Premchand

प्रेमचंद

(३१ जुलाई १८८० – ८ अक्टूबर १९३६)

1906 से 1936 के बीच लिखा गया प्रेमचंद का साहित्य इन तीस वर्षों का सामाजिक सांस्कृतिक दस्तावेज है। इसमें उस दौर के समाजसुधार आन्दोलनों, स्वाधीनता संग्राम तथा प्रगतिवादी आन्दोलनों के सामाजिक प्रभावों का स्पष्ट चित्रण है। उनमें दहेज, अनमेल विवाह, पराधीनता, लगान, छूआछूत, जाति भेद, विधवा विवाह, आधुनिकता, स्त्री-पुरुष समानता, आदि उस दौर की सभी प्रमुख समस्याओं का चित्रण मिलता है। आदर्शोन्मुख यथार्थवाद उनके साहित्य की मुख्य विशेषता है। हिन्दी कहानी तथा उपन्यास के क्षेत्र में 1918 से 1936 तक के कालखण्ड को ‘प्रेमचंद युग’ या ‘प्रेमचन्द युग’ कहा जाता है। (साभार: विकिपीडिया)

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रंगभूमि: अध्याय 11

भैरों पासी अपनी माँ का सपूत बेटा था। यथासाध्य उसे आराम से रखने की चेष्टा करता रहता था। इस भय से कि कहीं बहू सास को भूखा न रखे, वह उसकी थाली अपने सामने परसा लिया करता था और उसे अपने साथ ही बैठाकर खिलाता था। बुढ़िया तम्बाकू पीती थी। उसके वास्ते एक सुंदर, पीतल से मढ़ा हुआ नारियल लाया था। आप चाहे जमीन पर सोये, पर उसे खाट पर सुलाता। कहता, इसने न जाने कितने कष्ट झेलकर मुझे पाला-पोसा है; मैं इससे जीते-जी कभी उरिन नहीं हो सकता। अगर माँ का सिर भी दर्द करता तो बेचैन हो जाता, ओझे-सयाने बुला लाता। बुढ़िया को गहने-कपड़े का भी शौक था। पति के राज में जो सुख न पाए थे, वे बेटे के राज में भोगना चाहती थी। भैरों ने उसके लिए हाथों के कड़े, गले की हँसली और ऐसी ही कई चीजें बनवा दी थीं। पहनने के लिए मोटे कपड़ों की जगह कोई रंगीन छींट लाया करता था। अपनी स्त्री को ताकीद करता रहता था कि अम्माँ को कोई तकलीफ न होने पाए। इस तरह बुढ़िया का मन बढ़ गया था। जरा-सी कोई बात इच्छा के विरुध्द होती, तो रूठ जाती और बहू को आड़े हाथों लेती। बहू का नाम सुभागी था। बुढ़िया ने उसका नाम अभागी रख छोड़ा था। बहू ने जरा चिलम भरने में देर की, चारपाई बिछाना भूल गई, या मुँह से निकलते ही उसका पैर दबाने या सिर की जुएँ निकालने न आ पहुँची, तो बुढ़िया उसके सिर हो जाती। उसके बाप और भाइयों के मुँह में कालिख लगाती, सबों की दाढ़ियाँ जलाती, और उसे गालियों ही से संतोष न होता, ज्योंही भैरों दूकान से आता, एक-एक की सौ-सौ लगाती। भैरों सुनते ही जल उठता, कभी जली-कटी बातों से और कभी डंडों से स्त्री की खबर लेता। जगधार से उसकी गहरी मित्रता थी। यद्यपि भैरों का घर बस्ती के पश्चिम सिरे पर था, और जगधार का घर पूर्व सिरे पर, किंतु जगधार की यहाँ बहुत आमद-रफ्त थी। यहाँ मुफ्त में ताड़ी पीने को मिल जाती थी, जिसे मोल लेने के लिए उसके पास पैसे न थे। उसके घर में खानेवाले बहुत थे, कमानेवाला अकेला वही था। पाँच लड़कियाँ थीं, एक लड़का और स्त्री । खोंचे की बिक्री में इतना लाभ कहाँ कि इतने पेट भरे और ताड़ी-शराब भी पिए! वह भैरों की हाँ-में-हाँ मिलाया करता था। इसलिए सुभागी उससे जलती थी।

दो-तीन साल पहले की बात है, एक दिन, रात के समय, भैरों और जगधार बैठे हुए ताड़ी पी रहे थे। जाड़ों के दिन थे; बुढ़िया खा-पीकर, अंगीठी सामने रखकर, आग ताप रही थी। भैरों ने सुभागी से कहा—थोड़े-से मटर भून ला। नमक, मिर्च, प्याज भी लेती आना। ताड़ी के लिए चिखने की जरूरत थी। सुभागी ने मटर तो भूने, लेकिन प्याज घर में न था। हिम्मत न पड़ी कि कह दे—प्याज नहीं है। दौड़ी हुई कुँजड़े की दूकान पर गई। कुँजड़ा दूकान बंद कर चुका था। सुभागी ने बहुत चिरौरी की, पर उसने दूकान न खोली। विवश होकर उसने भूने हुए मटर लाकर भैरों के सामने रख दिए। भैरों ने प्याज न देखा, तो तेवर बदले। बोला—क्या मुझे बैल समझती है कि भुने हुए मटर लाकर रख दिए, प्याज क्यों नहीं लाई?

सुभागी ने कहा—प्याज घर में नहीं है, तो क्या मैं प्याज हो जाऊँ?

जगधार—प्याज के बिना मटर क्या अच्छे लगेंगे?

बुढ़िया—प्याज तो अभी कल ही धोले का आया था। घर में कोई चीज तो बचती ही नहीं। न जाने इस चुड़ैल का पेट है या भाड़।

सुभागी—मुझसे कसम ले लो, जो प्याज हाथ से भी छुआ हो। ऐसी जीभ होती, तो इस घर में एक दिन भी निबाह न होता।

भैरों—प्याज नहीं था, तो लाई क्यों नहीं?

जगधार—जो चीज घर में न रहे, उसकी फिकर रखनी चाहिए।

सुभागी—मैं क्या जानती थी कि आज आधी रात को प्याज की धुन सवार होगी।

भैरों ताड़ी के नशे में था। नशे में भी क्रोध का-सा गुण है, निर्बलों ही पर उतरता है। डंडा पास ही धारा था, उठाकर एक डंडा सुभागी को मारा। उसके हाथ की सब चूड़ियाँ टूट गईं। घर से भागी। भैरों पीछे दौड़ा। सुभागी एक दूकान की आड़ में छिप गई। भैरों ने बहुत ढूँढ़ा, जब उसे न पाया तो घर जाकर किवाड़ बंद कर लिए और फ़िर रात भर खबर न ली। सुभागी ने सोचा, इस वक्त जाऊँगी तो प्राण न बचेंगे। पर रात-भर रहूँगी कहाँ? बजरंगी के घर गई। उसने कहा—ना, बाबा, मैं यह रोग नहीं पालता। खोटा आदमी है, कौन उससे रार मोल ले! ठाकुरदीन के द्वार बंद थे। सूरदास बैठा खाना पका रहा था। उसकी झोपड़ी में घुस गई और बोली—सूरे, आज रात-भर मुझे पड़े रहने दो, मारे डालता है, अभी जाऊँगी, तो एक हड्डी भी न बचेगी।

