रंगभूमि: अध्याय 14
सोफ़िया को होश आया तो वह अपने कमरे में चारपाई पर पड़ी हुई थी। कानों में रानी के अंतिम शब्द गूँज रहे थे—क्या यही सत्य की मीमांसा है? वह अपने को इस समय इतनी नीच समझ रही थी कि घर का मेहतर भी उसे गालियाँ देता, तो शायद सिर न उठाती। वह वासना के हाथों में इतनी परास्त हो चुकी थी कि अब उसे अपने सँभलने की कोई आशा न दिखाई देती थी। उसे भय होता था कि मेरा मन मुझसे वह सब कुछ करा सकता है, जिसकी कल्पना-मात्र से मनुष्य का सिर लज्जा से झुक जाता है। मैं दूसरों पर कितना हँसती थी, अपनी धार्मिक प्रवृत्ति पर कितना अभिमान करती थी, मैं पुनर्जन्म और मुक्ति, पुरुष और प्रकृति जैसे गहन विषयों पर विचार करती थी, और दूसरों को इच्छा तथा स्वार्थ का दास समझकर उनका अनादर करती थी। मैं समझती थी, परमात्मा के समीप पहुँच गई हूँ, संसार की उपेक्षा करके अपने को जीवनमुक्त समझ रही थी; पर आज मेरी सद्भक्ति का परदाफाश हो गया। आह! विनय को ये बातें मालूम होंगी, तो वह अपने मन में क्या समझेंगे? कदाचित् मैं उनकी निगाहों में इतनी गिर जाऊँगी कि वह मुझसे बोलना भी पसंद न करें। मैं अभागिनी हूँ, मैंने उन्हें बदनाम किया,अपने कुल को कलंकित किया, अपनी आत्मा की हत्या की, अपने आश्रयदाताओं की उदारता को कलुषित किया। मेरे कारण धर्म भी बदनाम हो गया, नहीं तो क्या आज मुझसे यह पूछा जाता—क्या यही सत्य की मीमांसा है?
उसने सिरहाने की ओर देखा। अलमारियों पर धर्म-ग्रंथ सजे हुए रखे थे। उन ग्रंथों की ओर ताकने की हिम्मत न पड़ी। यही मेरे स्वाध्याय का फल है! मैं सत्य की मीमांसा करने चली थी और इस बुरी तरह गिरी कि अब उठना कठिन है।
सामने दीवार पर बुध्द भगवान् का चित्र लटक रहा था। उनके मुख पर कितना तेज था! सोफ़िया की ऑंखें झुक गईं। उनकी ओर ताकते हुए उसे लज्जा आती थी। बुध्द के अमरत्व का उसे कभी इतना पूर्ण विश्वास न हुआ था। अंधकार में लकड़ी का कुंदा भी सजीव हो जाता है। सोफी के हृदय पर ऐसा ही अंधकार छाया हुआ था।
अभी नौ बजे का समय था, पर सोफ़िया को भ्रम हो रहा था कि संध्या हो रही है। वह सोचती थी—क्या मैं सारे दिन सोती रह गई, किसी ने मुझे जगाया भी नहीं! कोई क्यों जगाने लगा? यहाँ अब मेरी परवा किसे है, और क्यों हो! मैं कुलक्षणा हूँ, मेरी जात से किसी का उपकार न होगा, जहाँ रहूँगी, वहीं आग लगाऊँगी। मैंने बुरी साइत में इस घर में पाँव रखे थे। मेरे हाथों यह घर वीरान हो जाएगा, मैं विनय को अपने साथ डूबो दूँगी, माता का शाप अवश्य पड़ेगा। भगवन्, आज मेरे मन में ऐसे विचार क्यों आ रहे हैं?
