रंगभूमि: अध्याय 15
राजा महेंद्रकुमार सिंह यद्यपि सिध्दांत के विषय में अधिकारियों से जौ-भर भी न दबते थे; पर गौण विषयों में वह अनायास उनसे विरोध करना व्यर्थ ही नहीं, जाति के लिए अनुपयुक्त भी समझते थे। उन्हें शांत नीति पर जितना विश्वास था, उतना उग्र नीति पर न था, विशेषत: इसलिए कि वह वर्तमान परिस्थिति में जो कुछ सेवा कर सकते थे, वह शासकों के विश्वासपात्रा होकर ही कर सकते थे। अतएव कभी-कभी उन्हें विवश होकर ऐसी नीति का अवलम्बन करना पड़ता था, जिससे उग्र नीति के अनुयायियों को उन पर उँगली उठाने का अवसर मिलता था। उनमें यदि कोई कमजोरी थी, तो यह कि वह सम्मान-लोलुप मनुष्य थे; और ऐसे अन्य मनुष्यों की भाँति वह बहुत औचित्य की दृष्टि से नहीं,ख्याति लाभ की दृष्टि से अपने आचरण का निश्चय करते थे। पहले उन्होंने न्याय-पक्ष लेकर जॉन सेवक को सूरदास की जमीन दिलाने से इनकार कर दिया था; पर अब उन्हें इसके विरुध्द आचरण करने के लिए बाधय होना पड़ रहा था। अपने सहवर्गियों को समझाने के लिए तो पाँड़ेपुरवालों को ताहिर अली के घर में घुसने पर उद्यत होना ही काफी था; पर यथार्थ में जॉन सेवक और मिस्टर क्लार्क की पारस्परिक मैत्री ने ही उन्हें अपना फैसला पलट देने को प्रेरित किया था। पर अभी तक उन्होंने बोर्ड में इस प्रस्ताव को उपस्थित न किया था। यह शंका होती थी कि कहीं लोग मुझे एक धानी व्यापारी के साथ पक्षपात करने का दोषी न ठहराने लगें। उनकी आदत थी कि बोर्ड में प्रस्ताव रखने के पहले वह इंदु से, और इंदु न होती, तो अपने इष्ट-मित्रों से परामर्श कर लिया करते थे; उनके सामने अपना पक्ष-समर्थन करके, उनकी शंकाओं का समाधान करने का प्रयास करके, अपना इतमीनान कर लेते थे। यद्यपि इस तर्कयुध्द से कोई अंतर न पड़ता, वह अपने पक्ष पर स्थिर रहते; पर घंटे-दो घंटे के विचार-विनिमय से उनको बड़ा आश्वासन मिलता था।
तीसरे पहर का समय था। समिति के सेवक गढ़वाल जाने के लिए स्टेशन पर जमा हो रहे थे। इंदु ने गाड़ी तैयार करने का हुक्म दिया। यद्यपि बादल घिरा हुआ था और प्रतिक्षण गगन श्याम वर्ण हुआ जाता था, किंतु सेवकों को विदा करने के लिए स्टेशन पर जाना जरूरी था। जाह्नवी ने उसे बहुत आग्रह करके बुलाया था। वह जाने को तैयार ही थी कि राजा साहब अंदर आए और इंदु को कहीं जाने को तैयार देखकर बोले—कहाँ जाती हो, बादल घिरा हुआ है।
इंदु—समिति के लोग गढ़वाल जा रहे हैं। उन्हें विदा करने स्टेशन जा रही हूँ। अम्माँजी ने बुलाया भी है।
राजा—पानी अवश्य बरसेगा।
इंदु—परदा डाल दूँगी; और भीग भी गई, तो क्या? आखिर वे भी तो आदमी ही हैं, जो लोक-सेवा के लिए इतनी दूर जा रहे हैं।
राजा—न जाओ, तो कोई हरज है? स्टेशन पर भीड़ बहुत होगी।
इंदु—हरज क्या होगा, मैं जाऊँ या न जाऊँ; वे लोग तो जाएँगे ही, पर दिल नहीं मानता। वे लोग घर-बार छोड़कर जा रहे हैं, न जाने क्या-क्या कष्ट उठाएँगे, न जाने कब लौटेंगे, मुझसे इतना भी न हो कि उन्हें विदा कर आऊँ? आप भी क्यों नहीं चलते?
राजा—(विस्मित होकर) मैं?
इंदु—हाँ-हाँ, आपके जाने में कोई हरज है?
राजा—मैं ऐसी संस्थाओं में सम्मिलित नहीं होता!
इंदु—कैसी संस्थाओं में?
राजा—ऐसी ही संस्थाओं में!
इंदु—क्या सेवा-समितियों से सहानुभूति रखना भी आपत्तिजनक है? मैं तो समझती हूँ, ऐसे शुभ कार्यों में भाग लेना किसी के लिए भी लज्जा या आपत्ति की बात नहीं हो सकती।
राजा-तुम्हारी समझ में और मेरी समझ में बड़ा अंतर है। यदि मैं बोर्ड का प्रधान न होता, यदि मैं शासन का एक अंग न होता, अगर मैं रियासत का स्वामी न होता, तो स्वच्छंदता से प्रत्येक सार्वजनिक कार्य में भाग लेता। वर्तमान स्थिति में मेरा किसी संस्था में भाग लेना इस बात का प्रमाण समझा जाएगा कि राज्याधिकारियों को उससे सहानुभूति है। मैं यह भ्रांति नहीं फैलाना चाहता। सेवा समिति युवकों का दल है,और यद्यपि इस समय उसने सेवा का आदर्श अपने सामने रखा है और वह सेवा-पथ पर ही चलने की इच्छा रखती है; पर अनुभव ने सिध्द कर दिया है कि सेवा और उपकार बहुधा ऐसे रूप धारण कर लेते हैं, जिन्हें कोई शासन स्वीकार नहीं कर सकता और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उसे उसका मूलोच्छेद करने के प्रयत्न करने पड़ते हैं। मैं इतना बड़ा उत्तरदायित्व अपने सिर पर नहीं लेना चाहता।
इंदु—तो आप इस पद को त्याग क्यों नहीं देते? अपनी स्वाधीनता का क्यों बलिदान करते हैं?