सूरदास ने कहा—आओ, लेट रहो, भोरे चली जाना, अभी नसे में होगा।

दूसरे दिन जब भैरों को यह बात मालूम हुई, तो सूरदास से गाली-गलौज की और मारने की धमकी दी। सुभागी उसी दिन से सूरदास पर स्नेह करने लगी। जब अवकाश पाती, तो उसके पास आ बैठती, कभी-कभी उसके घर में झाड़ू लगा जाती, कभी घरवालों की ऑंख बचाकर उसे कुछ दे जाती, मिठुआ को अपने घर बुला ले जाती और उसे गुड़-चबेना खाने को देती।

भैरों ने कई बार उसे सूरदास के घर से निकलते देखा। जगधार ने दोनों को बातें करते हुए पाया। भैरों के मन में संदेह हो गया कि जरूर इन दोनों में कुछ साठ-गाँठ है, तभी से वह सूरदास से खार खाता था। उससे छेड़कर लड़ता। नायकराम के भय से उसकी मरम्मत न कर सकता था। सुभागी पर उसका अत्याचार दिनोंदिन बढ़ता जाता था और जगधार, शांत स्वभाव होने पर भी, भैरों का पक्ष लिया करता था।

जिस दिन बजरंगी और ताहिर अली में झगड़ा हुआ था, उसी दिन भैरों और सूरदास में संग्राम छिड़ गया। बुढ़िया दोपहर को नहाई थी सुभागी उसकी धोती छाँटना भूल गई। गरमी के दिन थे ही, रात को 9 बजे बुढ़िया को फिर गरमी मालूम र्हुई। गरमियों के दिनों में दो बार स्नान करती थी, जाड़ों में दो महीने में एक बार! जब वह नहाकर धोती माँगने लगी, तो सुभागी को याद आई। काटो तो बदन में लहू नहीं। हाथ जोड़कर बोली—अम्माँ, आज धोती धोने की याद नहीं रही। तुम जरा देर मेरी धोती पहन लो, तो मैं उसे छाँटकर अभी सुखाए देती हूँ।

बुढ़िया इतनी क्षमाशील न थी, हजारों गालियाँ सुनाईं और गीली धोती पहने बैठी रही। इतने में भैरों दूकान से आया और सुभागी से बोला—जल्दी खाना ला, आज संगत होनेवाली है। आओ अम्माँ, तुम भी खा लो।

बुढ़िया बोली—नहाकर गीली धोती पहने बैठी हूँ। अब अपने हाथों धोती धो लिया करूँगी।

भैरों—क्या इसने धोती नहीं धोई?

बुढ़िया—वह अब मेरी धोती क्यों धोने लगी। घर की मालकिन है। यही क्या कम है कि एक रोटी खाने को दे देती है!

सुभागी ने बहुत कुछ उज्र किया; किंतु भैरों ने एक न सुनी, डंडा लेकर मारने दौड़ा। सुभागी भागी और आकर सूरदास के घर में घुस गई। पीछे-पीछे भैरों भी वहीं पहुँचा। झोपड़े में घुसा और चाहता था कि सुभागी का हाथ पकड़कर खींच ले कि सूरदास उठकर खड़ा हो गया और बोला—क्या बात है भैरों, इसे क्यों मार रहे हो?

भैरों गर्म होकर बोला—द्वार पर से हट जाओ, नहीं तो पहले तुम्हारी हड्डीयां तोड़ूँगा, सारा बगुलाभगतपन निकल जाएगा। बहुत दिनों से तुम्हारा रंग देख रहा हूँ, आज सारी कसर निकाल लूँगा।

सूरदास—मेरा क्या छैलापन तुमने देखा? बस, यही न कि मैंने सुभागी को घर से निकाल नहीं दिया?

भैरों—बस, अब चुप ही रहना। ऐसे पापी न होते, तो भगवान् ने ऑंखें क्यों फोड़ दी होतीं। भला चाहते हो, तो सामने से हट जाओ।

सूरदास—मेरे घर में तुम उसे न मारने पाओगे; यहाँ से चली जाए, तो चाहे जितना मार लेना।

भैरों—हटता है सामने से कि नहीं?

सूरदास—मैं अपने घर यह उपद्रव न मचाने दूँगा।

भैरों ने क्रोध में आकर सूरदास को धक्का दिया। बेचारा बेलाग खड़ा था, गिर पड़ा, पर फिर उठा और भैरों की कमर पकड़कर बोला—अब चुपके से चले जाओ, नहीं तो अच्छा न होगा!

सूरदास था तो दुबला-पतला, पर उसकी हड्डीयां लोहे की थीं। बादल-बूँदी, सरदी-गरमी झेलते-झेलते उसके अंग ठोस हो गए थे। भैरों को ऐसा ज्ञात होने लगा, मानो कोई लोहे का शिकंजा है। कितना ही जोर मारता, पर शिकंजा जरा भी ढीला न होता था। सुभागी ने मौका पाया, तो भागी। अब भैरों जोर-जोर से गालियाँ देने लगा। मुहल्लेवाले यह शोर सुनकर आ पहुँचे। नायकराम ने मजाक करके कहा—क्यों सूरे, अच्छी सूरत देखकर ऑंखें खुल जाती हैं क्या मुहल्ले ही में?

सूरदास—पंडाजी, तुम्हें दिल्लगी सूझी है और यहाँ मुख में कालिख लगाई जा रही है। अंधा था, अपाहिज था, भिखारी था, नीच था, चोरी-बदमासी के इलजाम से तो बचा हुआ था! आज वह इलजाम भी लग गया।

बजरंगी—आदमी जैसा आप होता है, वैसा ही दूसरों को समझता है।

भैरों—तुम कहाँ के बड़े साधु हो। अभी आज ही लाठी चलाकर आए हो। मैं दो साल से देख रहा हूँ, मेरी घरवाली इससे आकर अकेले में घंटों बातें करती है। जगधार ने भी उसे यहाँ से रात को आते देखा है। आज ही, अभी, उसके पीछे मुझसे लड़ने को तैयार था।

नायकराम—सुभा होने की बात ही है। अंधा आदमी देवता थोड़े ही होता है, और फिर देवता लोग भी तो काम के तीर से नहीं बचे। सूरदास तो फिर भी आदमी है, और अभी उमर ही क्या है?

ठाकुरदीन—महाराज, क्यों अंधे के पीछे पड़े हुए हो। चलो, कुछ भजन-भाव हो।

नायकराम—तुम्हें भजन-भाव सूझता है, यहाँ एक भले आदमी की इज्जत का मुआमला आ पड़ा है। भैरों, हमारी एक बात मानो, तो कहें। तुम सुभागी को मारते बहुत हो, इससे उसका मन तुमसे नहीं मिलता। अभी दूसरे दिन बारी आती है, अब महीने में दो बार से ज्यादा न आने पाए।

भैरों देख रहा था कि मुझे लोग बना रहे हैं। तिनककर बोला—अपनी मेहरिया है, मारते-पीटते हैं, तो किसी का साझा है? जो घोड़ी पर कभी सवार ही नहीं हुआ, वह दूसरों को सवार होना क्या सिखाएगा? वह क्या जाने, औरत कैसे काबू में रहती है?