सहसा मिसेज सेवक कमरे में दाखिल हुईं। उन्हें देखते ही सोफ़िया को अपने हृदय में एक जलोद्गार-सा उठता हुआ जान पड़ा। वह दौड़कर माता के गले से लिपट गई। यही अब उसका अंतिम आश्रय था। यहीं अब उसे वह सहानुभूति मिल सकती थी, जिसके बिना उसका जीना दूभर था; यहीं अब उसे वह विश्राम, वह शांति, वह छाया मिल सकती थी, जिसके लिए उसकी संतप्त आत्मा तड़प रही थी। माता की गोद के सिवा यह सुख-स्वर्ग और कहाँ है? माता के सिवा कौन उसे छाती से लगा सकता है, कौन उसके दिल पर मरहम रख सकता है? माँ के कटु शब्द और उसका निष्ठुर व्यवहार, सब कुछ इस सुख-लालसा के आवेग में विलुप्त हो गया। उसे ऐसा जान पड़ा, ईश्वर ने मेरी दीनता पर तरस खाकर मामा को यहाँ भेजा है। माता की गोद में अपना व्यथित मस्तक रखकर एक बार फिर उसे बल और धैर्य का अनुभव हुआ, जिसकी याद अभी तक दिल से न मिटी थी। वह फूट-फूट रोने लगी। लेकिन माता की ऑंखों में ऑंसू न थे। वह तो मिस्टर क्लार्क के निमंत्रण का सुख-सम्वाद सुनाने के लिए अधीर हो रही थीं। ज्यों ही सोफ़िया के ऑंसू थमे, मिसेज़ सेवक ने कहा—आज तुम्हें मेरे साथ चलना होगा। मिस्टर क्लार्क ने तुम्हें अपने यहाँ निमंत्रित किया है।
सोफ़िया ने उत्तर न दिया। उसे माता की यह बात भद्दी मालूम हुई।
मिसेज़ सेवक ने फिर कहा—जब से तुम यहाँ आई हो, वह कई बार तुम्हारा कुशल-समाचार पूछ चुके हैं। जब मिलते हैं, तुम्हारी चर्चा जरूर करते हैं। ऐसा सज्जन सिविलियन मैंने नहीं देखा। उनका विवाह किसी अंगरेज के खानदान में हो सकता है, और यह तुम्हारा सौभाग्य है कि वह अभी तक तुम्हें याद करते हैं।
सोफ़िया ने घृणा से मुँह फेर लिया। माता की सम्मान-लोलुपता असह्य थी। न मुहब्बत की बातें हैं, न आश्वासन के शब्द, न ममता के उद्गार। कदाचित् प्रभु मसीह ने भी निमंत्रित किया होता, तो वह इतनी प्रसन्न न होती।
मिसेज़ सेवक बोलीं—अब तुम्हें इनकार न करना चाहिए। विलम्ब से प्रेम ठंडा हो जाता है और फिर उस पर कोई चोट नहीं पड़ सकती। ऐसा स्वर्ण-सुयोग फिर न हाथ आएगा, एक विद्वान् ने कहा है—प्रत्येक प्राणी को जीवन में केवल एक बार अपने भाग्य की परीक्षा का अवसर मिलता है, और वही भविष्य का निर्णय कर देता है। तुम्हारे जीवन में यह वही अवसर है। इसे छोड़ दिया, तो फिर हमेशा पछताओगी।
सोफ़िया ने व्यथित होकर कहा—अगर मिस्टर क्लार्क ने मुझे निमंत्रित न किया होता, तो शायद आप मुझे याद भी न करतीं?
मिसेज़ सेवक ने अवरुध्द कंठ से कहा—मेरे मन में जो कुछ है, वह तो ईश्वर ही जानता है; पर ऐसा कोई दिन नहीं जाता कि मैं तुम्हारे और प्रभु के लिए ईश्वर से प्रार्थना न करती होऊँ। यह उन्हीं प्रार्थनाओं का शुभ फल है कि तुम्हें यह अवसर मिला है।
यह कहकर मिसेज़ सेवक जाह्नवी से मिलने गईं। रानी ने उनका विशेष आदर न किया। अपनी जगह पर बैठे-बैठे बोलीं—आपके दर्शन तो बहुत दिनों के बाद हुए।
मिसेज़ सेवक ने सूखी हँसी हँसकर कहा—अभी मेरी वापसी की मुलाकात आपके जिम्मे बाकी है।
रानी—आप मुझसे मिलने आईं ही कब? पहले भी सोफ़िया से मिलने आई थीं, और आज भी। मैं तो आज आपको एक खत लिखनेवाली थी,अगर बुरा न मानिए तो एक बात पूछूँ?