राजा—केवल इसलिए कि मुझे विश्वास है कि नगर का प्रबंध जितनी सुंदरता से मैं कर सकता हूँ, और कोई नहीं कर सकता। नगरसेवा का ऐसा अच्छा और दुर्लभ अवसर पाकर मैं अपनी स्वच्छंदता की जरा भी परवा नहीं करता। मैं एक राज्य का अधीश हूँ और स्वभावत: मेरी सहानुभूति सरकार के साथ है। जनवाद और साम्यवाद का सम्पत्ति से वैर है। मैं उस समय तक साम्यवादियों का साथ न दूँगा, जब तक मन में यह निश्चय न कर लूँ कि अपनी सम्पत्ति त्याग दूँगा। मैं वचन से साम्यवाद का अनुयायी बनकर कर्म से उसका विरोधी नहीं बनना चाहता। कर्म और वचन में इतना घोर विरोध मेरे लिए असह्य है। मैं उन लोगों को धूर्त और पाखंडी समझता हूँ, जो अपनी सम्पत्ति को भोगते हुए साम्य की दुहाई देते फिरते हैं। मेरी समझ में नहीं आता कि साम्यदेव के पुजारी बनकर वह किस मुँह से विशाल प्रासादों में रहते हैं, मोटर-बोटों में जल-क्रीड़ा करते हैं और संसार के सुखों का दिल खोलकर उपभोग करते हैं। अपने कमरे से फर्श हटा देना और सादे वस्त्र पहन लेना ही साम्यवाद नहीं है। यह निर्लज्ज धूर्तता है, खुला हुआ पाखंड है। अपनी भोजनशाला के बचे-खुचे टुकड़ों को गरीबों के सामने फेंक देना साम्यवाद को मुँह चिढ़ाना, उसे बदनाम करना है।
यह कटाक्ष कुँवर साहब पर था। इंदु समझ गई। त्योरियाँ बदल गईं, किंतु उसने जब्त किया और इस अप्रिय प्रसंग को समाप्त करने के लिए बोली—मुझे देर हो रही है, तीन बजनेवाले हैं, साढ़े तीन पर गाड़ी छूटती है, अम्माँजी से मुलाकात हो जाएगी, विनय का कुशल-समाचार भी मिल जाएगा। एक पंथ दो काज होंगे।
राजा साहब—जिन कारणों से मेरा जाना अनुचित है, उन्हीं कारणों से तुम्हारा जाना अनुचित है। तुम जाओ या मैं जाऊँ, एक ही बात है।
इंदु उसी पाँव अपने कमरे में लौट आई और सोचने लगी—यह अन्याय नहीं, तो और क्या है? घोर अत्याचार! कहने को तो मैं रानी हूँ,लेकिन इतना अख्तियार भी नहीं कि घर से बाहर जा सकूँ। मुझसे तो लौंडियाँ ही अच्छी हैं। चित्ता बहुत खिन्न हुआ, ऑंखें सजल हो गईं। घंटी बजाई और लौंडी से कहा—गाड़ी खुलवा दो, मैं स्टेशन न जाऊँगी।
महेंद्रकुमार भी उसके पीछे-पीछे कमरे में जाकर बोले—कहीं सैर क्यों नहीं कर आतीं?
इंदु—नहीं, बादल घिरा हुआ है, भीग जाऊँगी।
राजा साहब—क्या नाराज हो गईं?
इंदु—नाराज क्यों हूँ? आपके हुक्म की लौंडी हूँ। आपने कहा, मत जाओ, न जाऊँगी।
राजा साहब—मैं तुम्हें विवश नहीं करना चाहता। यदि मेरी शंकाओं को जान लेने के बाद भी तुम्हें वहाँ जाने में कोई आपत्ति नहीं दिखलाई पड़ती, तो शौक से जाओ। मेरा उद्देश्य केवल तुम्हारी सद्बुध्दि को प्रेरित करना था। मैं न्याय के बल से रोकना चाहता हूँ, आज्ञा के बल से नहीं। बोलो, अगर तुम्हारे जाने से मेरी बदनामी हो, तो तुम जाना चाहोगी?
यह चिड़िया के पर काटकर उसे उड़ाना था। इंदु ने उड़ने की चेष्टा ही न की। इस प्रश्न का केवल एक ही उत्तर हो सकता था—कदापि नहीं,यह मेरे धर्म के प्रतिकूल है। किंतु इंदु को अपनी परवशता इतनी अखर रही थी कि उसने इस प्रश्न को सुना ही नहीं, या सुना भी, तो उस पर धयान न दिया। उसे ऐसा जान पड़ा, यह मेरे जले पर नमक छिड़क रहे हैं। अम्माँ अपने मन में क्या कहेंगी? मैंने बुलाया, और नहीं आई! क्या दौलत की हवा लगी? कैसे क्षमा-याचना करूँ? यदि लिखूँ, अस्वस्थ हूँ, तो वह एक क्षण में यहाँ आ पहुँचेंगी और मुझे लज्जित होना पड़ेगा। आह! अब तक तो वहाँ पहुँच गई होती। प्रभु सेवक ने बड़ी प्रभावशाली कविता लिखी होगी। दादाजी का उपदेश भी मार्के का होगा। एक-एक शब्द अनुराग और प्रेम में डूबा होगा। सेवक-दल वर्दी पहने कितना सुंदर लगता होगा!
इन कल्पनाओं ने इंदु को इतना उत्सुक किया कि वह दुराग्रह करने को उद्यत हो गई। मैं तो जाऊँगी। बदनामी नहीं, पत्थर होगी। ये सब मुझे रोक रखने के बहाने हैं। तुम डरते हो; अपने कर्मों के फल भोगो; मैं क्यों डरूँ? मन में यह निश्चय करके उसने निश्चयात्मक रूप से कहा—आपने मुझे जाने की आज्ञा दे दी, मैं जाती हूँ।
राजा ने भग्न हृदय होकर कहा—तुम्हारी इच्छा, जाना चाहती हो, शौक से जाओ।
इंदु चली गई, तो राजा साहब सोचने लगे—स्त्रियाँ कितनी निष्ठुर, कितनी स्वच्छंदताप्रिय, कितनी मानशील होती हैं! चली जा रही हैं, मानो मैं कुछ हूँ ही नहीं। इसकी जरा भी चिंता नहीं कि हुक्काम के कानों तक यह बात पहुँचेगी, तो वह मुझे क्या कहेंगे। समाचार-पत्रों के संवाददाता यह वृत्तांत अवश्य ही लिखेंगे, और उपस्थित महिलाओं में चतारी की रानी का नाम मोटे अक्षरों में लिखा हुआ नजर आएगा। मैं जानता कि इतना हठ करेगी, तो मना ही क्यों करता, खुद भी साथ जाता। एक तरफ बदनाम होता, तो दूसरी ओर बखान होता। अब तो दोनों ओर से गया। इधार भी बुरा बना, उधार भी बुरा बना। आज मालूम हुआ कि स्त्रियों के सामने कोरी साफगोई नहीं चलती, वे लल्लो-चप्पो ही से राजी रहती हैं।
इंदु स्टेशन की तरफ चली; पर ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती थी, उसका दिल एक बोझ से दबा जाता था। मैदान में जिसे हम विजय कहते हैं,घर में उसी का नाम अभिनयशीलता, निष्ठुरता और अभद्रता है। इंदु को इस विजय पर गर्व न था। अपने हठ का खेद था। सोचती जाती थी—वह मुझे अपने मन में कितनी अभिमानिनी समझ रहे होंगे। समझते होंगे, जब यह जरा-जरा बातों में यों ऑंखें फेर लेती है, जरा-जरा-से मतभेद में यों लड़ने के लिए तैयार हो जाती है, तो किसी कठिन अवसर पर इससे सहानुभूति की क्या आशा की जा सकती है! अम्माँजी यह सुनेंगी, तो मुझी को बुरा कहेंगी। निस्संदेह मुझसे भूल हुई। लौट चलूँ और उनसे अपने अपराध क्षमा कराऊँ। मेरे सिर पर न जाने क्यों भूत सवार हो जाता है। अनायास ही उलझ पड़ी! भगवान् मुझे कब इतनी बुध्दि होगी कि उनकी इच्छा के सामने सिर झुकाना सीखूँगी?
इंदु ने बाहर की तरफ सिर निकालकर देखा, स्टेशन का सिगनल नजर आ रहा था। नर-नारियों के समूह स्टेशन की ओर दौड़े चले जा रहे थे। सवारियों का ताँता लगा हुआ था। उसने कोचवान से कहा—गाड़ी फेर दो, मैं स्टेशन न जाऊँगी, घर की तरफ चलो।
कोचवान ने कहा—सरकार अब तो आ गए; वह देखिए, कई आदमी मुझे इशारा कर रहे हैं कि घोड़ों को बढ़ाओ, गाड़ी पहचानते हैं।
इंदु—कुछ परवा नहीं, फौरन घोड़े फेर दो।
कोचवान—क्या सरकार की तबीयत कुछ खराब हो गई क्या?