यह व्यंग नायकराम पर था, जिसका अभी तक विवाह नहीं हुआ था। घर में धन था, यजमानों की बदौलत किसी बात की चिंता न थी,. किंतु न जाने क्यों अभी तक उसका विवाह नहीं हुआ था। वह हजार-पाँच सौ रुपये से गम खाने को तैयार था; पर कहीं शिप्पा न जमता था। भैरों ने समझा था, नायकराम दिल में कट जाएँगे; मगर वह छँटा हुआ शहरी गुंडा ऐसे व्यंगों को कब धयान में लाता था। बोला—कहो बजरंगी इसका कुछ जवाब दो औरत कैसे बस में रहती है?

बजरंगी—मार-पीट से नन्हा-सा लड़का तो बस में आता नहीं, औरत क्या बस में आएगी।

भैरों—बस में आए औरत का बाप, औरत किस खेत की मूली है! मार से भूत भागता है।

बजरंगी—तो औरत भी भाग जाएगी, लेकिन काबू में न आएगी?

नायकराम—बहुत अच्छी कही बजरंगी, बहुत पक्की कही, वाह-वाह! मार से भूत भागता है, तो औरत भी भाग जाएगी। अब तो कट गई तुम्हारी बात?

भैरों—बात क्या कट जाएगी, दिल्लगी है? चूने को जितना ही कूटो, उतना ही चिमटता है।

जगधार—ये सब कहने की बातें हैं। औरत अपने मन से बस में आती है, और किसी तरह नहीं।

नायकराम—क्यों बजरंगी, नहीं है कोई जवाब?

ठाकुरदीन—पंडाजी, तुम दोनों को लड़ाकर तभी दम लोगे; बिचारे अपाहिज आदमी के पीछे पड़े हो।

नायकराम—तुम सूरदास को क्या समझते हो, यह देखने ही में इतने दुबले हैं। अभी हाथ मिलाओ, तो मालूम हो। भैरों, अगर इन्हें पछाड़ दो, तो पाँच रुपये इनाम दूँ।

भैरों—निकल जाओगे।

नायकराम—निकलनेवाले को कुछ कहता हूँ। यह देखो, ठाकुरदीन के हाथ में रखे देता हूँ।

जगधार—क्या ताकते हो भैरों, ले पड़ो।

सूरदास—मैं नहीं लड़ता।

नायकराम—सूरदास, देखो, नाम-हँसाई मत कराओ। मर्द होकर लड़ने से डरते हो? हार ही जाओगे या और कुछ!

सूरदास—लेकिन भाई, मैं पेंच-पाच नहीं जानता। पीछे से यह न कहना, हाथ क्यों पकड़ा। मैं जैसे चाहूँगा, वैसे लड़ूँगा।

जगधार—हाँ-हाँ, तुम जैसे चाहना, वैसे लड़ना।

सूरदास—अच्छा तो आओ, कौन आता है!

नायकराम—अंधे आदमी का जीवट देखना। चलो भैरों, आओ मैदान में।

भैरों—अंधे से क्या लड़ूँगा!

नायकराम—बस, इसी पर इतना अकड़ते थे?

जगधार—निकल आओ भैरों, एक झपट्टे में तो मार लोगे!

भैरों—तुम्हीं क्यों नहीं लड़ जाते, तुम्हीं इनाम ले लेना।

जगधार को रुपयों की नित्य चिंता रहती थी। परिवार बड़ा होने के कारण किसी तरह चूल न बैठती थी, घर में एक-न-एक चीज घटी ही रहती थी। धानोपार्जन के किसी उपाय को हाथ से न छोड़ना चाहता था। बोला—क्यों सूरे, हमसे लड़ोगे?

सूरदास—तुम्हीं आ जाओ, कोई सही।

जगधार—क्यों पंडाजी, इनाम दोगे न?

नायकराम—इनाम तो भैरों के लिए था, लेकिन कोई हरज नहीं! हाँ, शर्त यह है कि एक ही झपट्टे में गिरा दो।

जगधार ने धोती ऊपर चढ़ा ली और सूरदास से लिपट गया। सूरदास ने उसकी एक टाँग पकड़ ली और इतनी जोर से खींचा कि जगधार धाम से गिर पड़ा। चारों तरफ से तालियाँ बजने लगीं।

बजरंगी बोला—वाह, सूरदास, वाह! नायकराम ने दौड़कर उसकी पीठ ठोंकी।

भैरों—मुझे तो कहते थे, एक ही झपट्टे में गिरा दोगे, तुम कैसे गिर गए?

जगधार—सूरे ने टाँग पकड़ ली, नहीं तो क्या गिरा लेते। वह अड़ंगा मारता कि चारों खाने चित गिरते।

नायकराम—अच्छा, तो एक बाजी और हो जाए।

जगधार—हाँ-हाँ, अबकी देखना।

दोनों योध्दाओं में फिर मल्ल-युध्द होने लगा। सूरदास ने अबकी जगधार का हाथ पकड़कर इतने जोर से ऐंठा कि वह ‘आह! आह!’ करता हुआ जमीन पर बैठ गया। सूरदास ने तुरंत उसका हाथ छोड़ दिया और गरदन पकड़कर दोनों हाथों से ऐसा दबोचा कि जगधार की ऑंखें निकल आईं; नायकराम ने दौड़कर सूरदास को हटा लिया। बजरंगी ने जगधार को उठाकर बिठाया और हवा करने लगा।

भैरों ने बिगड़कर कहा—यह कोई कुश्ती है कि जहाँ पकड़ पाया, वहीं धार दबाया। यह तो गँवारों की लड़ाई है, कुश्ती थोड़े ही है।

नायकराम—यह बात तो पहले तय हो चुकी थी।

जगधार सँभलकर उठ बैठा और चुपके से सरक गया। भैरों भी उसके पीछे चलता हुआ। उनके जाने के बाद यहाँ खूब कहकहे उड़े, और सूरदास की खूब पीठ ठोंकी गई। सबको आश्चर्य हो रहा था कि सूरदास-जैसा दुर्बल आदमी जगधार-जैसे मोटे-ताजे आदमी को कैसे दबा बैठा। ठाकुरदीन यंत्र-मंत्र का कायल था। बोला—सूरे को किसी देवता का इष्ट है। हमें भी बताओ सूरे, कौन-सा मंत्र जगाया था?

सूरदास—सौ मंत्रों का मंत्र हिम्मत है। ये रुपये जगधार को दे देना, नहीं तो मेरी कुशल नहीं है!

