Premchand

प्रेमचंद

(३१ जुलाई १८८० – ८ अक्टूबर १९३६)

1906 से 1936 के बीच लिखा गया प्रेमचंद का साहित्य इन तीस वर्षों का सामाजिक सांस्कृतिक दस्तावेज है। इसमें उस दौर के समाजसुधार आन्दोलनों, स्वाधीनता संग्राम तथा प्रगतिवादी आन्दोलनों के सामाजिक प्रभावों का स्पष्ट चित्रण है। उनमें दहेज, अनमेल विवाह, पराधीनता, लगान, छूआछूत, जाति भेद, विधवा विवाह, आधुनिकता, स्त्री-पुरुष समानता, आदि उस दौर की सभी प्रमुख समस्याओं का चित्रण मिलता है। आदर्शोन्मुख यथार्थवाद उनके साहित्य की मुख्य विशेषता है। हिन्दी कहानी तथा उपन्यास के क्षेत्र में 1918 से 1936 तक के कालखण्ड को ‘प्रेमचंद युग’ या ‘प्रेमचन्द युग’ कहा जाता है। (साभार: विकिपीडिया)

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रंगभूमि: अध्याय 10

बालकों पर प्रेम की भाँति द्वेष का असर भी अधिक होता है। जबसे मिठुआ और घीसू को मालूम हुआ था कि ताहिर अली हमारा मैदान जबरदस्ती ले रहे हैं, तब से दोनों उन्हें अपना दुश्मन समझते थे। चतारी के राजा साहब और सूरदास में जो बातें हुई थीं, उनकी उन दोनों को खबर न थी। सूरदास को स्वयं शंका थी कि यद्यपि राजा साहब ने आश्वासन दिया, पर शीघ्र ही यह समस्या फिर उपस्थित होगी। जॉन सेवक साहब इतनी आसानी से गला छोड़नेवाले नहीं हैं। बजरंगी, नायकराम आदि भी इसी प्रकार की बातें करते रहते थे। मिठुआ और घीसू इन बातों को बड़े प्रेम से सुनते, और उनकी द्वेषाग्नि और भी प्रचंड होती थी। घीसू जब भैंसे लेकर मैदान जाता तो जोर-जोर से पुकारता—देखें, कौन हमारी जमीन लेता है, उठाकर ऐसा पटकूँ कि वह भी याद करे। दोनों टाँगें तोड़ दूँगा। कुछ खेल समझ लिया है! वह जरा था भी कड़े दम, कुश्ती लड़ता था। बजरंगी खुद भी जवानी में अच्छा पहलवान था। घीसू को वह शहर के पहलवानों की नाक बना देना चाहता था, जिससे पंजाबी पहलवानों को भी ताल ठोकने की हिम्मत न पड़े, दूर-दूर जाकर दंगल मारे, लोग कहें—’यह बजरंगी का बेटा है।’ अभी से घीसू को अखाड़े भेजता था। घीसू अपने घमंड में समझता था कि मुझे जो पेच मालूम हैं, उनसे जिसे चाहूँ, गिरा दूँ। मिठुआ कुश्ती तो न लड़ता था; पर कभी-कभी अखाड़े की तरफ जा बैठता था। उसे अपनी पहलवानी की डींग मारने के लिए इतना काफी थी। दोनों जब ताहिर अली को कहीं देखते, तो सुना-सुनाकर कहते—दुश्मन जाता है, उसका मुँह काला। मिठुआ कहता—जै शंकर, काँटा लगे न कंकर, दुश्मन को तंग कर। घीसू कहता—बम भोला, बैरी के पेट में गोला, उससे कुछ न जाए बोला।

ताहिर अली इन छोकरों की छिछोरी बातें सुनते और अनसुनी कर जाते। लड़कों के मुँह क्या लगें। सोचते—कहीं ये सब गालियाँ दे बैठें, तो इनका क्या बना लूँगा। वे दोनों समझते, डर के मारे नहीं बोलते, और शेर हो जाते। घीसू मिठुआ पर उन पेचों का अभ्यास करता, जिनसे वह ताहिर अली को पटकेगा। पहले यह हाथ पकड़ा; फिर अपनी तरफ खींचा; तब वह हाथ गर्दन में डाल दिया और अडंग़ी लगाई, बस चित। मिठुआ फौरन गिर पड़ता था, और उसे इस पेच के अद्भुत प्रभाव का विश्वास हो जाता था।