मिसेज़ सेवक—पूछिए, बुरा क्यों मानूँगी।
रानी—मिस सोफ़िया की उम्र तो ज्यादा हो गई, आपने उसकी शादी की कोई फिक्र की या नहीं? अब तो उसका जितनी जल्दी विवाह हो जाए, उतना ही अच्छा। आप लोगों में लड़कियाँ बहुत सयानी होने पर ब्याही जाती हैं।
मिसेज़ सेवक—इसकी शादी कब की हो गई होती, कई अंगरेज बेतरह पीछे पड़े, लेकिन यह राजी ही नहीं होती। इसे धर्म-ग्रंथों से इतनी रुचि है कि विवाह को जंजाल समझती है। आजकल जिलाधीश मिस्टर क्लार्क के पैगाम आ रहे हैं। देखूँ, अब भी राजी होती है या नहीं। आज मैं उसे ले जाने ही के इरादे से आई हूँ। मैं हिंदुस्तानी ईसाइयों से नाते नहीं जोड़ना चाहती। उनका रहन-सहन मुझे पसंद नहीं है, और सोफी जैसी सुशिक्षिता लड़की के लिए कोई अंगरेज पति मिलने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती।
जाह्नवी—मेरे विचार में विवाह सदैव अपने स्वजातियों में करना चाहिए। योरपियन लोग हिंदुस्तानी ईसाइयों का बहुत आदर नहीं करते, और अनमेल विवाहों का परिणाम अच्छा नहीं होता।
मिसेज़ सेवक—(गर्व के साथ) ऐसा कोई योरपियन नहीं है, जो मेरे खानदान में विवाह करना मर्यादा के विरुध्द समझे। हम और वे एक हैं। हम और वे एक ही खुदा को मानते हैं, एक ही गिरजा में प्रार्थना करते हैं और एक ही नबी के अनुचर हैं। हमारा और उनका रहन-सहन,खान-पान, रीति-व्यवहार एक है। यहाँ अंगरेजों के समाज में, क्लब में, दावतों में हमारा एक-सा सम्मान होता है। अभी तीन-चार दिन हुए,लड़कियों को इनाम देने का जलसा था। मिस्टर क्लार्क ने खुद मुझे उस जलसे का प्रधान बनाया और मैंने ही इनाम बाँटे। किसी हिंदू या मुसलमान लेडी को यह सम्मान न प्राप्त हो सकता था।
रानी—हिंदू या मुसलमान, जिन्हें कुछ भी अपने जातीय गौरव का खयाल है, अंगरेजों के साथ मिलना-जुलना अपने लिए सम्मान की बात नहीं समझते। यहाँ तक कि हिंदुओं में जो लोग अंगरेजों से खान-पान रखते हैं, उन्हें लोग अपमान की दृष्टि से देखते हैं, शादी-विावह का तो कहना ही क्या! राजनीतिक प्रभुत्व की बात और है। डाकुओं का एक दल विद्वानों की एक सभा को बहुत आसानी से परास्त कर सकता है। लेकिन इससे विद्वानों का महत्व कुछ कम नहीं होता। प्रत्येक हिंदू जानता है कि मसीह बौध्द काल में यहीं आए थे, यहीं उनकी शिक्षा हुई थी और जो ज्ञान उन्होंने यहाँ प्राप्त किया, उसी का पश्चिम में प्रचार किया। फिर कैसे हो सकता है कि हिंदू अंगरेजों को श्रेष्ठ समझें?
दोनों महिलाओं में इसी तरह नोक-झोंक होती रही। दोनों एक दूसरे को नीचा दिखाना चाहती थीं; दोनों एक दूसरे के मनोभावों को समझती थीं। कृतज्ञता या धन्यवाद के शब्द किसी के मुँह से न निकले। यहाँ तक कि जब मिसेज़ सेवक विदा होने लगीं, तो रानी जाह्नवी उनको पहुँचाने के लिए कमरे के द्वार तक भी न गईं। अपनी जगह पर बैठे-बैठे हाथ बढ़ा दिया और अभी मिसेज़ सेवक कमरे ही में थीं कि अपना समाचार-पत्र पढ़ने लगीं।
मिसेज़ सेवक सोफ़िया के पास आईं, तो वह तैयार थी। किताबों के गट्ठर बँधो हुए थे। कई दासियाँ इधर-उधर इनाम के लालच में खड़ी थीं। मन मं प्रसन्न थीं, किसी तरह यह बला टली। सोफ़िया बहुत उदास थी। इस घर को छोड़ते हुए उसे दु:ख हो रहा था। उसे अपने उद्दिष्ट स्थान का पता न था। उसे कुछ मालूम न था कि तकदीर कहाँ ले जाएगी, क्या-क्या विपत्तियाँ झेलनी पड़ेंगी, जीवन-नौका किस घाट लगेगी। उसे ऐसा मालूम हो रहा था कि विनयसिंह से फिर मुलाकात न होगी, उनसे सदा के लिए बिछुड़ रही हूँ। रानी की अपमान-भरी बातें, उनकी भर्त्सना और अपनी भ्रांति सब कुछ भूल गई। हृदय के एक-एक तार से यही धवनि निकल रही थी—अब विनय से फिर भेंट न होगी।
मिसेज़ सेवक बोलीं—कुँवर साहब से भी मिल लूँ।
सोफ़िया डर रही थी कि कहीं मामा को रात की घटना की खबर न मिल जाए, कुँवर साहब कहीं दिल्लगी-ही-दिल्लगी में कह न डालें। बोली—उनसे मिलने में देर होगी, फिर मिल लीजिएगा।
मिसेज़ सेवक—फिर किसे इतनी फुर्सत है!