ठाकुरदीन—रुपये क्यों दे दूँ, कोई लूट है? तुमने बाजी मारी है, तुमको मिलेंगे।

नायकराम—अच्छा सूरदास, ईमान से बता दो, सुभागी को किस मंत्र से बस में किया? अब तो यहाँ सब लोग अपने ही हैं, कोई दूसरा नहीं है। मैं भी कहीं कँपा लगाऊँ।

सूरदास ने करुण स्वर में कहा—पंडाजी, अगर तुम भी मुझसे ऐसी बातें करोगे, तो मैं मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाऊँगा। मैं पराई स्त्री को अपनी माता, बेटी, बहन समझता हूँ। जिस दिन मेरा मन इतना चंचल हो जाएगा, तुम मुझे जीता न देखोगे। यह कहकर सूरदास फूट-फूटकर रोने लगा। जरा देर में आवाज सँभालकर बोला—भैरों रोज उसे मारता है। बिचारी कभी-कभी मेरे पास आकर बैठ जाती है। मेरा अपराध इतना ही है कि मैं उसे दुतकार नहीं देता। इसके लिए चाहे कोई बदनाम करे, चाहे जो इलजाम लगाए, मेरा जो धरम था, वह मैंने किया। बदनामी के डर से जो आदमी धरम से मुँह फेर ले, वह आदमी नहीं है।

बजरंगी—तुम्हें हट जाना था, उसकी औरत थी, मारता चाहे पीटता, तुमसे मतलब?

सूरदास—भैया, ऑंखों देखकर रहा नहीं जाता, यह तो संसार का व्यवहार है; पर इतनी-सी बात पर कोई बड़ा कलंक तो नहीं लगा देता। मैं तुमसे सच कहता हूँ, आज मुझे जितना दु:ख हो रहा है, उतना दादा के मरने पर भी न हुआ था। मैं अपाहिज, दूसरों के टुकड़े खानेवाला और मुझ पर यह कलंक! (रोने लगा)

नायकराम—तो रोते क्यों हो भले आदमी, अंधे हो तो क्या मर्द नहीं हो? मुझे तो कोई यह कलंक लगाता, तो और खुश होता। ये हजारों आदमी जो तड़के गंगा-स्नान करने जाते हैं, वहाँ नजरबाजी के सिवा और क्या करते हैं! मंदिरों में इसके सिवा और क्या होता है! मेले-ठेलों में भी यही बहार रहती है। यही तो मरदों के काम हैं। अब सरकार के राज में लाठी-तलवार का तो कहीं नाम नहीं रहा, सारी मनुसाई इसी नजरबाजी में रह गई है। इसकी क्या चिंता! चलो भगवान का भजन हो, यह सब दु:ख दूर हो जाएगा।

बजरंगी को चिंता लगी हुई थी—आज की मार-पीट का न जाने क्या फल हो? कल पुलिस द्वार पर आ जाएगी। गुस्सा हराम होता है। नायकराम ने आश्वासन दिया—भले आदमी, पुलिस से क्या डरते हो? कहो, थानेदार को बुलाकर नचाऊँ, कहो इंस्पेक्टर को बुलाकर चपतियाऊँ। निश्चिंत बैठे रहो, कुछ न होने पाएगा। तुम्हारा बाल भी बाँका हो जाए, तो मेरा जिम्मा।

तीनों आदमी यहाँ से चले। दयागिरि पहले ही से इनकी राह देख रहे थे। कई गाड़ीवान और बनिए भी आ बैठे थे। जरा देर में भजन की तानें उठने लगीं। सूरदास अपनी चिंताओं को भूल गया, मस्त होकर गाने लगा। कभी भक्ति से विह्नल होकर नाचता, उछलने-कूदने लगता, कभी रोता, कभी हँसता। सभा विसर्जित हुई तो सभी प्राणी प्रसन्न थे, सबके हृदय निर्मल हो गए थे, मलिनता मिट गई थी, मानो किसी रमणीक स्थान की सैर करके आए हों। सूरदास तो मंदिर के चबूतरे ही पर लेटा और लोग अपने-अपने घर गए। किंतु थोड़ी ही देर बाद सूरदास को फिर उन्हीं चिंताओं ने आ घेरा—मैं क्या जानता था कि भैरों के मन में मेरी ओर से इतना मैल है, नहीं तो सुभागी को अपने झोंपड़े में आने ही क्यों देता। जो सुनेगा, वही मुझ पर थूकेगा। लोगों को ऐसी बातों पर कितनी जल्द विश्वास आ जाता है। मुहल्ले में कोई अपने दरवाजे पर खड़ा न होने देगा। ऊँह! भगवान् तो सबके मन की बात जानते हैं। आदमी का धरम है कि किसी को दु:ख में देखे, तो उसे तसल्ली दे। अगर अपना धरम पालने में भी कलंक लगता है, तो लगे, बला से। इसके लिए कहाँ तक रोऊँ? कभी-न-कभी तो लोगों को मेरे मन का हाल मालूम ही हो जाएगा।

किंतु जगधार और भैरों दोनों के मन में ईर्ष्‍या का फोड़ा पक रहा था। जगधार कहता था—मैंने तो समझा था, सहज में पाँच रुपये मिल जाएँगे, नहीं तो क्या कुत्तो ने काटा था कि उससे भिड़ने जाता? आदमी काहे का है, लोहा है।

भैरों—मैं उसकी ताकत की परीक्षा कर चुका हूँ। ठाकुरदीन सच कहता है, उसे किसी देवता का इष्ट है।

जगधार—इष्ट-विष्ट कुछ नहीं है, यह सब बेफिकरी है। हम-तुम गृहस्थी के जंजाल में फँसे हुए हैं, नोन-तेल-लकड़ी की चिंता सिर पर सवार रहती है, घाटे-नफे के फेर में पड़े रहते हैं। उसे कौन चिंता है? मजे से जो कुछ मिल जाता है, खाता है और मीठी नींद सोता है। हमको-तुमको रोटी-दाल भी दोनों जून नसीब नहीं होती है। उसे क्या कमी है, किसी ने चावल दिए, कहीं मिठाई पा गया, घी-दूध बजरंगी के घर से मिल ही जाता है। बल तो खाने से होता है।

भैरों—नहीं, यह बात नहीं। नसा खाने से बल का नास हो जाता है।

जगधार—कैसी उलटी बातें करते हो; ऐसा होता, तो फौज में गोरों को बारांडी क्यों पिलाई जाती? अंगरेज सभी शराब पीते हैं, तो क्या कमज़ोर होते हैं?

भैरों—आज सुभागी आती है, तो गला दबा देता हूँ।

जगधार—किसी के घर में छिपी बैठी होगी।

भैरों—अंधे ने मेरी आबरू बिगाड़ दी। बिरादरी में यह बात फैलेगी, तो हुक्का बंद हो जाएगा, भात देना पड़ जाएगा।

जगधार—तुम्हीं तो ढिंढोरा पीट रहे हो। यह नहीं, पटकनी खाई थी, तो चुपके से घर चले आते। सुभागी घर आती तो उससे समझते। तुम लगे वहीं दुहाई देने।

भैरों—इस अंधे को मैं ऐसा कपटी न समझता था, नहीं तो अब तक कभी उसका मजा चखा चुका होता। अब उस चुड़ैल को घर में न रखूँगा। चमार के हाथों यह बेआबरुई!