एक दिन दोनों ने सलाह की—चलकर मियाँजी के लड़कों की खबर लेनी चाहिए। मैदान में जाकर जाहिर और जाबिर को खेलने के लिए बुलाया, और खूब चपतें लगाईं। जाबिर छोटा था, उसे मिठुआ ने दाबा। जाहिर और घीसू का जोड़ था; लेकिन घीसू अखाड़ा देखे हुए था, कुछ दाँव-पेच जानता ही था, आन-की-आन में जाहिर को दबा बैठा। मिठुआ ने जाबिर के चुटकियाँ काटनी शुरू कीं। बेचारा रोने लगा। घीसू ने जाहिर को कई घिस्से दिए, वह भी चौंधिया गया; जब देखा कि यह तो मार ही डालेगा, तो उसने फरियाद मचाई। इन दोनों का रोना सुनकर नन्हा-सा साबिर एक पतली-सी टहनी लिए, अकड़ता हुआ पीड़ितों की सहायता करने आया, और घीसू को टहनी से मारने लगा। जब इस शस्त्रा-प्रहार का घीसू पर कुछ असर न हुआ, तो उसने इससे ज्यादा चोट करनेवाला बाण निकाला—घीसू पर थूकने लगा। घीसू ने जाहिर को छोड़ दिया, और साबिर के दो-तीन तमाचे लगाए। जाहिर मौका पाकर फिर उठा, और अबकी ज्यादा सावधान होकर घीसू से चिमट गया। दोनों में मल्ल-युध्द होने लगा। आखिर घीसू ने सावधान उसे फिर पटका और मुश्कें चढ़ा दीं। जाहिर को अब रोने के सिवा कोई उपाय न सूझा, जो निर्बलों का अंतिम आधार है। तीनों की आर्तधवनि माहिर अली के कान में पहुँची। वह इस समय स्कूल जाने को तैयार थे। तुरंत किताबें पटक दीं और मैदान की तरफ दौड़े। देखा, तो जाबिर और जाहिर नीचे पड़े हाय-हाय कर रहे हैं और साबिर अलग बिलबिला रहा है! कुलीनता का रक्त खौल उठा; मैं सैयद पुलिस के अफसर का बेटा, चुंगी के मुहर्रिर का भाई, अंगरेजी के आठवें दरजे का विद्यार्थी! यह मूर्ख, उजड्ड अहीर का लौंडा, इसकी इतनी मजाल कि मेरे भाइयों को नीचा दिखाए! घीसू के एक ठोकर लगाई और मिठुआ के कई तमाचे। मिठुआ तो रोने लगा; किंतु घीसू चिमड़ा था। जाहिर को छोड़कर उठा, हौसले बढ़े हुए थे, दो मोरचे जीत चुका था, ताल ठोककर माहिर अली से भी लिपट गया। माहिर का सफेद पाजामा मैला हो गया, आज ही जूते में रोगन लगाया था, उस पर गर्द पड़ गई; सँवारे हुए बाल बिखर गए, क्रोधोंन्‍मत्ता होकर घीसू को इतनी जोर से धक्का दिया कि वह दो कदम पर जा गिरा। साबिर, जाहिर, जाबिर, सब हँसने लगे। लड़कों की चोट प्रतिकार के साथ ही गायब हो जाती है। घीसू इनको हँसते देखकर और भी झुँझलाया; फिर उठा और माहिर अली से लिपट गया। माहिर ने उसका टेंटुआ पकड़ा और जोर से दबाने लगे। घीसू समझा, अब मरा, यह बिना मारे न छोड़ेगा। मरता क्या न करता, माहिर के हाथ में दाँत जमा दिए; तीन दाँत गड़ गए, खून बहने लगा। माहिर चिल्ला उठे, उसका गला छोड़कर अपना हाथ छुड़ाने का यत्न करने लगे; मगर घीसू किसी भाँति न छोड़ता था। खून बहते देखकर तीनों भाइयोें ने फिर रोना शुरू किया। जैनब और रकिया यह हंगामा सुनकर दरवाजे पर आ गईं। देखा तो समरभूमि रक्त से प्लावित हो रही है, गालियाँ देती हुई ताहिर अली के पास आईं। जैनब ने तिरस्कार भाव से कहा-तुम यहाँ बैठे खालें नोच रहे हो, कुछ दीन-दुनिया की भी खबर है! वहाँ वह अहीर का लौंडा हमारे लड़कों का खून-खच्चर किए डालता है। मुए को पकड़ पाती, तो खून ही चूस लेती।

रकिया—मुआ आदमी है कि देव-बच्चा है! माहिर के हाथ में इतनी जोर से दाँत काटा है कि खून के फौवारे निकल रहे हैं। कोई दूसरा मर्द होता, तो इसी बात पर मुए को जीता गाड़ देता।

जैनब—कोई अपना होता, तो इस वक्त मूड़ीकाटे को कच्चा ही चबा जाता।

ताहिर अली घबराकर मैदान की ओर दौड़े। माहिर के कपड़े खून से तर देखे, तो जामे से बाहर हो गए। घीसू के दोनों कान पकड़कर जोर से हिलाए और तमाचे-पर-तमाचे लगाने शुरू किए। मिठुआ ने देखा, अब पिटने की बारी आई; मैदान हमारे हाथ से गया, गालियाँ देता हुआ भागा। इधार घीसू ने भी गालियाँ देनी शुरू कीं। शहर के लौंडे गाली की कला में सिध्दहस्त होते हैं। घीसू नई-नई अछूती गालियाँ दे रहा था और ताहिर अली गालियों का जवाब तमाचों से दे रहे थे। मिठुआ ने जाकर इस संग्राम की सूचना बजरंगी को दी—सब लोग मिलकर घीसू को मार रहे हैं, उसके मुँह से लहू निकल रहा है। वह भैंसें चरा रहा था, बस तीनों लड़के आकर भैसों को भगाने लगे। घीसू ने मना किया, तो सबों ने मिलकर मारा, और बड़े मियाँ भी निकलकर मार रहे हैं। बजरंगी यह खबर सुनते ही आग हो गया। उसने ताहिर अली की माताओं को 50 रुपये दिए थे और उस जमीन को अपनी समझे बैठा था। लाठी उठाई और दौड़ा। देखा, तो ताहिर अली घीसू के हाथ-पाँव बँधवा रहे हैं। पागल हो गया, बोला—बस, मुंशीजी, भला चाहते हो, तो हट जाओ; नहीं तो सारी सेखी भुला दूँगा, यहाँ जेहल का डर नहीं है, साल-दो-साल वहीं काट आऊँगा, लेकिन तुम्हें किसी काम का न रखूँगा। जमीन तुम्हारे बाप की नहीं है। इसीलिए तुम्हें 50 रुपये दिए हैं। क्या वे हराम के रुपये थे? बस, हट ही जाओ, नहीं तो कच्चा चबा जाऊँगा; मेरा नाम बजरंगी है!