दोनों कुँवर साहब के दीवानखाने में पहुँचीं। यहाँ इस वक्त स्वयंसेवकों की भीड़ लगी हुई थी। गढ़वाल प्रांत में दुर्भिक्ष का प्रकोप था। न अन्न था, न जल। जानवर मरे जाते थे, पर मनुष्यों को मौत भी न आती थी; एड़ियाँ रगड़ते थे, सिसकते थे। यहाँ से पचास स्वयंसेवकों का एक दल, पीड़ितों का कष्ट निवारण करने के लिए जानेवाला था। कुँवर साहब इस वक्त उन लोगों को छाँट रहे थे; उन्हें जरूरी बातें समझा रहे थे। डॉक्टर गांगुली ने इस वृध्दावस्था में भी इस दल का नेतृत्व स्वीकार कर लिया था। दोनों आदमी इतने व्यस्त थे कि मिसेज़ सेवक की ओर किसी ने धयान न दिया। आखिर वह बोलीं—डॉक्टर साहब, आपका कब जाने का विचार है?
कुँवर साहब ने मिसेज़ सेवक की तरफ देखा और बड़े तपाक से आगे बढ़कर हाथ मिलाया, कुशल-समाचार पूछा और ले जाकर एक कुर्सी पर बैठा दिया। सोफ़िया माँ के पीछे जाकर खड़ी हो गई।
कुँवर साहब—ये लोग गढ़वाल जा रहे हैं। आपने पत्रों में देखा होगा, वहाँ लोगों पर कितना घोर संकट पड़ा हुआ है।
मिसेज़ सेवक—खुदा इन लोगों का उद्योग सफल करें। इनके त्याग की जितनी भी प्रशंसा की जाए, कम है। मैं देखती हूँ, यहाँ इनकी खास तादाद है।
कुँवर साहब—मुझे इतनी आशा न थी, विनय की बातों पर विश्वास न होता था, सोचता था, इतने वालंटियर कहाँ मिलेंगे। सभी को नवयुवकों के निरुत्साह का रोना रोते हुए देखता था, ‘इनमें जोश नहीं है, त्याग नहीं है, जान नहीं है, सब अपने स्वार्थ-चिंतन में मतवाले हो रहे हैं। कितनी ही सेवा-समितियाँ स्थापित हुईं पर एक भी पनप न सकी। लेकिन अब मुझे अनुभव हो रहा है कि लोगों को हमारे नवयुवकों के विषय में कितना भ्रम हुआ था। अब तक तीन सौ नाम दर्ज हो चुके हैं। कुछ लोगों ने आजीवन सेवा-धर्म पालन करने का व्रत लिया है। इनमें कई आदमी तो हजारों रुपये माहवार की आय पर लात मारकर आए हैं। इनका सत्साहस देखकर मैं बहुत आशावादी हो गया हूँ।
मिसेज़ सेवक—मिस्टर क्लार्क कल आपकी बहुत प्रशंसा कर रहे थे। ईश्वर ने चाहा, तो आप शीघ्र सी.आई.ई. होंगे और मुझे आपको बधााई देने का अवसर मिलेगा।
कुँवर साहब—(लजाते हुए) मैं इस सम्मान के योग्य नहीं हूँ। मिस्टर क्लार्क मुझे इस योग्य समझते हैं, तो वह उनकी कृपा-दृष्टि है। मिस सेवक, तैयार रहना, कल तीन बजे के मेल से ये लोग सिधारेंगे। प्रभु ने भी आने का वादा किया है।
मिसेज़ सेवक—सोफी तो आज घर जा रही है। (मुस्कराकर) शायद आपको जल्द ही इसका कन्यादान देना पड़े। (धीरे से) मिस्टर क्लार्क जाल फैला रहे हैं।
सोफ़िया शर्म से गड़ गई। उसे अपनी माता के ओछेपन पर क्रोध आ रहा था—इन सब बातों का ढिंढोरा पीटने की क्या जरूरत है? क्या यह समझती हैं कि मि. क्लार्क का नाम लेने से कुँवर साहब रोब में आ जाएँगे?