इंदु—बक-बक मत करो, गाड़ी लौटा ले चलो।
कोचवान ने गाड़ी फेड़ दी। इंदु ने एक लम्बी साँस ली और सोचने लगी—सब लोग मेरा इंतजार कर रहे होंगे; गाड़ी देखते ही पहचान गए थे। अम्माँ कितनी खुश हुई होंगी; पर गाड़ी लौटते देखकर उन्हें और अन्य सब आदमियों को कितना विस्मय हुआ होगा! कोचवान से कहा—जरा पीछे फिरकर देखो, कोई आ तो नहीं रहा है?
कोचवान—हुजूर, कोई गाड़ी तो आ रही।
इंदु—घोड़ों को तेज कर दो, चौगाम छोड़ दो।
कोचवान—हुजूर, गाड़ी नहीं, मोटर है, साफ मोटर है।
इंदु—घोड़ों को चाबुक लगाओ।
कोचवान—हुजूर, यह तो अपनी ही मोटर मालूम होती है, हींगनसिंह चला रहे हैं। खूब पहचान गया, अपनी ही मोटर है।
इंदु—पागल हो, अपनी मोटर यहाँ क्यों आने लगी?
कोचवान—हुजूर, अपनी मोटर न हो, तो जो चोर की सजा, वह मेरी। साफ़ नजर आ रही है, वही रंग है। ऐसी मोटर इस शहर में दूसरी है ही नहीं।
इंदु—जरा गौर से देखो।
कोचवान—क्या देखूँ हुजूर, वह आ पहुँची, सरकार बैठे हैं।
इंदु—ख्वाब तो नहीं देख रहा है!
कोचवान—लीजिए, हुजूर, यह बराबर आ गई।
इंदु ने घबराकर बाहर देखा, तो सचमुच अपनी ही मोटर थी। गाड़ी के बराबर आकर रुक गई और राजा साहब उतर पड़े कोचवान ने गाड़ी रोक दी। इंदु चकित होकर बोली—आप कब आ गए?
राजा—तुम्हारे आने के पाँच मिनट बाद मैं भी चल पड़ा।
इंदु—रास्ते में तो कहीं नहीं दिखाई दिए।
राजा—लाइन की तरफ से आया हूँ। इधर की सड़क खराब है। मैंने समझा, जरा चक्कर तो पड़ेगा, मगर जल्द पहुँचूँगा। तुम स्टेशन के सामने से कैसे लौट आईं? क्या बात है? तबियत तो अच्छी है? मैं तो घबरा गया। आओ, मोटर पर बैठ जाओ। स्टेशन पर गाड़ी आ गई है,दस मिनट में छूट जाएगी। लोग उत्सुक हो रहे हैं।
इंदु—अब मैं न जाऊँगी। आप तो पहुँच ही गए थे।
राजा—तुम्हें चलना ही पड़ेगा।
इंदु—मुझे मजबूर न कीजिए, मैं न जाऊँगी।
राजा—पहले तो तुम यहाँ आने के लिए इतनी उत्सुक थीं, अब क्यों इनकार कर रही हो?
इंदु—आपकी इच्छा के विरुध्द आई थी। आपने मेरे कारण अपने नियम का उल्लंघन किया है, तो मैं किस मुँह से वहाँ जा सकती हूँ? आपने मुझे सदा के लिए शालीनता का सबक दे दिया।
राजा—मैं उन लोगों से तुम्हें लाने का वादा कर आया हूँ। तुम न चलोगी, तो मुझे कितना लज्जित होना पड़ेगा।
इंदु—आप व्यर्थ इतना आग्रह कर रहे हैं। आपको मुझसे नाराज होने का यह अंतिम अवसर था। अब फिर इतना दुस्साहस न करूँगी।
राजा—एंजिन सीटी दे रहा है।
इंदु—ईश्वर के लिए मुझे जाने दीजिए।
राजा ने निराश होकर कहा—जैसी तुम्हारी इच्छा! मालूम होता है, हमारे और तुम्हारे ग्रहों में कोई मौलिक विरोध है, जो पग-पग पर अपना फल दिखलाता रहता है।
यह कहकर वह मोटर पर सवार हो गए, और बड़े वेग से स्टेशन की तरफ से चले। बग्घी भी आगे बढ़ी। कोचवान ने पूछा—हुजूर गईं क्यों नहीं? सरकार बुरा मान गए।
इंदु ने इसका कुछ जवाब न दिया। वह सोच रही थी—क्या मुझसे फिर भूल हुई? क्या मेरा जाना उचित था? क्या वह शुध्द हृदय से मेरे जाने के लिए आग्रह कर रहे थे या एक थप्पड़ लगाकर दूसरा थप्पड़ लगाना चाहते थे? ईश्वर ही जानें। वही अंतर्यामी हैं, मैं किसी के दिल की बात क्या जानूँ!
गाड़ी धीरे-धीरे आगे बढ़ती जाती थी। आकाश पर छाए हुए बादल फटते जाते थे; पर इंदु के हृदय पर छाई हुई घटा प्रतिक्षण और भी घनी होती जाती थी—आह! क्या वस्तुत: हमारे ग्रहों में कोई मौलिक विरोध है, जो पग-पग पर मेरी आकांक्षाओं को दलित करता रहता है? मैं कितना चाहती हूँ कि उनकी इच्छा के विरुध्द एक कदम भी न चलूँ; किंतु यह प्रकृति-विरोध मुझे हमेशा नीचा दिखाता है। अगर वह शुध्द मन से अनुरोध कर रहे थे, तो मेरा इनकार सर्वथा असंगत था। आह! उन्हें मेरे हाथों फिर कष्ट पहुँचा। उन्होंने अपनी स्वाभाविक सज्जनता से मेरा अपराध क्षमा किया और मेरा मान रखने के लिए अपने सिध्दांत की परवा न की। समझे होंगे, अकेली जाएगी, तो लोग खयाल करेंगे, पति की इच्छा के विरुध्द आई है, नहीं तो क्या वह भी न आते? मुझे इस अपमान से बचाने के लिए उन्होंने अपने ऊपर इतना अत्याचार किया। मेरी जड़ता से वह कितने हताश हुए हैं, नहीं तो उनके मुँह से यह वाक्य कदापि न निकलता। मैं सचमुच अभागिनी हूँ।
इन्हीं विषादमय विचारों में डूबी हुई वह चंद्रभवन पहुँची और गाड़ी से उतरकर सीधो राजा साहब के दीवानखाने में जा बैठी। ऑंखें चुरा रही थी कि किसी नौकर-चाकर से सामना न हो जाए। उसे ऐसा जान पड़ता था कि मेरे मुख पर कोई दाग लगा हुआ है। जी चाहता था, राजा साहब आते-ही-आते मुझ पर बिगड़ने लगें, मुझे खूब आड़े हाथों लें, हृदय को तानों से चलनी कर दें, यही उनकी शुध्द-हृदयता का प्रमाण होगा। यदि वह आकर मुझसे मीठी-मीठी बातें करने लगें, तो समझ जाऊँगी, मेरी तरफ से उनका दिल साफ नहीं है, यह सब केवल शिष्टाचार है। वह इस समय पति की कठोरता की इच्छुक थी। गरमियों में किसान वर्षा का नहीं, ताप का भूखा होता है।
इंदु को बहुत देर तक न बैठना पड़ा। पाँच बजते-बजते राजा साहब आ पहुँचे। इंदु का हृदय धक-धक करने लगा, वह उठकर द्वार पर खड़ी हो गई। राजा साहब उसे देखते ही बड़े मधुर स्वर से बोले—तुमने आज जातीय उद्गारों का एक अपूर्व दृश्य देखने का अवसर खो दिया। बड़ा ही मनोहर दृश्य था। कई हजार मनुष्यों ने जब यात्रियों पर पुष्प-वर्षा की, तो सारी भूमि फूलों से ढँक गई। सेवकों का राष्ट्रीय गान इतना भावमय, इतना प्रभावोत्पादक था कि दर्शक-वृंद मुग्धा हो गए। मेरा हृदय जातीय गौरव से उछला पड़ता था। बार-बार यही खेद होता है कि तुम न हुईं। यही समझ लो कि मैं उस आनंद को प्रकट नहीं कर सकता। मेरे मन में सेवा-समिति के विषय में जितनी शंकाएँ थीं, वे सब शांत हो गईं। यही जी चाहता था कि मैं भी सब कुछ छोड़-छाड़कर इस दल के साथ चला जाता। डॉक्टर गांगुली को अब तक मैं निरा बकवादी समझता था। आज मैं उनका उत्साह और साहस देखकर दंग रह गया। तुमसे बड़ी भूल हुई। तुम्हारी माताजी बार-बार पछताती थीं।
इंदु को जिस बात की शंका थी, वह पूरी हो गई। सोचा—यह सब कपटलीला है। इनका दिल साफ नहीं है। यह मुझे बेवकूफ समझते हैं और बेवकूफ बनाना चाहते हैं। इन मीठी बातों की आड़ में कितनी कटुता छिपी हुई है। चिढ़कर बोली—मैं जाती, तो आपको जरूर बुरा मालूम होता।
राजा—(हँसकर) केवल इसलिए कि मैंने तुम्हें जाने से रोका था? अगर मुझे बुरा मालूम होता, तो मैं खुद क्यों जाता?