ताहिर अली ने अभी कुछ जवाब न दिया था कि घीसू ने बाप को देखते ही जोर से छलाँग मारी और एक पत्थर उठाकर ताहिर अली की तरफ फेंका। वह सिर नीचा न कर लें, तो माथा फट जाए। जब तक घीसू दूसरा पत्थर उठाए, उन्होंने लपककर उसका हाथ पकड़ा और इतनी जोर से ऐंठा कि वह ‘अहा मरा! अहा मरा!’ कहता हुआ जमीन पर गिर पड़ा। अब बजरंगी आपे से बाहर हो गया। झपटकर ऐसी लाठी मारी कि ताहिर अली तिरमिराकर गिर पड़े। कई चमार, जो अब तक इसे लड़कों का झगड़ा समझकर चुपचाप बैठे थे, ताहिर अली को गिरते देखकर दौड़े और बजरंगी को पकड़ लिया। समर-क्षेत्र में सन्नाटा छा गया। हाँ, जैनब और रकिया द्वार पर खड़ी शब्द-बाण चलाती जाती थीं—मूड़ीकाटे ने गजब कर दिया, इस पर खुदा का कहर गिरे, दूसरा दिन देखना नसीब न हो, इसकी मैयत उठे, कोई दौड़कर साहब के पास जाकर क्यों इत्तिला नहीं करता! अरे-अरे चमारो, बैठे मुँह क्या ताकते हो, जाकर साहब को खबर क्यों नहीं देते; कहना—अभी चलिए। साथ लाना, कहना—पुलिस लेते चलिए, यहाँ जान देने नहीं आए हैं।

बजरंगी ने ताहिर अली को गिरते देखा, तो सँभल गया, दूसरा हाथ न चलाया। घीसू का हाथ पकड़ा और घर चला गया। यहाँ घर में कुहराम मचा। दो चमार जॉन सेवक के बँगले की तरफ गए। ताहिर अली को लोगों ने उठाया और चारपाई पर लादकर कमरे में लाए। कंधो पर लाठी पड़ी थी, शायद हड़डी टूट गई थी। अभी तक बेहोश थे। चमारों ने तुरंत हल्दी पीसी और उसे गुड़-चूने में मिलाकर उनके कंधो में लगाया। एक आदमी लपककर पेड़े के पत्तो तोड़ लाया, दो आदमी बैठकर सेंकने लगे। जैनब और रकिया तो ताहिर अली की मरहम-पट्टी करने लगीं, बेचारी कुल्सूम दरवाजे पर खड़ी रो रही थी। पति की ओर उससे ताका भी न जाता था। गिरने से उनके सिर में चोट आ गई थी। लहू बहकर माथे पर जम गया था। बालों में लटें पड़ गई थीं, मानो किसी चित्रकार के ब्रुश में रंग सूख गया हो। हृदय में शूल उठ रहा था; पर पति के मुख की ओर ताकते ही उसे मूर्छा-सी आने लगती थी, दूर खड़ी थी; यह विचार भी मन में उठ रहा था कि ये सब आदमी अपने दिल में क्या कहते होंगे। इसे पति के प्रति जरा भी प्रेम नहीं, खड़ी तमाशा देख रही है। क्या करूँ, उनका चेहरा न जाने कैसा हो गया है। वही चेहरा, जिसकी कभी बलाएँ ली जाती थीं, मरने के बाद भयावह हो जाता है, उसकी ओर दृष्टिपात करने के लिए कलेजे को मजबूत करना पड़ता है। जीवन की भाँति मृत्यु का भी सबसे विशिष्ट आलोक मुख ही पर पड़ता है। ताहिर अली की दिन-भर सेंक-बाँध हुई, चमारों ने इस तरह दौड़-धूप की, मानो उनका कोई अपना इष्ट मित्र है। क्रियात्मक सहानुभूति ग्राम-निवासियों का विशेष गुण है। रात को भी कई चमार उनके पास बैठे सेंकते-बाँधते रहे! जैनब और रकिया बार-बार कुल्सूम को ताने देतीं—बहन, तुम्हारा दिल भी गजब का है। शौहर का वहाँ बुरा हाल हो रहा है और तुम यहाँ मजे से बैठी हो। हमारे मियाँ के सिर में जरा-सा दर्द होता था, तो हमारी जान नाखून में समा जाती थी। आजकल की औरतों का कलेजा सचमुच पत्थर का होता है। कुल्सूम का हृदय इन बाणों से बिंधा जाता था; पर यह कहने का साहस न होता था कि तुम्हीं दोनों क्यों नहीं चली जातीं? आखिर तुम भी तो उन्हीं की कमाई खाती हो, और मुझसे अधिक। किंतु इतना कहती, तो बचकर कहाँ जाती, दोनों उसके गले पड़ जातीं। सारी रात जागती रही। बार-बार द्वार पर जाकर आहट ले आती थी। किसी भाँति रात कटी। प्रात:काल ताहिर अली की ऑंखें खुलीं; दर्द से अब भी कराह रहे थे; पर अब अवस्था उतनी शोचनीय न थी। तकिये के सहारे बैठ गए। कुल्सूम ने उन्हें चमारों से बातें करते सुना। उसे ऐसा जान पड़ा कि इनका स्वर कुछ विकृत हो गया है। चमारों ने ज्यों ही उन्हें होश में देखा, समझ गए कि अब हमारी जरूरत नहीं रही, अब घरवाली की सेवा-शुश्रूषा का अवसर आ गया। एक-एक करके विदा हो गए। अब कुल्सूम ने चित्ता सावधान किया और पति के पास आ बैठी। ताहिर अली ने उसे देखा, तो क्षीण स्वर में बोले—खुदा ने हमें नमकहरामी की सजा दी है। जिनके लिए अपने आका का बुरा चेता, वही अपने दुश्मन हो गए।

कुल्सूम—तुम यह नौकरी छोड़ क्यों नहीं देते? जब तक जमीन का मुआमला तय न हो जाएगा, एक-न-एक झगड़ा-बखेड़ा रोज होता रहेगा, लोगों से दुश्मनी बढ़ती जाएगी। यहाँ जान थोड़े ही देना है। खुदा ने जैसे इतने दिन रोजी दी है, वैसे ही फिर देगा। जान तो सलामत रहेगी।

ताहिर—जान तो सलामत रहेगी, पर गुजर क्योंकर होगा, कौन इतना दिए देता है? देखती हो कि अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखे आदमी मारे-मारे फिरते हैं।

कुल्सूम—न इतना मिलेगा, न सही; इसका आधा तो मिलेगा! दोंनों वक्त न खाएँगे, एक ही वक्त सही; जान तो आफत में न रहेगी।

ताहिर—तुम एक वक्त खाकर खुश रहोगी, घर में और लोग भी तो हैं, उनके दु:खड़े रोज कौन सुनेगा? मुझे अपनी जान से दुश्मनी थोड़े ही है; पर मजबूर हूँ। खुदा को जो मंजूर होगा, वह पेश आएगा।

कुल्सूम—घर के लोगों के पीछे क्या जान दे दोगे?

