उसकी आंखों के सामने चमक गयी। कलेजा उछल पड़ा। अब तक निश्चिन्त होकर खोज रही थी। अब ताप-सा चढ़ आया। बड़ी उतावली से चारों ओर खोजने लगी। कहीं पता नहीं। जहां खोजना चाहिए था, वहां भी खोजा और जहां नहीं खोजना चाहिए था, वहां भी खोजा। इतना बड़ा सन्दूकचा बिछावन के नीचे कैसे छिप जाता? पर बिछावन भी झाड़कर देखा। क्षण-क्षण मुख की कान्ति मलिन होती जाती थी। प्राण नहीं मे समाते जाते थे। अनत में निराशा होकर उसने छाती पर एक घूंसा मारा और रोने लगी। गहने ही स्त्री की सम्पत्ति होते हैं। पति की और किसी सम्पत्ति पर उसका अधिकार नहीं होता। इन्हीं का उसे बल और गौरव होता है। निर्मला के पास पांच-छ: हजार के गहने थे। जब उन्हें पहनकर वह निकलती थी, तो उतनी देर के लिए उल्लास से उसका हृदय खिला रहता था। एक-एक गहना मानो विपत्ति और बाधा से बचाने के लिए एक-एक रक्षास्त्र था। अभी रात ही उसने सोचा था, जियाराम की लौंडी बनकर वह न रहेगी। ईश्वर न करे कि वह किसी के सामने हाथ फैलाये। इसी खेवे से वह अपनी नाव को भी पार लगा देगी और अपनी बच्ची को भी किसी-न-किसी घाट पहुंचा देगी। उसे किस बात की चिन्त है! उन्हें तो कोई उससे न छीन लेगा। आज ये मेरे सिंगार हैं, कल को मेरे आधार हो जायेंगे। इस विचार से उसके हृदय को कितनी सान्तवना मिली थी! वह सम्पत्ति आज उसके हाथ से निकल गयी। अब वह निराधार थी। संसार उसे कोई अवलम्ब कोई सहारा न था। उसकी आशाओं का आधार जड़ से कट गया, वह फूट-फूटकर रोने लगी। ईश्चर! तुमसे इतना भी न देखा गया? मुझ दुखिया को तुमने यों ही अपंग बना दिया थ, अब आंखे भी फोड़ दीं। अब वह किसके सामने हाथ फैलायेगी, किसके द्वार पर भीख मांगेगी। पसीने से उसकी देह भीग गयी, रोते-रोते आंखे सूज गयीं। निर्मला सिर नीचा किये रा रही थी। रुक्मिणी उसे धीरज दिला रही थीं, लेकिन उसके आंसू न रुकते थे, शोके की ज्वाल केम ने होती थी। तीन बजे जियाराम स्कूल से लौटा। निर्मला उसने आने की खबर पाकर विक्षिप्त की भांति उठी और उसके कमरे के द्वार पर आकर बोली-भैया, दिल्लगी की हो तो दे दो। दुखिया को सताकर क्या पाओगे? जियाराम एक क्षण के लिए कातर हो उठा। चोर-कला में उसका यह पहला ही प्रयास था। यह कठारेता, जिससे हिंसा में मनोरंजन होता है अभी तक उसे प्राप्त न हुई थी। यदि उसके पास सन्दूकचा होता और फिर इतना मौका मिलता कि उसे ताक पर रख आवे, तो कदाचित् वह उसे मौके को न छोड़ता, लेकिन सन्दूक उसके हाथ से निकल चुका था। यारों ने उसे सराफें में पहुंचा दिया था और औने-पौने बेच भी डाला थ। चोरों की झूठ के सिवा और कौन रक्षा कर सकता है। बोला-भला अम्मांजी, मैं आपसे ऐसी दिल्लगी करुंगा? आप अभी तक मुझ पर शक करती जा रही हैं। मैं कह चुका कि मैं रात को घर पर न था, लेकिन आपको यकीन ही नहीं आता। बड़े दु:ख की बात है कि मुझे आप इतना नीच समझती हैं। निर्मला ने आंसू पोंछते हुए कहा- मैं