इंदु—मालूम नहीं, आप क्या समझकर गए। शायद मुझे लज्जित करना चाहते होंगे।
राजा—इंदु, इतना अविश्वास मत करो। सच कहता हूँ, मुझे तुम्हारे जाने का जरा मलाल न होता। मैं यह स्वीकार करता हूँ कि पहले मुझे तुम्हारी जिद बुरी लगी; किंतु जब मैंने विचार किया, तो मुझे अपना आचरण सर्वथा अन्यायपूर्ण प्रतीत हुआ। मुझे ज्ञात हुआ कि तुम्हारी स्वेच्छा को इतना दबा देना सर्वथा अनुचित है। अपने इसी अन्याय का प्रायश्चित्त करने के लिए मैं स्टेशन गया। तुम्हारी यह बात मेरे मन में बैठ गई कि हुक्काम का विश्वासपात्रा बने रहने के लिए अपनी स्वाधीनता का बलिदान क्यों करते हो, नेकनाम रहना अच्छी बात है, किंतु नेकनामी के लिए सच्ची बातों में दबना अपनी आत्मा की हत्या करना है। अब तो तुम्हें मेरी बातों का विश्वास आया?
इंदु—आपकी दलीलों का जवाब नहीं दे सकती; लेकिन मैं आपसे प्रार्थना करती हूँ कि जब मुझसे कोई भूल हो जाए, तो आप मुझे दंड दिया करें, मुझे खूब धिक्कारा करें। अपराध और दंड में कारण और कार्य का सम्बंध है, और यही मेरी समझ में आता है। अपराधी के सिर तेल चुपड़ते मैंने किसी को नहीं देखा। मुझे यह अस्वाभाविक जान पड़ता है। इससे मेरे मन में भाँति-भाँति की शंकाएँ उठने लगती हैं।
राजा—देवी रूठती हैं, तो लोग उन्हें मनाते हैं। इसमें अस्वाभाविकता क्या है!
दोंनों में देर तक सवाल-जवाब होता रहा। महेंद्र बहेलिए की भाँति दाना दिखाकर चिड़िया फँसाना चाहते थे और चिड़िया सशंक होकर उड़ जाती थी। कपट में से कपट ही पैदा होता है। वह इंदु को आश्वासित न कर सके। तब वह उनकी व्यथा को शांत करने का भार समय पर छोड़कर एक पत्र पढ़ने लगे और इंदु दिल पर बोझ रखे हुए अंदर चली गई।
दूसरे दिन राजा साहब ने दैनिक पत्र खोला, तो उसमें सेवकों की यात्रा का वृत्तांत बड़े विस्तार से प्रकाशित हुआ था। इसी प्रसंग में लेखक ने राजा साहब की उपस्थिति पर भी टीका की थी :
‘इस अवसर पर म्युनिसिपैलिटी के प्रधान राजा महेंद्रकुमार सिंह का मौजूद होना बड़े महत्व की बात है। आश्चर्य है कि राजा साहब—जैसे विवेकशील पुरुष ने वहाँ जाना क्यों आवश्यक समझा? राजा साहब अपने व्यक्तित्व को अपने पद से पृथक् नहीं कर सकते और उनकी उपस्थिति सरकार को उलझन में डालने का कारण हो सकती है। अनुभव ने यह बात सिध्द कर दी है कि सेवा-समितियाँ चाहे कितनी शुभेच्छाओं से भी गर्भित हों, पर कालांतर में वे विद्रोह और अशांति का केंद्र बन जाती हैं। क्या राजा साहब इसका जिम्मा ले सकते हैं कि यह समिति आगे चलकर अपनी पूर्ववर्ती संस्थाओं का अनुसरण न करेगी?’
राजा साहब ने पत्र बंद करके रख दिया और विचारमग्न हो गए! उनके मुँह से बेअख्तियार निकल गया—वही हुआ जिसका मुझे डर था। आज क्लब जाते-ही-जाते मुझ पर चारों ओर से संदेहात्मक दृष्टि पड़ने लगेगी। कल ही कमिश्नर साहब से मिलने जाना है, उन्होंने पूछा तो क्या कहूँगा? इस दुष्ट सम्पादक ने मुझे बुरा चरका दिया। पुलिसवालों की भाँति इस समुआय में भी मुरौवत नहीं होती, जरा भी रिआयत नहीं करते। मैं इसका मुँह बंद रखने के लिए, इसे प्रसन्न रखने के लिए कितने यत्न किया करता हूँ; आवश्यक और अनावश्यक विज्ञापन छपवाकर इसकी मुट्ठियाँ गरम करता रहता हूँ; जब कोई दावत या उत्सव होता है, तो सबसे पहले इसे निमंत्रण भेजता हूँ; यहाँ तक कि गत वर्ष म्युनिसिपैलिटी से इसे पुरस्कार भी दिला दिया था। इन सब खातिरदारियों का यह उपहार है! कुत्तो की दुम को सौ वर्षों तक गाड़ रखो, तो भी टेढ़ी-की-टेढ़ी। अब अपनी मान-रक्षा क्योंकर करूँ। इसके पास जाना तो उचित नहीं। क्या कोई बहाना सोचूँ?