जगधार—अब इससे बड़ी और क्या बदनामी होगी, गला काटने का काम है।

भैरों—बस, यही मन में आता है कि चलकर गँड़ासा मारकर काम तमाम कर दूँ। लेकिन नहीं, मैं उसे खेला-खेलाकर मारूँगा। सुभागी का दोष नहीं। सारा तूफान इसी ऐबी अंधे का खड़ा किया हुआ है।

जगधार—दोष दोनों का है।

भैरों—लेकिन छेड़छाड़ तो पहले मर्द ही करता है। उससे तो अब मुझे कोई वास्ता नहीं रहा, जहाँ चाहे जाए, जैसे चाहे रहे। मुझे तो अब इसी अंधे से भुगतना है। सूरत से कैसा गरीब मालूम होता है, जैसे कुछ जानता ही नहीं, और मन में इतना कपट भरा हुआ है। भीख माँगते दिन जाते हैं, उस पर भी अभागे की ऑंखें नहीं खुलतीं। जगधार, इसने मेरा सिर नीचा कर दिया। मैं दूसरों पर हँसा करता था, अब जमाना मुझ पर हँसेगा। मुझे सबसे बड़ा मलाल तो यह है कि अभागिन गई भी, तो चमार के साथ गई। अगर किसी ऐसे आदमी के साथ जाती, जो जात-पाँत में, देखने-सुनने में, धन-दौलत में मुझसे बढ़कर होता, तो मुझे इतना रंज न होता। जो सुनेगा, अपने मन में यही कहेगा कि मैं इस अंधे से भी गया-बीता हूँ।

जगधार—औरतों का सुभाव कुछ समझ में नहीं आता; नहीं तो, कहाँ तुम और कहाँ वह अंधा। मुँह पर मक्खियाँ भिनका करती हैं, मालूम होता है, जूते खाकर आया है।

भैरों—और बेहया कितना बड़ा है! भीख माँगता है, अंधा है; पर जब देखो हँसता ही रहता है। मैंने उसे कभी रोते ही नहीं देखा।

जगधार—घर में रुपये गड़े हैं; रोए उसकी बला। भीख तो दिखाने की माँगता है।

भैरों—अब रोएगा। ऐसा रुलाऊँगा कि छठी का दूध याद आ जाएगा।

यों बातें करते हुए दोनों अपने-अपने घर गए। रात के दो बजे होंगे कि अकस्मात् सूरदास की झोंपड़ी से ज्वाला उठी। लोग अपने-अपने द्वारों पर सो रहे थे। निद्रावस्था में भी उपचेतना जागती रहती है। दम-के-दम में सैकड़ों आदमी जमा हो गए। आसमान पर लाली छाई हुई थी, ज्वालाएँ लपक-लपककर आकाश की ओर दौड़ने लगीं। कभी उनका आकार किसी मंदिर के स्वर्ण-कलश का-सा हो जाता था, कभी वे वायु के झोंकों से यों कम्पित होने लगती थीं, मानो जल में चाँद का प्रतिबिम्ब है। आग बुझाने का प्रयत्न किया जा रहा था; पर झोंपड़े की आग, ईर्ष्‍या की आग की भाँति कभी नहीं बुझती। कोई पानी ला रहा था, कोई यों ही शोर मचा रहा था; किंतु अधिकांश लोग चुपचाप खड़े नैराश्यपूर्ण दृष्टि से अग्निदाह को देख रहे थे, मानो किसी मित्र की चिताग्नि है।

सहसा सूरदास दौड़ा हुआ आया और चुपचाप ज्वाला के प्रकाश में खड़ा हो गया।

बजरंगी ने पूछा—यह कैसे लगी सूरे, चूल्हे में तो आग नहीं छोड़ दी थी?

सूरदास—झोंपड़े में जाने का कोई रास्ता ही नहीं है?

बजरंगी—अब तो अंदर-बाहर सब एक हो गया है। दीवारें जल रही हैं।

सूरदास—किसी तरह नहीं जा सकता?

बजरंगी—कैसे जाओगे? देखते नहीं हो, यहाँ तक लपटें आ रही हैं!

जगधार—सूरे, क्या आज चूल्हा ठंडा नहीं किया था?

नायकराम—चूल्हा ठंडा किया होता, तो दुसमनों का कलेजा कैसे ठंडा होता।

जगधार—पंडाजी, मेरा लड़का काम न आए, अगर मुझे कुछ भी मालूम हो। तुम मुझ पर नाहक सुभा करते हो।

नायकराम—मैं जानता हूँ जिसने लगाई है। बिगाड़ न दूँ, तो कहना।

ठाकुरदीन—तुम क्या बिगाड़ोगे, भगवान आप ही बिगाड़ देंगे। इसी तरह जब मेरे घर में चोरी हुई थी, तो सब स्वाहा हो गया।

जगधार—जिसके मन में इतनी खुटाई हो, भगवान उसका सत्यानाश कर दें।

सूरदास—अब तो लपट नहीं आती।

बजरंगी—हाँ, फूस जल गया, अब धारन जल रही है।

सूरदास—अब तो अंदर जा सकता हूँ?

नायकराम—अंदर तो जा सकते हो; पर बाहर नहीं निकल सकते। अब चलो आराम से सो रहो; जो होना था, हो गया। पछताने से क्या होगा?

सूरदास—हाँ, सो रहूँगा, जल्दी क्या है।

थोड़ी देर में रही-सही आग भी बुझ गई। कुशल यह हुई कि और किसी के घर में आग न लगी। सब लोग इस दुर्घटना पर आलोचनाएँ करते हुए विदा हुए। सन्नाटा छा गया। किंतु सूरदास अब भी वहीं बैठा हुआ था। उसे झोंपड़े के जल जाने का दु:ख न था, बरतन आदि के जल जाने का भी दु:ख न था; दु:ख था उस पोटली का, जो उसकी उम्र-भर की कमाई थी, जो उसके जीवन की सारी आशाओं का आधार थी, जो उसकी सारी यातनाओं और रचनाओं का निष्कर्ष थी। इस छोटी-सी पोटली में उसका, उसके पितरों का और उसके नामलेवा का उध्दार संचित था। यही उसके लोक और परलोक, उसकी दीन-दुनिया का आशा-दीपक थी। उसने सोचा—पोटली के साथ रुपये थोड़े ही जल गए होंगे? अगर रुपये पिघल भी गए होंगे, तो चाँदी कहाँ जाएगी? क्या जानता था कि आज यह विपत्ति आनेवाली है, नहीं तो यहीं न सोता। पहले तो कोई झोंपड़ी के पास आता ही न; और अगर आग लगाता भी, तो पोटली को पहले ही निकाल लेता। सच तो यों है कि मुझे यहाँ रुपये रखने ही न चाहिए थे। पर रखता कहाँ? मुहल्ले में ऐसा कौन है, जिसे रखने को देता? हाय! पूरे पाँच सौ रुपये थे, कुछ पैसे ऊपर हो गए थे। क्या इसी दिन के लिए पैसे-पैसे बटोर रहा था? खा लिया होता, तो कुछ तस्कीन होती। क्या सोचता था और क्या हुआ! गया जाकर पितरों को पिंडा देने का इरादा किया था। अब उनसे कैसे गला छूटेगा? सोचता था, कहीं मिठुआ की सगाई ठहर जाए, तो कर डालूँ। बहू घर में आ जाय, तो एक रोटी खाने को मिले! अपने हाथों ठोंक-ठोंककर खाते एक जुग बीत गया। बड़ी भूल हुई। चाहिए था कि जैसे-जैसे हाथ में रुपये आते, एक-एक काम पूरा करता जाता। बहुत पाँव फैलाने का यही फल है!