कुँवर साहब—बड़ी खुशी की बात है। सोफी, देखो, हम लोगों को और विशेषत: अपने गरीब भाइयों को न भूल जाना। तुम्हें परमात्मा ने जितनी सहृदयता प्रदान की है, वैसा ही अच्छा अवसर भी मिल रहा है। हमारी शुभेच्छाएँ सदैव तुम्हारे साथ रहेंगी। तुम्हारे एहसान से हमारी गरदन सदा दबी रहेगी। कभी-कभी हम लोगों को याद करती रहना। मुझे पहले न मालूम था, नहीं तो आज इंदु को अवश्य बुला भेजता। खैर,देश की दशा तुम्हें मालूम है। मिस्टर क्लार्क बहुत ही होनहार आदमी हैं। एक दिन जरूर यह इस देश के किसी प्रांत के विधााता होंगे। मैं विश्वास के साथ यह भविष्यवाणी कर सकता हूँ। उस वक्त तुम अपने प्रभाव, योग्यता और अधिकार से देश को बहुत कुछ लाभ पहुँचा सकोगी। तुमने अपने स्वदेशवासियों की दशा देखी है, उनकी दरिद्रता का तुम्हें पूर्ण अनुभव है। इस अनुभव का उनकी सेवा और सुधार में सद्व्यय करना।
सोफ़िया मारे शर्म के कुछ बोल न सकी। माँ ने कहा—आप रानीजी को जरूर साथ लाइएगा। मैं कार्ड भेजूँगी।
कुँवर साहब—नहीं मिसेज़ सेवक, मुझे क्षमा कीजिएगा। मुझे खेद है कि मैं उस उत्सव में सम्मिलित न हो सकूँगा। मैंने व्रत कर लिया है कि राज्याधिकारियों से कोई सम्पर्क न रखूँगा। हाकिमों की कृपा-दृष्टि, ज्ञात या अज्ञात रूप से हम लोगों को आत्मसेवी और निरंकुश बना देती है। मैं अपने को इस परीक्षा में नहीं डालना चाहता; क्योंकि मुझे अपने ऊपर विश्वास नहीं है। मैं अपनी जाति में राजा और प्रजा तथा छोटे और बड़े का विभेद नहीं करना चाहता। सब प्रजा हैं, राजा है वह भी प्रजा है, रंक है वह भी प्रजा है। झूठे अधिकार के गर्व से अपने सिर को नहीं फिराना चाहता।
मिसेज़ सेवक—खुदा ने आपको राजा बनाया है। राजों ही के साथ तो राजा का मेल हो सकता है। अंगरेज लोग बाबुओं को मुँह नहीं लगाते,क्योंकि इससे यहाँ के राजों का अपमान होता है।
डॉ. गांगुली—मिसेज़ सेवक, यह बहुत दिनों तक राजा रह चुका है, अब इसका जी भर गया है। मैं इसका बचपन का साथी हूँ। हम दोनों साथ-साथ पढ़ते थे। देखने में यह मुझसे छोटा मालूम होता है, पर कई साल बड़ा है।
मिसेज़ सेवक—(हँसकर) डॉक्टर के लिए यह तो कोई गर्व की बात नहीं है।
डॉ. गांगुली—हम दूसरों का दवा करना जानते हैं, अपना दवा करना नहीं जानता। कुँवर साहब उसी बखत से च्मेपउपेज है। उसी च्मेपउपेउ ने इसकी शिक्षा में बाधाा डाली। अब भी इसका वही हाल है। हाँ, अब थोड़ा फेरफार हो गया है। पहले कर्म से भी निराशावादी था और वचन से भी। अब इसके वचन और कर्म में सादृश्य नहीं है। वचन से तो अब भी च्मेपउपेज है; पर काम वह करता है, जिसे कोई पक्का व्चजपउपेज ही कर सकता है।