राजा साहब बड़ी देर तक इसी पेसोपेश में पड़े रहे। कोई ऐसी बात सोच निकालना चाहते थे, जिससे हुक्काम की निगाहों में आबरू बनी रहे,साथ ही जनता के सामने भी ऑंखें नीची न करनी पड़ें; पर बुध्दि कुछ काम न करती थी। कई बार इच्छा हुई कि चलकर इंदु से इस समस्या को हल करने में मदद लूँ, पर यह समझकर कि कहीं वह कह दे कि ‘हुक्काम नाराज होते हैं, तो होने दो, तुम्हें उनसे क्या सरोकार; अगर वे तुम्हें दबाएँ, तो तुरंत त्याग-पत्र भेज दो’, तो फिर मेरे लिए निकलने का कोई रास्ता न रहेगा, उससे कुछ कहने की हिम्मत न पड़ी।
वह सारी रात इसी चिंता में डूबे रहे। इंदु भी कुछ गुमसुम थी। प्रात:काल दो-चार मित्र आ गए और उसी लेख की चर्चा की। एक साहब बोले—मैं कमिश्नर से मिलने गया था, तो वह उसी लेख को पढ़ रहा था और रह-रहकर जमीन पर पैर पटकता था।
राजा साहब के होश और भी उड़ गए। झट उन्हें एक उपाय सूझ गया। मोटर तैयार कराई और कमिश्नर के बँगले पर जा पहुँचे। यों तो यह महाशय राजा साहब का कार्ड पाते ही बुला लिया करते थे, आज अरदली ने कहा—साहब एक जरूरी काम कर रहे हैं, मेम साहब बैठी हैं,आप एक घंटा ठहरें।
राजा साहब समझ गए कि लक्षण अच्छे नहीं हैं। बैठकर एक अंगरेजी पत्रिका के चित्र देखने लगे—वाह, कितने साफ और सुंदर चित्र हैं! हमारी पत्रिकाओं में कितने भद्दे चित्र होते हैं, व्यर्थ ही कागज लीप-पोतकर खराब किया जाता है। किसी ने बहुत किया, तो बिहारीलाल के भावों को लेकर एक सुंदरी का चित्र बनवा दिया और उसके नीचे उसी भाव का दोहा लिख दिया; किसी ने पद्माकर के कवित्ता को चित्रित किया। बस,इसके आगे किसी की अक्ल नहीं दौड़ती।
किसी तरह एक घंटा गुजरा और साहब ने बुलाया। राजा साहब अंदर गए तो साहब की त्योरियाँ चढ़ी हुई देखीं। एक घंटे इंतजार से झुँझला गए थे, खड़े-खड़े बोले—आपको अवकाश हो, तो मैं कुछ कहूँ, नहीं तो फिर कभी आऊँगा।
कमिश्नर साहब ने रुखाई से पूछा—मैं पहले आपसे यह पूछना चाहता हूँ कि इस पत्र ने आपके विषय में जो आलोचना की है, वह आपकी नजर से गुजरी है?
राजा साहब—जी हाँ, देख चुका हूँ।
कमिश्नर—आप इसका कोई जवाब देना चाहते हैं?
राजा साहब—मैं इसकी कोई जरूरत नहीं समझता; अगर इतनी-सी बात पर मुझ पर अविश्वास किया जा सकता है और मेरी बरसों की वफादारी का कुछ विचार नहीं किया जाता, तो मुझे विवश होकर अपना पद-त्याग करना पड़ेगा। अगर आप वहाँ जाते, तो क्या इस पत्र को इतना साहस होता कि आपके विषय में यही आलोचना करता? हरगिज नहीं। यह मेरे भारतवासी होने का दंड है। जब तक मुझ पर ऐसी द्वेषपूर्ण टीका-टिप्पणी होती रहेगी, मैं नहीं समझ सकता कि अपनेर् कर्तव्य का कैसे पालन कर सकूँगा।
कमिश्नर ने कुछ नरम होकर कहा—गवर्नमेंट के हर एक कर्मचारी का धर्म है कि किसी को अपने ऊपर ऐेसे इलजाम लगाने का अवसर न दे।
राजा साहब—मैं जानता हूँ आप लोगों को यह किसी तरह भूल नहीं सकते कि मैं भारतवासी हूँ, इसी प्रकार मेरे बोर्ड के सहयोगियों के लिए यह भूल जाना असम्भव है कि मैं शासन का एक अंग हूँ। आप जानते हैं कि मैं बोर्ड में मिस्टर जॉन सेवक को पाँड़ेपुर की जमीन दिलाने का प्रस्ताव करनेवाला हूँ; लेकिन जब तक मैं अपने आचरण से यह सिध्द न कर दूँगा कि मैंने स्वत:, बगैर किसी दबाव के, केवल प्रजा के हित के लिए यह प्रस्ताव उपस्थित किया है, उसकी स्वीकृति की कोई आशा नहीं है। यही कारण है, जो मुझे कल स्टेशन पर ले गया था।
कमिश्नर की बाँछें खिल गईं। हँस-हँसकर बातें बनाने लगा।
राजा साहब—ऐसी दशा में क्या आप समझते हैं, मेरा जवाब देना जरूरी है?
कमिश्नर—नहीं-नहीं, कभी नहीं।
राजा साहब—मुझे आपसे पूरी सहायता मिलनी चाहिए।
कमिश्नर—मैं यथाशक्ति आपकी सहायता करूँगा।
राजा साहब—बोर्ड ने मंजूर भी कर लिया, तो मुहल्लेवालों की तरफ से फसाद की आशंका है।
कमिश्नर—कुछ परवा नहीं, मैं सुपरिंटेंडेंट-पुलिस को ताकीद कर दूँगा कि वह आपको मदद करते रहें।
राजा साहब यहाँ से चले, तो ऐसा मालूम होता था, मानो आकाश पर चल रहे हों। यहाँ से वह मि. क्लार्क के पास गए और वहाँ भी इसी नीति से काम लिया। दोपहर को घर आए। उनके हृदय में यह खयाल खटक रहा था कि इस बहाने से मेरा काम तो निकल गया; लेकिन मैं सूरदास के साथ कहीं ऐसी ज्यादती तो नहीं कर रहा हूँ कि अंत में मुझे नगरवासियों के सामने लज्जित होना पड़े? इसी विषय में बातचीत करने के लिए वह इंदु के पास आए और बोले—तुम कोई जरूरी काम तो नहीं कर रही हो? मुझे एक बात में तुमसे कुछ सलाह करनी है।
इंदु डरी कि कहीं सलाह करते-करते वाद-विवाद न होने लगे। बोली—काम तो कुछ नहीं कर रही हूँ; लेकिन मैं आपको कोई सलाह देने के योग्य नहीं हूँ। परमात्मा ने मुझे इतनी बुध्दि नहीं दी। मुझे तो उन्होंने केवल खाने, सोने और आपको दिक करने के लिए बनाया है।
राजा साहब—तुम्हारे दिक करने ही में तो मजा मिलता है। बतलाओ, सूरदास की जमीन के बारे में तुम्हारी क्या राय है? तुम मेरी जगह होतीं तो क्या करतीं?
इंदु—आखिर आपने क्या निश्चय किया?
राजा साहब—पहले तुम बताओ, तो फिर मैं बताऊँगा।
इंदु—मेरी राय में तो सूरदास से उसके बाप-दादों की जायदाद छीन लेना अन्याय होगा।
राजा साहब—तुम्हें मालूम है कि सूरदास को इस जायदाद से कोई लाभ नहीं होता, केवल इधर-उधर के ढोर चरा करते हैं?
इंदु—उसे यह इतमीनान तो है कि जमीन मेरी है। मुहल्लेवाले उसका एहसान तो मानते ही होंगे? उसकी धर्म-प्रवृत्ति पुण्य कार्य से संतुष्ट होगी।
राजा साहब—लेकिन मैं नगर के मुख्य व्यवस्थापक की हैसियत से एक व्यक्ति के यथार्थ या कल्पित हित के लिए नगर का हजारों रुपये का नुकसान तो नहीं करा सकता? कारखाना खुलने से हजारों मनुष्यों की जीविका चलेगी, नगर की आय में वृध्दि होगी, सबसे बड़ी बात यह है कि उस अमित धान का भाग देश में रह जाएगा, जो सिगरेट के लिए अन्य देशों को देना पड़ता है।
इंदु ने राजा के मुँह की ओर तीव्र दृष्टि से देखा। सोचा—इनका अभिप्राय क्या है? पूँजीपतियों से तो इन्हें विशेष प्रेम नहीं है। यह तो सलाह,नहीं, बहस है। क्या अधिकारियों के दबाव से इन्होंने जमीन को मिस्टर सेवक के अधिकार में देने का फैसला कर लिया है और मुझसे अपने निश्चय का अनुमोदन कराना चाहते हैं? इनके भाव से तो कुछ ऐसा ही प्रकट हो रहा है। बोली—इस दृष्टिकोण से तो यही न्यायसंगत है कि सूरदास की जमीन छीन ली जाए।
राजा साहब—भई, इतनी जल्द पहलू बदलने की सनद नहीं। अपनी उसी युक्ति पर स्थिर रहो। मैं केवल सलाह नहीं चाहता, मैं यह देखना चाहता हूँ कि तुम इस विषय में क्या-क्या शंकाएँ कर सकती हो, और मैं उनका संतोषजनक उत्तर दे सकता हूँ या नहीं? मुझे जो कुछ करना था, कर चुका; अब तुमसे तर्क करके अपना इतमीनान करना चाहता हूँ।
इंदु—अगर मेरे मुँह से कोई अप्रिय शब्द निकल जाए, तो आप नाराज तो न होंगे?