उस समय तक राख ठंडी हो चुकी थी। सूरदास अटकल से द्वार की ओर झोंपड़े में घुसा; पर दो-तीन पग के बाद एकाएक पाँव भूबल में पड़ गया। ऊपर राख थी, लेकिन नीचे आग। तुरंत पाँव खींच लिया और अपनी लकड़ी से राख को उलटने-पलटने लगा, जिससे नीचे की आग भी जल्द राख हो जाए। आधा घंटे में उसने सारी राख नीचे से ऊपर कर दी, और तब फिर डरते-डरते राख में पैर रखा। राख गरम थी, पर असह्य न थी। उसने उसी जगह की सीधा में राख को टटोलना शुरू किया, जहाँ छप्पर में पोटली रखी थी। उसका दिल धड़क रहा था। उसे विश्वास था कि रुपये मिलें या न मिलें, पर चाँदी तो कहीं गई ही नहीं। सहसा वह उछल पड़ा, कोई भारी चीज हाथ लगी। उठा लिया; पर टटोलकर देखा, तो मालूम हुआ ईंट का टुकड़ा है। फिर टटोलने लगा, जैसे कोई आदमी पानी में मछलियाँ टटोले। कोई चीज हाथ न लगी। तब तो उसने नैराश्य की उतावली और अधीरता के साथ सारी राख छान डाली। एक-एक मुट्ठी राख हाथ में लेकर देखी। लोटा मिला, तवा मिला, किंतु पोटली न मिली। उसका वह पैर, जो अब तक सीढ़ी पर था, फिसल गया और अब वह अथाह गहराई में जा पड़ा। उसके मुख से सहसा एक चीख निकल आई। वह वहीं राख पर बैठ गया और बिलख-बिलखकर रोने लगा। यह फूस की राख न थी, उसकी अभिलाषाओं की राख थी। अपनी बेबसी का इतना दु:ख उसे कभी न हुआ था।

तड़का हो गया, सूरदास अब राख के ढेर को बटोरकर एक जगह कर रहा था। आशा से ज्यादा दीर्घजीवी और कोई वस्तु नहीं होती।

उसी समय जगधार आकर बोला—सूरे, सच कहना, तुम्हें मुझ पर तो सुभा नहीं है?

सूरे को सुभा तो था, पर उसने इसे छिपाकर कहा—तुम्हारे ऊपर क्यों सुभा करूँगा? तुमसे मेरी कौन-सी अदावत थी?

जगधार—मुहल्लेवाले तुम्हें भड़काएँगे, पर मैं भगवान से कहता हूँ, मैं इस बारे में कुछ नहीं जानता।

सूरदास—अब तो जो कुछ होना था, हो चुका। कौन जाने, किसी ने लगा दी, या किसी की चिलम से उड़कर लग गई? यह भी तो हो सकता है कि चूल्हे में आग रह गई हो। बिना जाने-बूझे किस पर सुभा करूँ?

जगधार—इसी से तुम्हें चिता दिया कि कहीं सुभे में मैं भी न मारा जाऊँ।

सूरदास—तुम्हारी तरफ से मेरा दिल साफ है।

जगधार को भैरों की बातों से अब यह विश्वास हो गया कि उसी की शरारत है। उसने सूरदास को रुलाने की बात कही थी। उस धमकी को इस तरह पूरा किया। वह वहाँ से सीधो भैरों के पास गया। वह चुपचाप बैठा नारियल का हुक्का पी रहा था, पर मुख से चिंता और घबराहट झलक रही थी। जगधार को देखते ही बोला—कुछ सुना; लोग क्या बातचीत कर रहे हैं?

जगधार—सब लोग तुम्हारे ऊपर सुभा करते हैं। नायकराम की धमकी तो तुमने अपने कानों से सुनी।

भैरों—यहाँ ऐसी धमकियों की परवा नहीं है। सबूत क्या है कि मैंने लगाई?

जगधार—सच कहो, तुम्हीं ने लगाई?

भैरों—हाँ, चुपके से एक दियासलाई लगा दी।

जगधार—मैं कुछ-कुछ पहले ही समझ गया था; पर यह तुमने बुरा किया। झोंपड़ी जलाने से क्या मिला? दो-चार दिन में फिर दूसरी झोंपड़ी तैयार हो जाएगी।

भैरों—कुछ हो, दिल की आग तो ठंडी हो गई! यह देखो!

यह कहकर उसने एक थैली दिखाई, जिसका रंग धुएँ से काला हो गया था। जगधार ने उत्सुक होकर पूछा-इसमें क्या है? अरे! इसमें तो रुपये भरे हुए हैं।

भैरों—यह सुभागी को बहका ले जाने का जरीबाना है।

जगधार—सच बताओ, ये रुपये कहाँ मिले?

भैरों—उसी झोंपड़े में। बड़े जतन से धारन की आड़ में रखे हुए थे। पाजी रोज राहगीरों को ठग-ठगकर पैसे लाता था, और इसी थैली में रखता था। मैंने गिने हैं। पाँच सौ से ऊपर हैं। न जाने कैसे इतने रुपये जमा हो गए! बचा को इन्हीं रुपयों की गरमी थी। अब गरमी निकल गई। अब देखूँ किस बल पर उछलते हैं। बिरादरी को भोज-भात देने का सामान हो गया। नहीं तो, इस बखत रुपये कहाँ मिलते? आजकल तो देखते ही हो, बल्लमटेरों के मारे बिकरी कितनी मंदी है।

जगधार—मेरी तो सलाह है कि रुपये उसे लौटा दो। बड़ी मसक्कत की कमाई है। हजम न होगी।

जगधार दिल का खोटा आदमी नहीं था; पर इस समय उसने यह सलाह उसे नेकनीयती से नहीं, हसद से दी थी। उसे यह असह्य था कि भैरों के हाथ इतने रुपये लग जाएँ। भैरों आधे रुपये उसे देता, तो शायद उसे तस्कीन हो जाती; पर भैरों से यह आशा न की जा सकती थी। बेपरवाही से बोला—मुझे अच्छी तरह हजम हो जाएगी। हाथ में आए हुए रुपये को नहीं लौटा सकता। उसने तो भीख ही माँगकर जमा किए हैं, गेहूँ तो नहीं तौला था।

जगधार—पुलिस सब खा जाएगी।

भैरों—सूरे पुलिस में न जाएगा। रो-धोकर चुप हो जाएगा।

जगधार—गरीब की हाय बड़ी जान-लेवा होती है।

भैरों—वह गरीब है! अंधा होने से ही गरीब हो गया? जो आदमी दूसरों की औरतों पर डोरे डाले, जिसके पास सैकड़ों रुपये जमा हों, जो दूसरों को रुपये उधार देता हो, वह गरीब है? गरीब जो कहो, तो हम-तुम हैं। घर में ढूँढ़ आओ, एक पूरा रुपया न निकलेगा। ऐसे पापियों को गरीब नहीं कहते। अब भी मेरे दिल का काँटा नहीं निकला। जब तक उसे रोते न देखूँगा, यह काँटा न निकलेगा। जिसने मेरी आबरू बिगाड़ दी, उसके साथ जो चाहे करूँ, मुझे पाप नहीं लग सकता।