तुम्हारे पर शक नहीं करती भैया, तुम्हें चोरी नहीं लगाती। मैंने समझा, शायद दिल्लगी की हो। जियाराम पर वह चोरी का संदेह कैसे कर सकती थी? दुनिया यही तो कहेगी कि लड़के की मां मर गई है, तो उस पर चोरी का इलजाम लगाया जा रहा है। मेरे मुंह मे ही तो कालिख लगेगी! जियाराम ने आश्वासन देते हुए कहा- चलिए, मैं देखूं, आखिर ले कौन गया? चोर आया किस रास्ते से? भूंगी- भैया, तुम चोरों के आने को कहते हो। चूहे के बिल से तो निकल ही आते हैं, यहां तो चारो ओर ही खिड़कियां हैं। जियाराम- खूब अच्छी तरह तलाश कर लिया है? निर्मला- सारा घर तो छान मारा, अब कहां खोजने को कहते हो? जियाराम- आप लोग सो भी तो जाती हैं मुर्दों से बाजी लगाकर। चार बजे मुंशीजी घर आये, तो निर्मला की दशा देखकर पूछा- कैसी तबीयत है? कहीं दर्द तो नहीं है? कह कहकर उन्होंने आशा को गोद में उठा लिया। निर्मला कोई जवाब न दे सकी, फिर रोने लगी। भूंगी ने कहा- ऐसा कभी नहीं हुआ था। मेरी सारी उर्म इसी घर मं कट गयी। आज तक एक पैसे की चोरी नहीं हुई। दुनिया यही कहेगी कि भूंगी का कोम है, अब तो भगेवान ही पत-पानी रखें। मुंशीजी अचकन के बटन खोल रहे थे, फिर बटन बन्द करते हुए बोले- क्या हुआ? कोई चीज चोरी हो गयी? भूंगी- बहूजी के सारे गहने उठ गये। मुंशीजी- रखे कहां थे? निर्मला ने सिसकियां लेते हुए रात की सारी घटना बयाना कर दी, पर जियाराम की सूरत के आदमी के अपने कमरे से निकलने की बात न कही। मुंशीजी ने ठंडी सांस भरकर कहा- ईश्वर भी बड़ा अन्यायी है। जो मरे उन्हीं को मारता है। मालूम होता है, अदिन आ गये हैं। मगर चोर आया तो किधर से? कहीं सेंध नहीं पड़ी और किसी तरफ से आने का रास्ता नहीं। मैंने तो कोई ऐसा पाप नहीं किया, जिसकी मुझे यह सजा मिल रही है। बार-बार कहता रहा, गहने का सन्दूकचा ताक पर मत रखो, मगेर कौन सुनता है। निर्मला- मैं क्या जानती थी कि यह गजब टूट पड़ेगा! मुंशीजी- इतना तो जानती थी कि सब दिन बराबर नहीं जाते। आज बनवाने जाऊं, तो इस हजार से कम न लगेंगे। आजकल अपनी जो दशा है, वह तुमसे छिपी नहीं, खर्च भर का मुश्किल से मिलता है, गहने कहां से बनेंगे। जाता हूं, पुलिस में इत्तिला कर आता हूं, पर मिलने की उम्मीद न समझो। निर्मला ने आपत्ति के भाव से कहा- जब जानते हैं कि पुलिस में इत्तिला करने से कुद न होगा, तो क्यों जा रहे हैं? मुंशीजी- दिल नहीं मानता और क्या? इतना बड़ा नुकसान उठाकर चुपचाप तो नहीं बैठ जाता। निर्मला- मिलनेवाले होते, तो जाते ही क्यों? तकदीर में न थे, तो कैसे रहते? मुंशीजी- तकदीर मे होंगे, तो मिल जायेंगे, नहीं तो गये तो हैं ही। मुंशीजी कमरे से निकले। निर्मला ने उनका हाथ पकड़कर कहा- मैं कहती हूं, मत जाओ, कहीं ऐसा न हो, लेने के देने पड़ जायें। मुंशीजी ने हाथ छुड़ाकर कहा- तुम भी बच्चों की-सी जिद्द कर रही हो। दस हजार का नुकसान ऐसा नहीं है, जिसे मैं