राजा साहब—इसकी परवा न करो, जातीय सेवा का दूसरा नाम बेहयाई है। अगर जरा-जरा-सी बात पर नाराज होने लगें, तो हमें पागलखाने जाना पड़े।
इंदु—यदि एक व्यक्ति के हित के लिए आप नगर का अहित नहीं करना चाहते तो क्या सूरदास ही ऐसा व्यक्ति है, जिसके पास दस बीघे जमीन हो? ऐसे लोग भी तो नगर में हैं, जिनके पास इससे कहीं ज्यादा जमीन है। कितने ही ऐसे बँगले हैं, जिनका घेरा दस बीघे से अधिक है। हमारे बँगले का क्षेत्र पंद्रह बीघे से कम न होगा। मि. सेवक के बँगले का भी पाँच बीघे से कम का घेरा नहीं है और दादाजी का भवन तो पूरा एक गाँव है। आप इनमें से कोई भी जमीन इस कारखाने के लिए ले सकते हैं। सूरदास की जमीन में तो मोहल्ले के ढोर चरते हैं। अधिक नहीं, तो एक मोहल्ले का फायदा तो होता ही है। इन हातों से तो एक व्यक्ति के सिवा और किसी का कुछ फायदा नहीं होता, यहाँ तक कि कोई उनमें सैर भी नहीं कर सकता, एक फूल या पत्ती भी नहीं तोड़ सकता। अगर कोई जानवर अंदर चला जाए, तो उसे तुरंत गोली मार दी जाए।
राजा साहब—(मुस्कराकर) बड़े मार्के की युक्ति है। कायल हो गया। मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं। लेकिन शायद मालूम नहीं कि उस अंधे को तुम जितना दीन और असहाय समझती हो, उतना नहीं है। सारा मोहल्ला उसकी हिमायत करने पर तैयार है; यहाँ तक कि लोग मि. सेवक के गुमाश्ते के घर में घुस गए, उनके भाइयों को मारा, आग लगा दी, स्त्रियों तक की बेइज्जती की।
इंदु—मेरे विचार में तो यह इस बात का एक और प्रमाण है कि उस जमीन को छोड़ दिया जाए। उस पर कब्जा करने से ऐसी घटनाएँ कम न होंगी, बढ़ेंगी। मुझे तो भय है, कहीं खून-खराबा न हो जाए।
राजा साहब—जो लोग स्त्रियों की बेइज्जती कर सकते हैं, वे दया के योग्य नहीं।
इंदु—जिन लोगों की जमीन आप छीन लेंगे, वे आपके पाँव न सहलाएँगे।
राजा साहब—आश्चर्य है, तुम स्त्रियों के अपमान को मामूली बात समझ रही हो।
इंदु—फौज के गोरे, रेल के कर्मचारी, नित्य हमारी बहनों का अपमान करते रहते हैं, उनसे तो कोई नहीं बोलता। इसीलिए कि आप उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकते। अगर लोगों ने उपद्रव किया है, तो अपराधियों पर मुकदमा दायर कीजिए, उन्हें दंड दिलाइए। उनकी जायदाद क्यों जब्त करते हैं?
राजा साहब—तुम जानती हो, मि. सेवक की यहाँ के अधिकारियों से कितनी राह-रस्म है। मिस्टर क्लार्क तो उनके द्वार के दरबान बने हुए हैं। अगर मैं उनकी इतनी सेवा न कर सका, तो हुक्काम का विश्वास मुझ पर से उठ जाएगा।
इंदु ने चिंतित स्वर में कहा—मैं नहीं जानती थी कि प्रधान की दशा इतनी शोचनीय होती है।
राजा साहब—अब तो मालूम हो गया। बतलाओ, अब मुझे क्या करना चाहिए?
इंदु—पद-त्याग।
राजा साहब—मेरे पद त्याग से जमीन बच सकेगी?
इंदु—आप दोष-पाप से तो मुक्त हो जाएँगे!
राजा साहब—ऐसी गौण बातों के लिए पद-त्याग हास्यजनक है।
इंदु को अपने पति के प्रधान होने का बड़ा गर्व था। इस पद को वह बहुत श्रेष्ठ और आदरणीय समझती थी। उसका ख्याल था कि यहाँ राजा साहब पूर्ण रूप से स्वतंत्रा हैं, बोर्ड उनके अधाीन है, जो चाहते हैं, करते हैं, पर अब विदित हुआ कि उसे कितना भ्रम था। उसका गर्व चूर-चूर हो गया। उसे आज ज्ञात हुआ कि प्रधान केवल राज्याधिकारियों के हाथों का खिलौना है। उनकी इच्छा से जो चाहे करे, उनकी इच्छा के प्रतिकिूल कुछ नहीं कर सकता। वह संख्या का बिंदु है, जिसका मूल्य केवल दूसरी संख्याओं के सहयोग पर निर्भर है। राजा साहब की पद-लोलुपता उसे कुठाराघात के समान लगी। बोली—उपहास इतना निंद्य नहीं है, जितना अन्याय। मेरी समझ में नहीं आता कि आपने इस पद की कठिनाइयों को जानते हुए भी क्यों इसे स्वीकार किया। अगर आप न्याय-विचार से सूरदास की जमीन का अपहरण करते, तो मुझे आपसे कोई शिकायत न होती; लेकिन केवल अधिकारियों के भय से या बदनामी से बचने के लिए न्याय-पथ से मुँह फेरना अत्यंत अपमानजनक है। आपको नगरवासियों और और विशेषत: दीनजनों के स्वत्व की रक्षा करनी चाहिए। अगर हुक्काम किसी पर अत्याचार करें, तो आपको उचित है कि दुखियों की हिमायत करें। निजी हानि-लाभ की चिंता न करके हुक्काम का विरोध करें, सारे नगर में—सारे देश में-तहलका मचा दें, चाहे इसके लिए पद-त्याग ही नहीं, किसी बड़ी-से-बड़ी विपत्ति का सामना करना पड़े। मैं राजनीति के सिध्दांतों से परिचित नहीं हूँ। पर आपका जो मानवीय धर्म है, वह आपसे कह रही हूँ। मैं आपको सचेत किए देती हूँ कि आपने अगर हुक्काम के दबाव से सूरदास की जमीन ली, तो मैं चुपचाप बैठी न रह सकूँगी। स्त्री हूँ तो क्या; पर दिखा दूँगी कि सबल-से-सबल प्राणी भी किसी दीन को आसानी से पैरों-तले नहीं कुचल सकता।
यह कहते-कहते इंदु रुक गई। उसे धयान आ गया कि मैं आवेश में आकर औचित्य की सीमा से बाहर होती जाती हूँ। राजा साहब इतने लज्जित हुए कि बोलने को शब्द न मिलते थे। अंत में शरमाते हुए बोले—तुम्हें मालूम नहीं कि राष्ट्र के सेवकों को कैसी-कैसी मुसीबतें झेलनी पड़ती हैं। अगर वे अपनेर कर्तव्य का निर्भय होकर पालन करने लगें, तो जितनी सेवा वे अब कर सकते हैं, उतनी भी न कर सकें। मि. क्लार्क और मि. सेवक में विशेष घनिष्ठता हो जाने के कारण परिस्थिति बिलकुल बदल गई है। मिस सेवक जब से तुम्हारे घर से गई है, मि. क्लार्क नित्य ही उन्हीं के पास बैठे रहते हैं, इजलास पर नहीं जाते, कोई सरकारी काम नहीं करते, किसी से मिलते तक नहीं। मिस सेवक ने उन पर मोहिनी-मंत्र-सा डाल दिया है। दोनों साथ-साथ सैर करने जाते हैं, साथ-साथ थिएटर देखने जाते हैं। मेरा अनुमान है कि मि. सेवक ने वचन दे दिया है।