ताहिर—कैसी बातें करती हो, आखिर वे लोग कोई गैर तो नहीं हैं? अपने ही भाई हैं, अपनी माँएँ हैं। उनकी परवरिश मेरे सिवा और कौन करेगा?

कुल्सूम—तुम समझते होगे, वे तुम्हारे मोहताज हैं; मगर उन्हें तुम्हारी रत्ती-भर भी परवा नहीं। सोचती हैं, जब तक मुफ्त का मिले, अपने खजाने में क्यों हाथ लगाएँ। मेरे बच्चे पैसे-पैसे को तरसते हैं और वहाँ मिठाइयों की हाँड़ियाँ आती हैं, उनके लड़के मजे से खाते हैं। देखती हूँ और ऑंखें बंद कर लेती हूँ।

ताहिर—मेरा जो फर्ज है, उसे पूरा करता हूँ। अगर उनके पास रुपये हैं, तो इसका मुझे क्यों अफसोस हो, वे शौक से खाएँ, आराम से रहें। तुम्हारी बातों से हसद की बू आती है। खुदा के लिए मुझसे ऐसी बातें न किया करो।

कुल्सूम—पछताओगे; जब समझाती हूँ, मुझ ही पर नाराज होते हो; लेकिन देख लेना, कोई बात न पूछेगा।

ताहिर—यह सब तुम्हारी नियत का कसूर है।

कुल्सूम—हाँ, औरत हूँ, मुझे अक्ल कहाँ! पड़े तो हो, किसी ने झाँका तक नहीं। कलक होती, तो यों चैन से न बैठी रहतीं।

ताहिर अली ने करवट ली, तो कंधो में असह्य वेदना हुई। ‘आह-आह’ करके चिल्ला उठे। माथे पर पसीना आ गया। कुल्सूम घबराकर बोली—किसी को भेजकर डॉक्टर को क्यों नहीं बुला लेते? कहीं हड़डी पर जरब न आ गया हो।

ताहिर—हाँ, मुझे भी ऐसा ही खौफ होता है, मगर डॉक्टर को बुलाऊँ तो उसकी फीस के रुपये कहाँ से आवेंगे?

कुल्सूम—तनख्वाह तो अभी मिली थी, क्या इतनी जल्द खर्च हो गई?

ताहिर—खर्च तो नहीं हो गई, लेकिन फीस की गुंजाइश नहीं है। अबकी माहिर की तीन महीने की फीस देनी होगी। 12 रुपये तो फीस ही के निकल जाएँगे, सिर्फ 18 रुपये बचेंगे! अभी तो पूरा महीना पड़ा हुआ है। क्या फाके करेंगे?

कुल्सूम—जब देखो, माहिर की फीस का तकाजा सिर पर सवार रहता है। अभी दस दिन हुए, फीस दी नहीं गई?

ताहिर—दस दिन नहीं हुए, एक महीना हो गया।

कुल्सूम—फीस अबकी न दी जाएगी। डॉक्टर की फीस उनकी फीस से जरूरी है। वह पढ़कर रुपये कमाएँगे, तो मेरे घर न भरेंगे। मुझे तो तुम्हारी ही जान का भरोसा है।

ताहिर—(बात बदलकर) इन मुजियों की जब तक अच्छी तरह तंबीह न हो जाएगी, शरारत से बाज न आएँगे।

कुल्सूम—सारी शरारत इसी माहिर की थी। लड़कों में लड़ाई-झगड़ा होता ही रहता है। यह वहाँ न जाता तो क्यों मुआमला इतना तूल खींचता? इस पर जो अहीर के लौंडे ने जरा दाँत काट लिया, तो तुम भन्ना उठे।

ताहिर—मुझे तो खून के छींटे देखते ही जैसे सिर पर भूत सवार हो गया।

इतने में घीसू की माँ जमुनी आ पहुँची। जैनब ने उसे देखते ही तुरंत बुला लिया और डाँटकर कहा—मालूम होता है, तेरी शामत आ गई है।

जमुनी—बेगम साहब, शामत नहीं आई है, बुरे दिन आए हैं, और क्या कहूँ। मैं कल ही दही बेचकर लौटी, तो यह हाल सुना। सीधो आपकी खिदमत में दौड़ी; पर यहाँ बहुत-से आदमी जमा थे, लाज के मारे लौट गई। आज दही बेचने नहीं गई। बहुत डरते-डरते आई हूँ। जो कुछ भूल-चूक हुई, उसे माफ कीजिए, नहीं तो उजड़ जाएँगे, कहीं ठिकाना नहीं है।

जैनब—अब हमारे किए कुछ नहीं हो सकता। साहब बिना मुकदमा चलाए न मानेंगे, और वह न चलाएँगे, तो हम चलाएँगे। हम कोई धुनिये-जुलाहे हैं? यों सबसे दबते फिरें, तो इज्जत कैसे रहे? मियाँ के बाप थानेदार थे; सारा इलाका नाम से काँपता था, बड़े-बड़े रईस हाथ बाँधो सामने खड़े रहते थे। उनकी औलाद क्या ऐसी गई-गुजरी हो गई कि छोटे-छोटे आदमी बेइज्जती करें। तेरे लौंडे ने माहिर को इतनी जोर से दाँत काटा कि लहू-लुहान हो गया; पट्टी बाँधो पड़ा है। तेरे शौहर ने आकर लड़के को डाँट दिया होता, तो बिगड़ी बात बन जाती।लेकिन उसने तो आते-ही-आते लाठी का वार कर दिया। हम शरीफ लोग हैं, इतनी रियायत नहीं कर सकते।

रकिया—जब पुलिस आकर मारते-मारते कचूमर निकाल देगी, तब होश आएगा; नजर-नियाज देनी पड़ेगी, वह अलग। तब आटे-दाल का भाव मालूम होगा।