जगधार का मन आज खोंचा लेकर गलियों का चक्कर लगाने में न लगा। छाती पर साँप लोट रहा था—इसे दम-के-दम में इतने रुपये मिल गए, अब मौज उड़ाएगा। तकदीर इस तरह खुलती है। यहाँ कभी पड़ा हुआ पैसा भी न मिला। पाप-पुन्न की कोई बात नहीं। मैं ही कौन दिन-भर पुन्न किया करता हूँ? दमड़ी-छदाम-कौड़ियों के लिए टेनी मारता हूँ! बाट खोटे रखता हूँ, तेल की मिठाई को घी की कहकर बेचता हूँ। ईमान गँवाने पर भी कुछ नहीं लगता। जानता हूँ, यह बुरा काम है; पर बाल-बचों को पालना भी तो जरूरी है। इसने ईमान खोया, तो कुछ लेकर खोया, गुनाह बेलज्जत नहीं रहा। अब दो-तीन दूकानों का और ठेका ले लेगा। ऐसा ही कोई माल मेरे हाथ भी पड़ जाता, तो जिंदगानी सुफल हो जाती।

जगधार के मन में ईर्ष्‍या का अंकुर जमा। वह भैरों के घर से लौटा तो देखा कि सूरदास राख को बटोरकर उसे आटे की भाँति गूँधा रहा है। सारा शरीर भस्म से ढका हुआ है और पसीने की धारें निकल रही हैं। बोला—सूरे, क्या ढूँढ़ते हो?

सूरदास—कुछ नहीं। यहाँ रखा ही क्या था! यही लोटा-तवा देख रहा था।

जगधार—और वह थैली किसकी है, जो भैरों के पास है?

सूरदास चौंका। क्या इसीलिए भैरों आया था? जरूर यही बात है। घर में आग लगाने के पहले रुपये निकाल लिए होंगे।

लेकिन अंधे भिखारी के लिए दरिद्रता इतनी लज्जा की बात नहीं है, जितना धन। सूरदास जगधार से अपनी आर्थिक हानि को गुप्त रखना चाहता था। वह गया जाकर पिंड दान करना चाहता था, मिठुआ का ब्याह करना चाहता था, कुऑं बनवाना चाहता था; किंतु इस ढंग से कि लोगों को आश्चर्य हो कि इसके पास रुपये कहाँ से आए, लोग यही समझें कि भगवान् दीन जनों की सहायता करते हैं। भिखारियों के लिए धन-संचय पाप-संचय से कम अपमान की बात नहीं है। बोला—मेरे पास थैली-वैली कहाँ? होगी किसी की। थैली होती, तो भीख माँगता?

जगधार—मुझसे उड़ते हो? भैरों मुझसे स्वयं कह रहा था कि झोंपड़े में धारन के ऊपर यह थैली मिली। पाँच सौ रुपये से कुछ बेसी हैं।

सूरदास—वह तुमसे हँसी करता होगा। साढ़े पाँच रुपये तो कभी जुड़े ही नहीं, साढ़े पाँच सौ कहाँ से आते!

इतने में सुभागी वहाँ आ पहुँची। रात-भर मंदिर के पिछवाड़े अमरूद के बाग में छिपी बैठी थी। वह जानती थी, आग भैरों ने लगाई है। भैरों ने उस पर जो कलंक लगाया था, उसकी उसे विशेष चिंता न थी, क्योंकि वह जानती थी किसी को इस पर विश्वास न आएगा। लेकिन मेरे कारण सूरदास का यों सर्वनाश हो जाए, इसका उसे बड़ा दु:ख था। वह इस समय उसको तस्कीन देने आई थी। जगधार को वहाँ खड़े देखा, तो झिझकी। भय हुआ, कहीं यह मुझे पकड़ न ले। जगधार को वह भैरों ही का दूसरा अवतार समझती थी। उसने प्रण कर लिया था कि अब भैरों के घर न जाऊँगी, अलग रहूँगी और मेहनत-मजूरी करके जीवन का निर्वाह करूँगी। यहाँ कौन लड़के रो रहे हैं, एक मेरा ही पेट उसे भारी है न? अब अकेले ठोंके और खाए, और बुढ़िया के चरण धो-धोकर पिए, मुझसे तो यह नहीं हो सकता। इतने दिन हुए, इसने कभी अपने मन से धोले का सेंदुर भी न दिया होगा, तो मैं क्यों उसके लिए मरूँ?

वह पीछे लौटना ही चाहती थी कि जगधार ने पुकारा—सुभागी, कहाँ जाती है? देखी अपने खसम की करतूत, बेचारे सूरदास को कहीं का न रखा।

सुभागी ने समझा, मुझे झाँसा दे रहा है। मेरे पेट की थाह लेने के लिए यह जाल फेंका है। व्यंग से बोली—उसके गुरु तो तुम्हीं हो, तुम्हीं ने मंत्र दिया होगा।

जगधार—हाँ, यही मेरा काम है, चोरी-डाका न सिखाऊँ, तो रोटियाँ क्योंकर चलें!

सुभागी ने फिर व्यंग किया—रात ताड़ी पीने को नहीं मिली क्या?

जगधार—ताड़ी के बदले क्या अपना ईमान बेच दूँगा? जब तक समझता था, भला आदमी है, साथ बैठता था, हँसता-बोलता था, ताड़ी भी पी लेता था, कुछ ताड़ी के लालच से नहीं जाता था (क्या कहना है, आप ऐेसे धार्मात्मा तो हैं!); लेकिन आज से कभी उसके पास बैठते देखा, तो कान पकड़ लेना। जो आदमी दूसरों के घर में आग लगाए, गरीबों के रुपये चुरा ले जाए, वह अगर मेरा बेटा भी हो तो उसकी सूरत न देखूँ। सूरदास ने न जाने कितने जतन से पाँच सौ रुपये बटोरे थे। वह सब उड़ा ले गया। कहता हूँ, लौटा दो, तो लड़ने पर तैयार होता है।

सूरदास—फिर वही रट लगाए जाते हो। कह दिया कि मेरे पास रुपये नहीं थे, कहीं और जगह से मार लाया होगा; मेरे पास पाँच सौ रुपये होते, तो चैन की बंसी न बजाता, दूसरों के सामने हाथ क्यों पसारता?

जगधार—सूरे, अगर तुम भरी गंगा में कहो कि मेरे रुपये नहीं है, तो मैं न मानूँगा। मैंने अपनी ऑंखों से वह थैली देखी है। भैरों ने अपने मुँह से कहा है कि यह थैली झोंपड़े में धारन के ऊपर मिली। तुम्हारे बात कैसे मान लूँ?

सुभागी—तुमने थैली देखी है?

जगधार—हाँ, देखी नहीं तो क्या झूठ बोल रहा हूँ?

सुभागी—सूरदास, सच-सच बता दो, रुपये तुम्हारे हैं!

सूरदास—पागल हो गई है क्या? इनकी बातों में आ जाती है! भला मेरे पास रुपये कहाँ से आते?

जगधार—इनसे पूछ, रुपये न थे, तो इस घड़ी राख बटोरकर क्या ढूँढ़ रहे थे?