यों ही उठा लूं। मैं रो नहीं रहा हूं, पर मेरे हृदय पर जो बीत रही है, वह मैं ही जानता हूं। यह चोट मेरे कलेजे पर लगी है। मुंशीजी और कुछ न कह सके। गला फंस गया। वह तेजी से कमरे से निकल आये और थाने पर जा पहुंचे। थानेदार उनका बहुत लिहाज करता था। उसे एक बार रिश्वत के मुकदमे से बरी करा चुके थे। उनके साथ ही तफ्तीश करने आ पहुंचा। नाम था अलायार खां। शाम हो गयी थी। थानेदार ने मकान के अगवाड़े-पिछवाड़े घूम-घूमकर देखा। अन्दर जाकर निर्मला के कमरे को गौर से देखा। ऊपर की मुंडेर की जांच की। मुहल्ले के दो-चार आदमियों से चुपके-चुपके कुछ बातें की और तब मुंशीजी से बोले- जनाब, खुदा की कसम, यह किसी बाहर के आदमी का काम नहीं। खुदा की कसम, अगर कोई बाहर की आमदी निकले, तो आज से थानेदारी करना छोड़ दूं। आपके घर में कोई मुलाजिम ऐसा तो नहीं है, जिस पर आपको शुबहा हो। मुंशीजी- घर मे तो आजकल सिर्फ एक महरी है। थानेदार-अजी, वह पगली है। यह किसी बड़े शातिर का काम है, खुदा की कसम। मुंशीजी- तो घर में और कौन है? मेरे दोने लड़के हैं, स्त्री है और बहन है। इनमें से किस पर शक करुं? थानेदार- खुदा की कसम, घर ही के किसी आदमी का काम है, चाहे, वह कोई हो, इन्शाअल्लाह, दो-चार दिन में मैं आपको इसकी खबर दूंगा। यह तो नहीं कह सकता कि माल भी सब मिल जायेगा, पर खुदा की कसम, चोर जरुर पकड़ दिखाऊंगा। थानेदार चला गया, तो मुंशीजी ने आकर निर्मला से उसकी बातें कहीं। निर्मला सहम उठी- आप थानेदार से कह दीजिए, तफतीश न करें, आपके पैरों पड़ती हूं। मुंशीजी- आखिर क्यों? निर्मला- अब क्यों बताऊं? वह कह रहा है कि घर ही के किसी का काम है। मुंशीजी- उसे बकने दो। जियाराम अपने कमरे में बैठा हुआ भगवान् को याद कर रहा था। उसक मुंह पर हवाइयां उड़ रही थीं। सुन चुका थाकि पुलिसवाले चेहरे से भांप जाते हैं। बाहर निकलने की हिम्मत न पड़ती थी। दोनों आदमियों में क्या बातें हो रही हैं, यह जानने के लिए छटपटा रहा था। ज्योंही थानेदार चला गया और भूंगी किसी काम से बाहर निकली, जियाराम ने पूछा-थानेदार क्या कर रहा था भूंगी? भूंगी ने पास आकर कहा- दाढ़ीजार कहता था, घर ही से किसी आदमी का काम है, बाहर को कोई नहीं है। जियाराम- बाबूजी ने कुछ नहीं कहा? भूंगी- कुछ तो नहीं कहा, खड़े ‘हूं-हूं’ करते रहे। घर मे एक भूंगी ही गैर है न! और तो सब अपने ही हैं। जियाराम- मैं भी तो गैर हूं, तू ही क्यों? भूंगी- तुम गैर काहे हो भैया? जियाराम- बाबूजी ने थानेदार से कहा नहीं, घर में किसी पर उनका शुबहा नहीं है। भूंगी- कुछ तो कहते नहीं सुना। बेचारे थानेदार ने भले ही कहा- भूंगी तो पगली है, वह क्या चोरी करेगी। बाबूजी तो मुझे फंसाये ही देते थे। जियाराम- तब तो तू भी निकल गयी। अकेला मैं ही रह गया। तू ही बता, तूने मुझे उस दिन घर में देखा था? भूंगी- नहीं भैया, तुम तो ठेठर देखने गये थे। जियाराम- गवाही