इंदु—इतनी जल्दी! अभी उसे हमारे यहाँ से गए एक सप्ताह से ज्यादा न हुआ होगा।
राजा साहब—मिसेज़ सेवक ने पहले से ही सब कुछ पक्का कर रखा था। मिस सेवक के वहाँ जाते ही प्रेम-क्रीड़ा शुरू हो गई।
इंदु ने अब तक सोफ़िया को एक साधारण ईसाई की लड़की समझ रखा था। यद्यपि वह उससे बहन का-सा बर्ताव करती थी, उसकी योग्यता का आदर करती थी, उससे प्रेम करती थी, किंतु दिल में उसे अपने से नीचा समझती थी। पर मि. क्लार्क से उसके विवाह की बात ने उसके हृद्गत भावों को आंदोलित कर दिया। सोचने लगी—मि. क्लार्क से विवाह हो जाने के बाद जब सोफ़िया मिसेज क्लार्क बनकर मुझसे मिलेगी, तो अपने मन में मुझे तुच्छ समझेगी; उसके व्यवहार में, बातों में, शिष्टाचार में बनावटी नम्रता की झलक होगी, वह मेरे सामने जितना ही झुकेगी, उतना ही मेरा सिर नीचा करेगी। यह अपमान मेरे सहे न सहा जाएगा। मैं उससे नीची बनकर नहीं रह सकती। इस अभागे क्लार्क को क्या कोई योरपियन लेडी न मिलती थी कि सोफ़िया पर गिर पड़ा! कुल का नीचा होगा, कोई अंगरेज उससे अपनी लड़की का विवाह करने पर राजी न होता होगा। विनय इसी छिछोरी स्त्री पर जान देता है। ईश्वर ही जाने, अब उस बेचारे की क्या दशा होगी। कुलटा है, और क्या। जाति और कुल का प्रभाव कहाँ जाएगा? सुंदरी है, सुशिक्षित है, चतुर है, विचारशील है, सब कुछ सही; पर है तो ईसाइन। बाप ने लोगों को ठग-ठगाकर कुछ धान और सम्मान प्राप्त कर लिया है। इससे क्या होता है। मैं तो अब भी उससे वही पहले का-सा बर्ताव करूँगी। जब तक वह स्वयं आगे न बढ़ेगी, हाथ न बढ़ाऊँगी। लेकिन मैं चाहे जो कुछ करूँ, उस पर चाहे कितना ही बड़प्पन जताऊँ, उसके मन में यह अभिमान तो अवश्य ही होगा कि मेरी एक कड़ी निगाह उसके पति के सम्मान और अधिकार को खाक में मिला सकती है। सम्भव है, वह अब और भी विनीत भाव से पेश आए। अपने सामर्थ्य का ज्ञान हमें शीलवान बना देता है। मेरा उससे मान करना, तनना हँसी मालूम होगी। उसकी नम्रता से तो उसका ओछापन ही अच्छा। ईश्वर करे, वह मुझसे सीधो मुँह बात न करे, तब देखनेवाले उसे मन में धिक्कारेंगे इसी में अब मेरी लाज रह सकती है; पर वह इतनी अविचारशील कहाँ है!
अंत में इंदु ने निश्चय किया—मैं सोफ़िया से मिलूँगी ही नहीं। मैं अपने रानी होने का अभिमान तो उससे कर ही नहीं सकती। हाँ, एक जाति-सेवक की पत्नी बनकर, अपने कुलगौरव का गर्व दिखाकर उसकी उपेक्षा कर सकती हूँ।
ये सब बातें एक क्षण में इंदु के मन में आ गईं। बोली—मैं आपको कभी दबने की सलाह न दूँगी।
राजा साहब—और यदि दबना पड़े?
इंदु—तो अपने को अभागिनी समझूँगी।
राजा साहब—यहाँ तक तो कोई हानि नहीं; पर कोई आंदोलन तो न उठाओगी? यह इसलिए पूछता हूँ कि तुमने अभी मुझे यह धमकी दी है।
इंदु—मैं चुपचाप न बैठूँगी। आप दबें, मैं क्यों दबूँ?
राजा साहब—चाहे मेरी कितनी ही बदनामी हो जाए?
इंदु—मैं इसे बदनामी नहीं समझती।
राजा साहब—फिर सोच लो। यह मानी हुई बात है कि वह जमीन मि. सेवक को अवश्य मिलेगी। मैं रोकना भी चाहूँ, तो नहीं रोक सकता,और यह भी मानी हुई बात है कि इस विषय में तुम्हें मौनव्रत का पालन करना पड़ेगा।
राजा साहब अपने सार्वजनिक जीवन में अपनी सहिष्णुता और मृदु व्यवहार के लिए प्रसिध्द थे; पर निजी व्यवहारों में वह इतने क्षमाशील न थे। इंदु का चेहरा तमतमा उठा, तेज होकर बोली—अगर आपको अपना सम्मान प्यारा है, तो मुझे भी अपना धर्म प्यारा है।
राजा साहब गुस्से के मारे वहाँ से उठकर चले गए और इंदु अकेली रह गई।
साठ-आठ दिनों तक दोनों के मुँह में दही जमा रहा। राजा साहब कभी घर में आ जाते, तो दो-चार बातें करके यों भागते, जैसे पानी में भीग रहे हों। न वह बैठते, न इंदु उन्हें बैठने को कहती। उन्हें यह दु:ख था कि इसे मेरी ज़रा भी परवाह नहीं है। पग-पग पर मेरा रास्ता रोकती है। मैं अपना पदत्याग दूँ, तब इसे तस्कीन होगी। इसकी यही इच्छा है कि सदा के लिए दुनिया से मुँह मोड़ लूँ, संसार से नाता तोड़ लूँ, घर में बैठा-बैठा राम-नाम भजा करूँ, हुक्काम से मिलना-जुलना छोड़ दूँ, उनकी ऑंखों में गिर जाऊँ, पतित हो जाऊँ। मेरे जीवन की सारी अभिलाषाएँ और कामनाएँ इसके सामने तुच्छ हैं, दिल में मेरे सम्मान-भक्ति पर हँसती है। शायद मुझे नीच, स्वार्थी और आत्मसेवी समझती है। इतने दिनों तक मेरे साथ रहकर भी इसे मुझसे प्रेम नहीं हुआ, मुझसे मन नहीं मिला। पत्नी पति की हितचिंतक होती है, यह नहीं कि उसके कामों का मजाक उड़ाए, उसकी निंदा करे। इसने साफ कह दिया है कि मैं चुपचाप न बैठूँगी। न जाने क्या करने का इरादा है। अगर समाचारपत्रों में एक छोटा-सा पत्र भी लिख देगी, तो मेरा काम तमाम हो जाएगा, कहीं का न रहूँगा, डूब मरने का समय होगा। देखूँ, यह नाव कैसे पार लगती है।
इधार इंदु को दु:ख था कि ईश्वर ने इन्हें सब कुछ दिया है, यह हाकिमों से क्यों इतना दबते हैं, क्यों इतनी ठकुरसुहाती करते हैं, अपने सिध्दांतों पर स्थिर क्यों नहीं रहते, उन्हें क्यों स्वार्थ के नीचे रखते हैं, जाति-सेवा का स्वाँग क्यों भरते हैं? वह भी कोई आदमी है, जिसने मानापमान के पीछे धर्म और न्याय का बलिदान कर दिया हो? एक वे योध्दा थे, जो बादशाहों के सामने सिर न झुकाते थे, अपने वचन पर,अपनी मर्यादा पर मर मिटते थे। आखिर लोग इन्हें क्या कहते होंगे। संसार को धोखा देना आसान नहीं। इन्हें चाहे भ्रम हो कि लोग मुझे जाति का सच्चा भक्त समझते हैं; पर यथार्थ में सभी इन्हें पहचानते हैं। सब मन में कहते होंगे, कितना बना हुआ आदमी है!