जमुनी को अपने पति के हिस्से का व्यावहारिक ज्ञान भी मिला था। इन धमकियों से भयभीत न होकर बोली—बेगम साहब, यहाँ इतने रुपये कहाँ धरे हैं, दूध-पानी करके दस-पाँच रुपये बटोरे हैं। वहीं तक अपनी दौड़ है। इस रोजगार में अब क्या रखा है! रुपये का तीन पसेरी तो भूसा मिलता है। एक रुपये में एक भैंस का पेट नहीं भरता। उस पर खली, बिनौली, भूसी, चोकर सभी कुछ चाहिए। किसी तरह दिन काट रहे हैं। आपके बाल-बच्चों को साल-छ: महीने दूध पिला दूँगी।

जैनब समझ गई कि यह अहीरन कच्ची गोटी नहीं खेली है। इसके लिए किसी दूसरे ही मंत्र का प्रयोग करना चाहिए। नाक सिकोड़कर बोली—तू अपना दूध अपने घर रख, यहाँ दूध-घी के ऐसे भूखे नहीं हैं। यह जमीन अपनी हुई जाती है; जितने जानवर चाहूँगी, पाल लूँगी। मगर तुझसे कहे देती हूँ कि तू कल से घर में न बैठने पाएगी। पुलिस की रपट तो साहब के हाथ में है; पर हमें भी खुदा ने ऐसा इल्म दिया है कि जहाँ एक नक्श लिखकर दम किया कि जिन्नात अपना काम करने लगें। जब हमारे मियाँ जिंदा थे, तो एक बार पुलिस के एक बड़े अंगरेज हाकिम से कुछ हुज्जत हो गई। बोला—हम तुमको निकाल देंगे। मियाँ ने कहा, हमें निकाल दोगे, तो तुम भी आराम से न बैठोगे। मियाँ ने आकर मुझसे कहा। मैंने उसी रात को सुलेमानी नक्श लिखकर दम किया, उसकी मेम साहब का पूरा हमल गिर गया। दौड़ा हुआ आया, खुशामदें कीं, पैरों पर गिरा, मियाँ से कसूर मुआफ कराया, तब मेम की जान बची। क्यों रकिया, तुम्हें याद है न?

रकिया—याद क्यों नहीं है, मैंने ही तो दुआ पढ़ी थी; साहब रात को दरवाजे पर पुकारता था।

जैनब—हम अपनी तरफ से किसी की बुराई नहीं चाहते; लेकिन जब जान पर आ बनती है, तो सबक भी ऐसा दे देते हैं कि जिंदगी भर न भूलें। अभी अपने पीर से कह दें, तो खुदा जाने क्या गजब ढाए। तुम्हें याद है रकिया, एक अहीर ने उन्हें दूध में पानी मिलाकर दिया था, उनकी जबान से इतना ही निकला—जा, तुझसे खुदा समझें। अहीर ने घर आकर देखा, तो उसकी 200 रुपये की भैंस मर गई थी।

जमुनी ने ये बातें सुनीं, तो होश उड़ गए। अन्य स्त्रियों की भाँति वह भी थाना, पुलिस, कचहरी और दरबार की अपेक्षा भूत-पिशाचों से ज्यादा डरी रहती थी। पास-पड़ोस में पिशाच-लीला देखने के अवसर आए दिन मिलते ही रहते थे। मुल्लाओं के यंत्र-मंत्र कहीं ज्यादा लागू होते हैं, यह भी मानती थी। जैनब बेगम ने उसकी पिशाच-भीरुता को लक्षित करके अपनी विषय चातुरी का परिचय दिया। जमुनी भयभीत होकर बोली—नहीं बेगम साहब, आपको भी भगवान् ने बाल-बच्चे दिए हैं, ऐसा जुलुम न कीजिएगा, नहीं तो मर जाऊँगी।

जैनब—यह भी न करें, वह भी न करें, तो इज्जत कैसे रहे? कल को तेरा अहीर फिर लट्ठ लेकर आ पहुँचे तो? खुदा ने चाहा, तो अब वह लट्ठ उठाने लायक रह ही न जाएगा।

जमुनी थरथराकर पैरों पर गिर पड़ी और बोली—बीबी, जो हुकुम हो, उसके लिए हाजिर हूँ।

जैनब ने चोट-पर-चोट लगाई और जमुनी के बहुत रोने-गिड़गिड़ाने पर 25 रुपये लेकर जिन्नात से उसे अभय-दान दिया। घर गई, रुपये लाकर दिए और पैरों पर गिरी; मगर बजरंगी से यह बात न कही। वह चली तो जैनब ने हँसकर कहा—खुदा देता है तो छप्पर फाड़कर देता है। इसका तो सान-गुमान भी न था। तुम बेसब्र हो जाती हो, नहीं तो मैंने कुछ-न-कुछ और ऐंठा होता। सवार को चाहिए कि बाग हमेशा कड़ी रखे।

सहसा साबिर ने आकर जैनब से कहा—आपको अब्बा बुलाते हैं। जैनब वहाँ गई, तो ताहिर अली को पड़े कराहते देखा। कुल्सूम से बोली—बीबी, गजब का तुम्हारा जिगर है। अरे भले आदमी, जाकर जरा मूँग का दलिया पका दे। गरीब ने रात को कुछ नहीं खाया, इस वक्त भी मुँह में कुछ न जाएगा, तो क्या हाल होगा?