देगी न? भूंगी- यह क्या कहते हो भैया? बहूजी तफ्तीश बन्द कर देंगी। जियराम- सच? भूंगी- हां भैया, बार-बार कहती है कि तफ्तीश न कराओ। गहने गये, जाने दो, पर बाबूजी मानते ही नहीं। पांच-छ: दिन तक जियाराम ने पेट भर भोजन नहीं किया। कभी दो-चार कौर खा लेता, कभी कह देता, भूख नहीं है। उसके चेहरे का रंग उड़ा रहता था। रातें जागतें कटतीं, प्रतिक्षण थानेदार की शंका बनी रहती थी। यदि वह जानता कि मामला इतना तूल खींचेंगा, तो कभी ऐसा काम न करता। उसने तो समझा था- किसी चोर पर शुबहा होगा। मेरी तरफ किसी का ध्यान भी न जायेगा, पर अब भण्डा फूटता हुआ मालूम होता था। अभागा थानेदार जिस ढंगे से छान-बीन कर रहा था, उससे जियाराम को बड़ी शंका हो रही थी। सातवें दिन संध्या समय घर लौटा तो बहुत चिन्तित था। आज तक उसे बचने की कुछ-न-कुछ आशा थी। माल अभी तक कहीं बरामद न हुआ था, पर आज उसे माल के बरामद होने की खबर मिल गयी थी। इसी दम थानेदार कांस्टेबिल के लिए आता होगा। बचने को कोई उपाय नहीं। थानेदार को रिश्वत देने से सम्भव है मुकदमे को दबा दे, रुपये हाथ में थे, पर क्या बात छिपी रहेगी? अभी माल बरामद नही हुआ, फिर भी सारे शहर में अफवाह थी कि बेटे ने ही माल उड़ाया है। माल मिल जाने पर तो गली-गली बात फैल जायेगी। फिर वह किसी को मुंह न दिखा सकेगा। मुंशीजी कचहरी से लौटे तो बहुत घबराये हुए थे। सिर थामकर चारपाई पर बैठ गये। निर्मला ने कहा- कपड़े क्यों नहीं उतारते? आज तो और दिनों से देर हो गयी है। मुंशीजी- क्या कपडे ऊतारुं? तुमने कुछ सुना? निर्मला- क्य बात है? मैंने तो कुछ नहीं सुना? मुंशीजी- माल बरामद हो गया। अब जिया का बचना मुश्किल है। निर्मला को आश्चर्य नहीं हुआ। उसके चेहरे से ऐसा जान पड़ा, मानो उसे यह बात मालूम थी। बोली- मैं तो पहले ही कर रही थी कि थाने में इत्तला मत कीजिए। मुंशीजी- तुम्हें जिया पर शका था? निर्मला- शक क्यों नहीं था, मैंने उन्हें अपने कमरे से निकलते देखा था। मुंशीजी- फिर तुमने मुझसे क्यों न कह दिया? निर्मला- यह बात मेरे कहने की न थी। आपके दिल में जरुर खयाल आता कि यह ईर्ष्यावश आक्षेप लगा रही है। कहिए, यह खयाल होता या नहीं? झूठ न बोलिएगा। मुंशीजी- सम्भव है, मैं इन्कार नहीं कर सकता। फिर भी उसक दशा में तुम्हें मुझसे कह देना चाहिए था। रिपोर्ट की नौबत न आती। तुमने अपनी नेकनामी की तो- फिक्र की, पर यह न सोचा कि परिणाम क्या होगा? मैं अभी थाने में चला आता हूं। अलायार खां आता ही होगा! निर्मला ने हताश होकर पूछा- फिर अब? मुंशीजी ने आकाश की ओर ताकते हुए कहा- फिर जैसी भगवान् की इच्छा। हजार-दो हजार रुपये रिश्वत देने के लिए होते तो शायद मामेला दब जाता, पर मेरी हालत तो तुम जानती हो। तकदीर खोटी है और कुछ नहीं। पाप तो मैंने किया है, दण्ड कौन भोगेगा? एक लड़का था, उसकी वह दशा हुई, दूसरे की यह दशा हो रही है। नालायक