कुँवर साहब—गांगुली, तुम मेरे साथ अन्याय कर रहे हो। मुझमें आशावादिता के गुण ही नहीं हैं। आशावादी परमात्मा का भक्त होता है,पक्का ज्ञानी, पूर्ण ऋषि। उसे चारों ओर परमात्मा की ही ज्योति दिखाई देती है। इसी में उसे भविष्य पर अविश्वास नहीं होता। मैं आदि से भोग-विलास का दास रहा हूँ; वह दिव्य ज्ञान न प्राप्त कर सका, जो आशावादिता की कुंजी है। मेरे लिए च्मेपउपेउ के सिवा और कोई मार्ग नहीं है। मिसेज़ सेवक, डॉक्टर महोदय के जीवन का सार है—आत्मोत्सर्ग। इन पर जितनी विपत्तियाँ पड़ीं, वे किसी ऋषि को नास्तिक बना देतीं। जिस प्राणी के सात बेटे जवान हो-होकर दगा दे जाएँ, पर वह अपनेर् कर्तव्य-मार्ग से जरा भी विचलित न हो, ऐसा उदाहरण विरला ही कहीं मिलेगा। इनकी हिम्मत तो टूटना जानती ही नहीं, आपदाओं की चोटें इन्हें और भी ठोस बना देती हैं। मैं साहसहीन, पौरुषहीन प्राणी हूँ। मुझे यकीन नहीं आता कि कोई शासक जाति शासितों के साथ न्याय और साम्य का व्यवहार कर सकती है। मानव-चरित्र को मैं किसी देश में,किसी काल में, इतना निष्काम नहीं पाता। जिस राष्ट्र ने एक बार अपनी स्वाधीनता खो दी, वह फिर उस पद को नहीं पा सकता। दासता ही उसकी तकदीर हो जाती है। किंतु हमारे डॉक्टर बाबू मानव-चरित्र को इतना स्वार्थी नहीं समझते। इनका मत है कि हिंसक पशुओं के हृदय में भी अनंत ज्योति की किरणें विद्यमान रहती हैं, केवल परदे को हटाने की जरूरत है। मैं अंगरेजों की तरफ से निराश हो गया हूँ, इन्हें विश्वास है कि भारत का उध्दार अंगरेज-जाति ही के द्वारा होगा।
मिसेज़ सेवक—(रुखाई से) तो क्या आप यह नहीं मानते कि अंगरेजों ने भारत के लिए जो कुछ किया है, वह शायद ही किसी जाति ने किसी जाति या देश के साथ किया हो?
कुँवर साहब—नहीं, मैं यह नहीं मानता।
मिसेज़ सेवक—(आश्चर्य से) शिक्षा का इतना प्रचार और भी किसी काल में हुआ था?
कुँवर साहब—मैं उसे शिक्षा ही नहीं कहता, जो मनुष्य को स्वार्थ का पुतला बना दे।
मिसेज़ सेवक—रेल, तार, जहाज, डाक, ये सब विभूतियाँ अंगरेजों ही के साथ आईं!
कुँवर साहब—अंगरेजों के बगैर भी आ सकती थीं, और अगर आई भी हैं तो अधिकतर अंगरेजों ही के लाभ के लिए।
मिसेज़ सेवक—ठीक है, ऐसा न्याय-विधान पहले कभी न था।
कुँवर साहब—ठीक है, ऐसा न्याय-विधान कहाँ था, जो अन्याय को न्याय और असत्य को सत्य सिध्द कर दे! यह न्याय नहीं, न्याय का गोरखधंधा है।
सहसा रानी जाह्नवी कमरे में आईं। सोफ़िया का चेहरा उन्हें देखते ही सूख गया, वह कमरे के बाहर निकल आई, रानी के सामने खड़ी न रह सकी। मिसेज़ सेवक को भी शंका हुई कि कहीं चलते-चलते रानी से फिर न विवाद हो जाए। वह भी बाहर चली आईं। कुँवर साहब ने दोनों को फिटन पर सवार कराया। सोफ़िया ने सजल नेत्रों से कर जोड़कर कुँवरजी को प्रणाम किया। फिटन चली। आकाश पर काली घटा छाई हुई थी, फिटन सड़क पर तेजी से दौड़ी चली जाती थी और सोफ़िया बैठी रो रही थी। उसकी दशा उस बालक की-सी थी, जो रोटी खाता हुआ मिठाईवाले की आवाज सुनकर उसके पीछे दौड़े, ठोकर खाकर गिर पड़े, पैसा हाथ से निकल जाए और वह रोता हुआ घर लौट आवे।