ताहिर—नहीं, मेरा कुछ खाने को जी नहीं चाहता। आपको इसलिए तकलीफ दी है कि अगर आपके पास कुछ रुपये हों, तो मुझे कर्ज के तौर पर दे दीजिए। मेरे कंधों में बड़ा दर्द है, शायद हड्डी टूट गई है, डॉक्टर को दिखाना चाहता हूँ; मगर उसकी फीस के लिए रुपयों की जरूरत है।

जैनब—बेटा, भला सोचो तो, मेरे पास रुपये कहाँ से आएँगे, तुम्हारे सिर की कसम खाकर कहती हूँ। मगर तुम डॉक्टर को बुलाओ ही क्यों? तुम्हें सीधो साहब के यहाँ जाना चाहिए। यह हंगामा उन्हीं की बदौलत तो हुआ है, नहीं तो यहाँ हमसे किसी को क्या गरज थी। एक इक्का मँगवा लो और साहब के यहाँ चले जाओ। वह एक रुक्की लिख देंगे, तो सरकारी शिफाखाने में खासी तरह इलाज हो जाएगा। तुम्हीं सोचो, हमारी हैसियत डॉक्टर बुलाने की है?

ताहिर अली के दिल में यह बात बैठ गई। माता को धन्यवाद दिया। सोचा, न जाने यही बात मेरी समझ में क्यों नहीं आई। इक्का मँगवाया, लाठी के सहारे बड़ी मुश्किल से उस पर सवार हुए और साहब के बँगले पर पहुँचे।

मिस्टर सेवक, राजा महेंद्रकुमार से मिलने के बाद, कम्पनी के हिस्से बेचने के लिए बाहर चले गए थे और उन्हें लौटे हुए आज तीन दिन हो गए थे। कल वह राजा साहब से फिर मिले थे; मगर जब उनका फैसला सुना, तो बहुत निराश हुए। बहुत देर तक बैठे तर्क-वितर्क करते रहे; लेकिन राजा साहब ने कोई संतोषजनक उत्तर न दिया। निराश होकर आए और मिसेज़ सेवक से सारा वृत्तांत कह सुनाया।

मिसेज़ सेवक को हिंदुस्तानियों से चिढ़ थी। यद्यपि इसी देश के अन्न-जल से उनकी सृष्टि हुई थी, पर अपने विचार से हजरत ईसा की शरण में आकर, वह हिंदुस्तानियों के अवगुणों से मुक्त हो चुकी थीं। उनके विचार में यहाँ के आदमियों को खुदा ने सज्जनता, सहृदयता, उदारता, शालीनता आदि दिव्य गुणों से सम्पूर्णत: वंचित रक्खा है। वह योरपीय सभ्यता की भक्त थीं और आहार-विहार में उसी का अनुसरण करती थीं; खान-पान, वेश-भूषा, रहन-सहन, सब अंगरेजी थी; मजबूरी केवल अपने साँवले रंग से थी। साबुन के निरंतर प्रयोग और अन्य रासायनिक पदार्थों का व्यवहार करने पर भी मनोकामना पूरी होती न थी। उनके जीवन की एकमात्र यही अभिलाषा थी कि हम ईसाइयों की श्रेणी से निकलकर अंगरेजों में जा मिलें, हमें लोग साहब समझें, हमारा रब्त-जब्त अंगरेजों से हो, हमारे लड़कों की शादियाँ ऐंग्लो इंडियन या कम-से-कम उच्च श्रेणी के यूरोपियन लोगों से हों। सोफी की शिक्षा-दीक्षा अंगरेजी ढंग पर हुई थी; किंतु वह माता के बहुत आग्रह करने पर भी अंगरेजी दावतों और पार्टियों में शरीक होती न थी, और नाच से तो उसे घृणा ही थी। किंतु मिसेज़ सेवक इन अवसरों को हाथ से न जाने देती थीं, यों काम न चलता तो विशेष प्रयत्न करके निमंत्रण-पत्र मँगवाती थीं। अगर स्वयं उनके मकान पर दावतें और पार्टियाँ बहुत कम होती थीं, तो इसका कारण ईश्वर सेवक की कृपणता थी।

यह समाचार सुनकर मिसेज़ सेवक बोलीं—देख ली हिन्‍दुस्‍तानियों की सज्जनता? फूले न समाते थे। अब तो मालूम हुआ कि ये लोग कितने कुटिल और विश्वासघातक हैं। एक अंधे भिखारी के सामने तुम्हारी यह इज्जत है। पक्षपात तो इन लोगों की घुट्टी में पड़ा हुआ है, और यह उन बड़े-बड़े आदमियों का हाल है, जो अपनी जाति के नेता समझे जाते हैं, जिनकी उदारता पर लोगों को गर्व है। मैंने मिस्टर क्लार्क से एक बार चर्चा की थी। उन्होंने तहसीलदारों को हुक्म दे दिया कि अपने-अपने इलाके में तम्बाकू की पैदावार बढ़ाओ। यह सोफी के आग में कूदने का पुरस्कार है! जरा-सा म्युनिसिपैलिटी का अख्तियार क्या मिल गया, सबों के दिमाग फिर गए। मिस्टर क्लार्क कहते थे कि अगर राजा साहब जमीन का मुआमला न तय करेंगे, तो मैं जाब्ते से उसे आपको दिला दूँगा।

मिस्टर जोज़फ क्लार्क जिला के हाकिम थे। अभी थोड़े ही दिनों से यहाँ आए थे। मिसेज़ सेवक ने उनसे रब्त-जब्त पैदा कर लिया था। वास्तव में उन्होंने क्लार्क को सोफी के लिए चुना था। दो-एक बार उन्हें अपने घर बुला भी चुकी थीं। गृह-निर्वासन से पहले दो-तीन बार सोफी से उनकी मुलाकात भी हो चुकी थी; किंतु वह उनकी ओर विशेष आकृष्ट न हुई थी। तो भी मिसेज़ सेवक इस विषय में अभी निराश न हुई थीं। क्लार्क से कहती थीं—सोफी मेहमानी करने गई है। इस प्रकार अवसर पाकर उनकी प्रेमाग्नि को भड़काती रहती थी।

जॉन सेवक ने लज्जित होकर कहा—मैं क्या जानता था, यह महाशय भी दगा देंगे। यहाँ उनकी बड़ी ख्याति है, अपने वचन के पक्के समझे जाते हैं। खैर, कोई मुजायका नहीं। अब कोई दूसरा उपाय सोचना पड़ेगा।

मिसेज़ सेवक—मैं मिस्टर क्लार्क से कहूँगी। पादरी साहब से भी सिफारिश कराऊँगी।

जॉन सेवक—मिस्टर क्लार्क को म्युनिसिपैलिटी के मुआमलों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं।

जॉन सेवक इसी चिंता में पड़े हुए थे कि इस हंगामे की खबर मिली। सन्नाटे में आ गए। पुलिस को रिपोर्ट की। दूसरे दिन गोदाम जाने का विचार कर ही रहे थे कि ताहिर अली लाठी टेकते हुए आ पहुँचे। आते-आते एक कुरसी पर बैठ गए। इक्के के हचकोलों ने अंधामुआ-सा कर दिया था।

मिसेज सेवक ने अंगरेजी में कहा—कैसी सूरत बना ली है, मानो विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा है!