सुभागी ने सूरदास के चेहरे की तरफ अन्वेषण की दृष्टि से देखा। उसकी उस बीमार की-सी दशा थी, जो अपने प्रियजनों की तस्कीन के लिए अपनी असह्य वेदना को छिपाने का असफल प्रयत्न कर रहा हो। जगधार के निकट आकर बोली—रुपये जरूर थे, इसका चेहरा कहे देता है।

जगधार—मैंने थैली अपनी ऑंखों से देखी है।

सुभागी—अब चाहे वह मुझे मारे या निकाले, पर रहूँगी उसी के घर। कहाँ-कहाँ थैली को छिपाएगा? कभी तो मेरे हाथ लगेगी। मेरे ही कारण इस पर यह बिपत पड़ी है। मैंने ही उजाड़ा है मैं ही बसाऊँगी। जब तक इसके रुपये न दिला दूँगी, मुझे चैन न आएगी।

यह कहकर वह सूरदास से बोली—तो अब रहोगे कहाँ?

सूरदास ने यह बात न सुनी। वह सोच रहा था—रुपये मैंने ही तो कमाए थे, क्या फिर नहीं कमा सकता? यही न होगा, जो काम इस साल होता, वह कुछ दिनों के बाद होगा। मेरे रुपये थे ही नहीं, शायद उस जन्म में मैंने भैरों के रुपये चुराए होंगे। यह उसी का दंड मिला है। मगर बिचारी सुभागी का अब क्या हाल होगा? भैरों उसे अपने घर में कभी न रखेगा। बिचारी कहाँ मारी-मारी फिरेगी! यह कलंक भी मेरे सिर लगना था। कहीं का न हुआ। धन गया, घर गया, आबरू गई; जमीन बच रही है, यह भी न जाने, जाएगी या बचेगी। अंधापन ही क्या थोड़ी बिपत थी कि नित ही एक-न-एक चपत पड़ती रहती है। जिसके जी में आता है, चार खोटी-खरी सुना देता है।

इन दु:खजनक विचारों से मर्माहत-सा होकर वह रोने लगा। सुभागी जगधार के साथ भैरों के घर की ओर चली जा रही थी और यहाँ सूरदास अकेला बैठा हुआ रो रहा था।

सहसा वह चौंक पड़ा। किसी ओर से आवाज आई—तुम खेल में रोते हो!

मिठुआ घीसू के घर से रोता चला आता था, शायद घीसू ने मारा था। इस पर घीसू उसे चिढ़ा रहा था—खेल में रोते हो!

सूरदास कहाँ तो नैराश्य, ग्लानि, चिंता और क्षोभ के अपार जल में गोते खा रहा था, कहाँ यह चेतावनी सुनते ही उसे ऐसा मालूम हुआ, किसी ने उसका हाथ पकड़कर किनारे पर खड़ा कर दिया। वाह! मैं तो खेल में रोता हूँ। कितनी बुरी बात है! लड़के भी खेल में रोना बुरा समझते हैं, रोनेवाले को चिढ़ाते हैं, और मैं खेल में रोता हूँ। सच्चे खिलाड़ी कभी रोते नहीं, बाजी-पर-बाजी हारते हैं, चोट-पर-चोट खाते हैं, धक्के-पर-धक्के सहते हैं; पर मैदान में डटे रहते हैं, उनकी त्योरियों पर बल नहीं पड़ते। हिम्मत उनका साथ नहीं छोड़ती, दिल पर मालिन्य के छींटे भी नहीं आते, न किसी से जलते हैं, न चिढ़ते हैं। खेल में रोना कैसा? खेल हँसने के लिए, दिल बहलाने के लिए है, रोने के लिए नहीं।

सूरदास उठ खड़ा हुआ, और विजय-गर्व की तरंग में राख के ढेर को दोनों हाथों से उड़ाने लगा।

आवेग में हम उद्दिष्ट स्थान से आगे निकल जाते हैं। वह संयम कहाँ है, जो शत्रु पर विजय पाने के बाद तलवार को म्यान में कर ले?

एक क्षण में मिठुआ, घीसू और मुहल्ले के बीसों लड़के आकर इस भस्म-स्तूप के चारों ओर जमा हो गए और मारे प्रश्नों के सूरदास को परेशान कर दिया। उसे राख फेंकते देखकर सबों को खेल हाथ आया। राख की वर्षा होने लगी। दम-के-दम में सारी राख बिखर गई, भूमि पर केवल काला निशान रह गया।

मिठुआ ने पूछा—दादा, अब हम रहेंगे कहाँ?

सूरदास—दूसरा घर बनाएँगे।

मिठुआ—और कोई फिर आग लगा दे?

सूरदास—तो फिर बनाएँगे।

मिठुआ—और फिर लगा दे?

सूरदास—तो हम भी फिर बनाएँगे।

मिठुआ—और कोई हजार बार लगा दे?

सूरदास—तो हम हजार बार बनाएँगे।

बालकों को संख्याओं से विशेष रुचि होती है। मिठुआ ने फिर पूछा—और जो कोई सौ लाख बार लगा दे?

सूरदास ने उसी बालोचित सरलता से उत्तर दिया—तो हम भी सौ लाख बार बनाएँगे।

जब वहाँ राख की चुटकी भी न रही, तो सब लड़के किसी दूसरे खेल की तलाश में दौड़े। दिन अच्छी तरह निकल आया था। सूरदास ने भी लकड़ी सँभाली और सड़क की तरफ चला। उधार जगधार वहाँ से नायकराम के पास गया; और यहाँ भी यह वृत्तांत सुनाया। पंडा ने कहा—मैं भैरों के बाप से रुपये वसूल करूँगा, जाता कहाँ है, उसकी हडिडयों से रुपये निकालकर दम लूँगा, अंधा अपने मुँह से चाहे कुछ कहे या न कहे।

जगधार वहाँ से बजरंगी, दयागिरि, ठाकुरदीन आदि मुहल्ले के सब छोटे-बड़े आदमियों से मिला और यह कथा सुनाई। आवश्यकतानुसार यथार्थ घटना में नमक-मिर्च भी लगाता जाता था। सारा मुहल्ला भैरों का दुश्मन हो गया।

सूरदास तो सड़क के किनारे राहगीरों की जय मना रहा था, यहाँ मुहल्लेवालों ने उसकी झोंपड़ी बसानी शुरू की। किसी ने फूस दिया, किसी ने बाँस दिए, किसी ने धारन दी, कई आदमी झोंपड़ी बनाने में लग गए। जगधार ही इस संगठन का प्रधान मंत्री था। अपने जीवन में शायद ही उसने इतना सदुत्साह दिखाया हो। ईर्ष्‍या में तम-ही-तम नहीं होता, कुछ सत् भी होता है। संध्‍या तक झोंपड़ी तैयार हो गई, पहले से कहीं ज्यादा बड़ी और पायदार। जमुनी ने मिट्टी के दो घड़े और दो-तीन हाँड़ियाँ लाकर रख दीं। एक चूल्हा भी बना दिया। सबने गुट कर रखा था कि सूरदास को झोंपड़ी बनने की जरा भी खबर न हो। जब वह शाम को आए, तो घर देखकर चकित हो जाए, और पूछने लगे, किसने बनाई, तब सब लोग कहें, आप-ही-आप तैयार हो गई।