शनै:-शनै: उसके विचारों में परिवर्तन होने लगा—यह उनका कसूर नहीं है, मेरा कसूर है। मैं क्यों उन्हें अपने आदर्श के अनुसार बनाना चाहती हूँ? आजकल प्राय: इसी स्वभाव के पुरुष होते हैं। उन्हें संसार चाहे कुछ कहे, चाहे कुछ समझे, पर उनके घरों में तो कोई मीन-मेख नहीं निकालता। स्त्री कार् कर्तव्य है कि अपने पुरुष की सहगामिनी बने। पर प्रश्न यह है, क्या स्त्री का अपने पुरुष से पृथक् कोई अस्तित्व नहीं है? इसे तो बुध्दि स्वीकार नहीं करती। दोनों अपने कर्मानुसार पाप-पुण्य के अधिकारी होते हैं। वास्तव में यह हमारे भाग्य का दोष है,.अन्यथा हमारे विचारों में क्यों इतना भेद होता? कितना चाहती हूँ कि आपस में कोई अंतर न होने पाए, कितना बचाती हूँ, पर आए दिन कोई-न-कोई विघ्न उपस्थित हो ही जाता है। अभी एक घाव नहीं भरने पाया था कि दूसरा चरका लगा। क्या मेरा सारा जीवन यों ही बीतेगा?हम जीवन में शांति की इच्छा रखते हैं, प्रेम और मैत्री के लिए जान देते हैं। जिसके सिर पर नित्य नंगी तलवार लटकती हो, उसे शांति कहाँ? अंधेर तो यह है कि मुझे चुप भी नहीं रहने दिया जाता। कितना कहती थी कि मुझे इस बहस में न घसीटिए, इन काँटों में न दौड़ाइए,पर न माना। अब जो मेरे पैरों में काँटे चुभ गए, दर्द से कराहती हूँ, तो कानों पर उँगली रखते हैं। मुझे रोने की स्वाधीनता भी नहीं। ‘जबर मारे और रोने न दे।’ आठ दिन गुजर गए, बात भी नहीं पूछी कि मरती हो या जीती। बिल्कुल उसी तरह पड़ी हूँ, जैसे कोई सराय हो। इससे तो कहीं अच्छा था कि मर जाती। सुख गया, आराम गया, पल्ले क्या पड़ा, रोना और झींकना। जब यही दशा है, तो कब तक निभेगी, ‘बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी?’ दोनों के दिल एक दूसरे से फिर जाएँगे, कोई किसी की सूरत भी न देखना चाहेगा।
शाम हो गई थी। इंदु का चित्ता बहुत घबरा रहा था। उसने सोचा, जरा अम्माँ जी के पास चलूँ कि सहसा राजा साहब सामने आकर खड़े हो गए। मुख निष्प्रभ हो रहा था, मानो घर में आग लगी हुई हो। भय-कम्पित स्वर में बोले—इंदु, मिस्टर क्लार्क मिलने आए हैं। अवश्य उसी जमीन के सम्बंध में कुछ बातचीत करेंगे। अब मुझे क्या सलाह देती हो? मैं एक कागज लाने का बहाना करके चला आया हूँ।
यह कहकर उन्होंने बड़े कातर नेत्रों से इंदु की ओर देखा, मानो सारे संसार की विपत्ति उन्हीं के सिर आ पड़ी हो, मानो कोई देहाती किसान पुलिस के पंजे में फँस गया हो। जरा साँस लेकर फिर बोले—अगर मैंने इनसे विरोध किया, तो मुश्किल में फँस जाऊँगा। तुम्हें मालूम नहीं, इन अंगरेज़ हुक्काम के कितने अधिकार होते हैं। यों चाहूँ, तो इसे नौकर रख लूँ, मगर इसकी एक शिकायत में मेरी सारी आबरू खाक में मिल जाएगी। ऊपरवाले हाकिम इसके खिलाफ मेरी एक भी न सुनेंगे। रईसों को इतनी स्वतंत्रता भी नहीं, जो एक साधारण किसान को है। हम सब इनके हाथों के खिलौने हैं; जब चाहें, जमीन पर पटककर चूर-चूर कर दें। मैं इसकी बात दुलख नहीं सकता। मुझ पर दया करो, मुझ पर दया करो!
इंदु ने क्षमा-भाव से देखकर कहा—मुझसे आप क्या करने को कहते हैं?
राजा साहब—यही कि या तो मौन रहकर इस अत्याचार का तमाशा देखो, या मुझे अपने हाथों से थोड़ी-सी संखिया दे दो।
राजा साहब की इस कापुरुषता और विवशता, उनके भय-विकृत मुखमंडल, दयनीय दीनता तथा क्षमा-प्रार्थना पर इंदु करुणार्द्र हो गई—इस करुणा में सहानुभूति न थी, सम्मान न था। यह वह दया थी, जो भिखारी को देखकर किसी उदार प्राणी के हृदय में उत्पन्न होती है। सोचा—हा! इस भय का भी कोई ठिकाना है! बच्चे हौआ से भी इतना न डरते होंगे। मान लिया, क्लार्क नाराज ही हो गया, तो क्या करेगा? पद से वंचित नहीं कर सकता, यह उसके सामर्थ्य के बाहर है; रियासत जब्त नहीं कर सकता, हाहाकार मच जाएगा। अधिक-से-अधिक इतना कर सकता है कि अफसरों को शिकायत लिख भेजे। पर इस समय इनसे तर्क करना व्यर्थ है। इनके होश-हवास ठिकाने नहीं हैं। बोली—अगर आप समझते हैं कि क्लार्क की अप्रसन्नता आपके लिए दुस्सह है, तो जिस बात से वह प्रसन्न हो, वही कीजिए। मैं वादा करती हूँ कि आपके बीच में मुँह न खोलूँगी। जाइए, साहब को देर हो रही होगी, कहीं इसी बात पर न नाराज हो जाएँ!
राजा साहब इस व्यंग्य से दिल में ऐंठकर रह गए। नन्हा-सा मुँह निकल आया। चुपके से उठे और चले गए, वैसे ही, जैसे गरज का बावला आसामी महाजन के इनकार से निराश होकर उठे। इंदु के आश्वासन से उन्हें संतोष न हुआ। सोचने लगे—मैं इसकी नजरों में गिर गया। बदनामी से इतना डरता था, पर घर ही में मुँह दिखाने लायक न रहा।
राजा साहब के जाते ही इंदु ने एक लम्बी साँस ली और फर्श पर लेट गई। उसके मुँह से सहसा ये शब्द निकले—इनका हृदय से कैसे सम्मान करूँ? इन्हें अपना उपास्य देव कैसे समझूँ? नहीं जानती, इस अभक्ति के लिए क्या दंड मिलेगा। मैं अपने पति की पूजा करना चाहती हूँ; पर दिल पर मेरा काबू नहीं! भगवन्! तुम मुझे इस कठिन परीक्षा में क्यों डाल रहे हो?