जॉन सेवक—कहिए मुंशीजी, मालूम होता है, आपको बहुत चोट आई। मुझे इसका बड़ा दु:ख है।

ताहिर—हुजूर, कुछ न पूछिए, कम्बख्तों ने मार डालने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।

जॉन सेवक—और इन्हीं दुष्टों की आप मुझसे सिफारिश कर रहे थे।

ताहिर—हुजूर, अपनी खता की बहुत सजा पा चुका। मुझे ऐसा मालूम होता है कि मेरी गरदन की हड्डी पर जरब आ गया है।

जॉन सेवक—यह आपकी भूल है। हड्डी टूट जाना कोई मामूली बात नहीं है। आप यहाँ तक किसी तरह न आ सकते थे। चोट जरूर आई है, मगर दो-चार रोज मालिश कर लेने से आराम हो जाएगा। आखिर यह मारपीट हुई क्यों?

ताहिर—हुजूर, यह सब उसी शैतान बजरंगी अहीर की हरकत है।

जॉन सेवक—मगर चोट खा जाने ही से आप निरापराध नहीं हो सकते। मैं इसे आपकी नादानी और असावधानी समझता हूँ। आप ऐसे आदमियों से उलझे ही क्यों? आपको मालूम है, इसमें मेरी कितनी बदनामी है?

ताहिर—मेरी तरफ से ज्यादती तो नहीं हुई।

जॉन सेवक—जरूर हुई, वरना देहातों में आदमी किसी से छेड़कर लड़ने नहीं आते। आपको इस तरह रहना चाहिए कि लोगों पर आपका रोब रहे। यह नहीं कि छोटे-छोटे आदमियों को आपसे मार-पीट करने की हिम्मत हो।

मिसेज़ सेवक—कुछ नहीं, यह सब इनकी कमजोरी है। कोई राह चलते किसी को नहीं मारता।

ईश्वर सेवक कुरसी पर पड़े-पड़े बोले—खुदा के बेटे, मुझे अपने साये में ले, सच्चे दिल से उसकी बंदगी न करने की यही सजा है।

ताहिर अली को ये बातें घाव पर नमक के समान लगीं। ऐसा क्रोध आया कि इसी वक्त कह दूँ, जहन्नुम में जाए तुम्हारी नौकरी; पर जॉन सेवक को उनकी दुरवस्था से लाभ उठाने की एक युक्ति सूझ गई। फिटन तैयार कराई और ताहिर अली को लिए हुए राजा महेंद्रकुमार के मकान पर जा पहुँचे। राजा साहब शहर का गश्त लगाकर मकान पर पहुँचे ही थे कि जॉन सेवक का कार्ड पहुँचा। झुँझलाए, लेकिन शील आ गया, बाहर निकल आए। मिस्टर सेवक ने कहा—क्षमा कीजिएगा, आपको कुसमय कष्ट हुआ, किंतु पाँड़ेपुरवालों ने इतना उपद्रव मचा रखा है कि मेरी समझ में नहीं आता, आपके सिवा किसका दामन पकड़ूँ। कल सबों ने मिलकर गोदाम पर धावा कर दिया। शायद आग लगा देना चाहते थे, पर आग तो न लगा सके; हाँ, यह मेरे एजेंट हैं, सब-के-सब इन पर टूट पड़े। इनको और इनके भाइयों को मारते-मारते बेदम कर दिया। इतने पर भी उन्हें तस्कीन न हुई, जनाने मकान में घुस गए; और अगर स्त्रियाँ अंदर से द्वार न बंद कर लें तो उनकी आबरू बिगड़ने में कोई संदेह न था। इनके तो ऐसी चोटें लगी हैं कि शायद महीनों चलने-फिरने लायक न हों, कंधो की हड्डी टूट गई है।

महेंद्रकुमार सिंह स्त्रियों का बड़ा सम्मान करते थे। उनका अपमान होते देखकर तैश में आ जाते थे। रौद्र रूप धारण करके बोले—सब जनाने में घुस गए!

जॉन सेवक—किवाड़ तोड़ना चाहते थे, मगर चमारों ने धामकाया तो हट गए।

महेंद्रकुमार—कमीने! स्त्रियों पर अत्याचार करना चाहते थे!

जॉन सेवक—यही तो इस ड्रामा का सबसे लज्जास्पद अंश हैं।

महेंद्रकुमार—लज्जास्पद नहीं महाशय, घृणास्पद कहिए।

जॉन सेवक—अब यह बेचारे कहते हैं कि या तो मेरी इस्तीफा लीजिए, या गोदाम की रक्षा के लिए चौकीदारों का प्रबंध कीजिए। स्त्रियाँ इतनी भयभीत हो गई हैं कि वहाँ एक क्षण भी नहीं रहना चाहतीं। यह सारा उपद्रव उसी अंधे की बदौलत हो रहा है।

महेंद्रकुमार—मुझे तो वह बहुत गरीब, सीधा-सा आदमी मालूम होता है; मगर है छँटा हुआ। उसी की दीनता पर तरस खाकर मैंने निश्चय किया था कि आपके लिए कोई दूसरी जमीन तलाश करूँ। लेकिन जब उन लोगों ने शरारत पर कमर बाँधी है और आपको जबरदस्ती वहाँ से हटाना चाहते हैं, तो इसका उन्हें अवश्य दंड मिलेगा।