था, गुस्ताख था, गुस्ताख था, कामचोर था, पर था ता अपना ही लड़का, कभी-न-कभी चेत ही जाता। यह चोट अब न सही जायेगी। निर्मला- अगर कुछ दे-दिलाकर जान बच सके, तो मैं रुपये का प्रबन्ध कर दूं। मुंशीजी- कर सकती हो? कितने रुपये दे सकती हो? निर्मला- कितना दरकार होगा? मुंशीजी- एक हजार से कम तो शायद बातचीत न हो सके। मैंने एक मुकदमे में उससे एक हजार लिए थे। वह कसर आज निकालेगा। निर्मला- हो जायेगा। अभी थाने जाइए। मुंशीजी को थाने में बड़ी देर लगी। एकान्त में बातचीत करने का बहुत देर मे मौका मिला। अलायार खां पुराना घाघ थ। बड़ी मुश्किल से अण्टी पर चढ़ा। पांच सौ रुवये लेकर भी अहसान का बोझा सिर पर लाद ही दिया। काम हो गया। लौटकर निर्मला से बोला- लो भाई, बाजी मार ली, रुपये तुमने दिये, पर काम मेरी जबान ही ने किया। बड़ी-बड़ी मुश्किलों से राजी हो गया। यह भी याद रहेगी। जियाराम भोजन कर चुका है? निर्मला- कहां, वह तो अभी घूमकर लौटे ही नहीं। मुंशीजी- बारह तो बज रहे होंगें। निर्मला- कई दफे जा-जाकर देख आयी। कमरे में अंधेरा पड़ा हुआ है। मुंशीजी- और सियाराम? निर्मला- वह तो खा-पीकर सोये हैं। मुंशीजी- उससे पूछा नहीं, जिया कहां गया? निर्मला- वह तो कहते हैं, मुझसे कुछ कहकर नहीं गये। मुंशीजी को कुछ शंका हुई। सियाराम को जगाकर पूछा- तुमसे जियाराम ने कुछ कहा नहीं, कब तक लौटेगा? गया कहां है? सियाराम ने सिर खुजलाते और आंखों मलते हुए कहा- मुझसे कुछ नहीं कहा। मुंशीजी- कपड़े सब पहनकर गया है? सियाराम- जी नहीं, कुर्ता और धोती। मुंशीजी- जाते वक्त खुश था? सियाराम- खुश तो नहीं मालूम होते थे। कई बार अन्दर आने का इरादा किया, पर देहरी से ही लौट गये। कई मिनट तक सायबान में खड़े रहे। चलने लगे, तो आंखें पोंछ रहे थे। इधर कई दिन से अक्सा रोया करते थे। मुंशीजी ने ऐसी ठंडी सांस ली, मानो जीवन में अब कुछ नहीं रहा और निर्मला से बोले- तुमने किया तो अपनी समझ में भले ही के लिए, पर कोई शत्रु भी मुझ पर इससे कठारे आघात न कर सकता था। जियाराम की माता होती, तो क्या वह यह संकोच करती? कदापि नहीं। निर्मला बोली- जरा डॉक्टर साहब के यहां क्यों नहीं चले जाते? शायद वहां बैठे हों। कई लड़के रोज आते है, उनसे पूछिए, शायद कुछ पता लग जाये। फूंक-फूंककर चलने पर भी अपयश लग ही गया। मुंशीजी ने मानो खुली हुई खिड़की से कहा- हां, जाता हूं और क्या करुंगा। मुंशीज बाहर आये तो देखा, डॉक्टर सिन्हा खड़े हैं। चौंककर पूछा- क्या आप देर से खड़े हैं? डॉक्टर- जी नहीं, अभी आया हूं। आप इस वक्त कहां जा रहे हैं? साढ़े बारह हो गये हैं। मुंशीजी- आप ही की तरफ आ रहा था। जियाराम अभी तक घूमकर नहीं आया। आपकी तरफ तो नहीं गया था? डॉक्टर सिन्हा ने मुंशीजी के दोनों हाथ पकड़ लिए और इतना कह पाये थे, ‘भाई साहब, अब धैर्य से काम..’ कि मुंशीजी गोली खाये हुए मनुष्य की भांति जमीन पर गिर पड़े।