जॉन सेवक—बस, यही बात है, वे लोग मुझे वहाँ से निकाल देना चाहते हैं। अगर रिआयत की गई, तो मेरे गोदाम में जरूर आग लग जाएगी।

महेंद्रकुमार—मैं खूब समझ रहा हूँ। यों मैं स्वयं जनवादी हूँ और उस नीति का हृदय से समर्थन करता हूँ; पर जनवाद के नाम पर देश में जो अशांति फैली हुई है, उसका मैं घोर विरोधी हूँ। ऐसे जनवाद से तो धानवाद, एकवाद, सभी वाद अच्छे हैं। आप निश्चिंत रहिए।

इसी भाँति कुछ देर और बातें करके राजा साहब को खूब भरकर जॉन सेवक विदा हुए। रास्ते में ताहिर अली सोचने लगे—साहब को मेरी दुर्गति से अपना स्वार्थ सिध्द करने में जरा भी संकोच नहीं हुआ। क्या ऐसे धानी-मानी, विशिष्ट, विचारशील विद्वान् प्राणी भी इतने स्वार्थ-भक्त होते हैं!

जॉन सेवक अनुमान से उनके मन के भाव ताड़ गए। बोले—आप सोच रहे होंगे, मैंने बातों इतना रंग क्यों भरा, केवल घटना का यथार्थ वृत्तांत क्यों न कह सुनाया; किंतु सोचिए, बिना रंग भरे मुझे यह फल प्राप्त हो सकता? संसार में किसी काम का अच्छा या बुरा होना उसकी सफलता पर निर्भर है। एक व्यक्ति राजसत्ता का विरोध करता है। यदि अधिकारियों ने उसका दमन कर दिया, तो वह राजद्रोही कहा जाता है, और प्राणदंड पाता है। यदि उसका उद्देश्य पूरा हो गया, तो वह अपनी जाति का उध्दारकर्ता और विजयी समझा जाता है, उसके स्मारक बनाए जाते हैं। सफलता में दोषों को मिटाने की विलक्षण शक्ति है। आप जानते हैं, दो साल पहले मुस्तफा कमाल क्या था? बागी, देश उसके खून का प्यासा था। आज वह अपनी जाति का प्राण है। क्यों? इसलिए कि वह सफल-मनोरथ हुआ। लेकिन कई साल पहले प्राणभय से अमेरिका भागा था, आज वह प्रधान है। इसलिए कि उसका विद्रोह सफल हुआ। मैंने राजा साहब को स्वपक्षी बना लिया, फिर रंग भरने का दोष कहाँ रहा?

इतने में फिटन बँगले पर आ पहुँची। ईश्वर सेवक ने आते ही आते पूछा—कहो, क्या कर आए?

जॉन सेवक ने गर्व से कहा—राजा को अपना मुरीद बना आया। थोड़ा-सा रंग तो जरूर भरना पड़ा, पर उसका असर बहुत अच्छा हुआ।

ईश्वर सेवक-खुदा, मुझ पर दया-दृष्टि कर। बेटा, रंग मिलाए बगैर भी दुनिया का कोई काम चलता है? सफलता का यही मूल-मंत्र है, और व्यवसाय की सफलता के लिए तो यह सर्वथा अनिवार्य है। आपके पास अच्छी-से-अच्छी वस्तु है; जब तक आप स्तुति नहीं करते, कोई ग्राहक खड़ा ही नहीं होता। अपनी अच्छी वस्तु को अमूल्य, दुर्लभ, अनुपम कहना बुरा नहीं। अपनी औषधि को आप सुधा-तुल्य, रामबाण, अक्सीर, ऋषि-प्रदत्ता, संजीवनी, जो चाहें, कह सकते हैं, इसमें कोई बुराई नहीं। किसी उपदेशक से पूछो, किसी वकील से पूछो, किसी लेखक से पूछो, सभी एक स्वर से कहेंगे कि रंग और सफलता समानार्थक हैं। यह भ्रम है कि चित्रकार ही को रंगों की जरूरत होती है। अब तो तुम्हें निश्चय हो गया कि वह जमीन मिल जाएगी?

जॉन सेवक—जी हाँ, अब कोई संदेह नहीं।

यह कहकर उन्होंने प्रभु सेवक को पुकारा और तिरस्कार करके बोले—बैठे-बैठे क्या कर रहे हो? जरा पाँड़ेपुर क्यों नहीं चले जाते? अगर तुम्हारा यही हाल रहा, तो मैं कहाँ तक तुम्हारी मदद करता फिरूँगा।

प्रभु सेवक—मुझे जाने में कोई आपत्ति नहीं; पर इस समय मुझे सोफी के पास जाना है।

जॉन सेवक—पाँड़ेपुर से लौटते हुए सोफी के पास बहुत आसानी से जा सकते हो।

प्रभु सेवक—मैं सोफी से मिलना ज्यादा जरूरी समझता हूँ।

जॉन सेवक—तुम्हारे रोज-रोज मिलने से क्या फायदा, जब तुम आज तक उसे घर लाने में सफल नहीं हो सके?

प्रभु सेवक के मुँह से ये शब्द निकलते-निकलते रह गए—मामा ने जो आग लगा दी है, वह मेरे बुझाए नहीं बुझ सकी। तुरंत अपने कमरे में आए, कपड़े पहने और उसी वक्त ताहिर अली के साथ पाँड़ेपुर चलने को तैयार हो गए। ग्यारह बज चुके थे, जमीन से आग की लपट निकल रही थी, दोपहर का भोजन तैयार था, मेज लगा दी गई थी; किंतु प्रभु सेवक माता ओर पिता के बहुत आग्रह करने पर भी भोजन पर न बैठे। ताहिर अली खुदा से दुआ कर रहे थे कि किसी तरह दोपहरी यहीं कट जाए, पंखे के नीचे टट्टियों से छनकर आने वाली शीतल वायु ने उनकी पीड़ा को बहुत शांत कर दिया था; किंतु प्रभु सेवक के हठ ने उन्हें यह आनंद न उठाने दिया।