रंगभूमि: अध्याय 2
सूरदास लाठी टेकता हुआ धीरे-धीरे घर चला। रास्ते में चलते-चलते सोचने लगा-यह है बड़े आदमियों की स्वार्थपरता! पहले कैसे हेकड़ी दिखाते थे, मुझे कुत्तो से भी नीचा समझा; लेकिन ज्यों ही मालूम हुआ कि जमीन मेरी है, कैसी लल्लो-चप्पो करने लगे। इन्हें मैं अपनी जमीन दिए देता हूँ। पाँच रुपये दिखाते थे, मानो मैंने रुपये देखे ही नहीं। पाँच तो क्या, पाँच सौ भी दें, तो भी जमीन न दूँगा। मुहल्लेवालों को कौन मुँह दिखाऊँगा। इनके कारखाने के लिए बेचारी गउएँ मारी-मारी फिरें! ईसाइयों को तनिक भी दया-धर्म का विचार नहीं होता। बस, सबको ईसाई ही बनाते फिरते हैं। कुछ नहीं देना था, तो पहले ही दुत्कार देते। मील-भर दौड़ाकर कह दिया, चल हट। इन सबों में मालूम होता है, उसी लड़की का स्वभाव अच्छा है। उसी में दया-धर्म है। बुढ़िया तो पूरी करकसा है, सीधो मुँह बात ही नहीं करती। इतना घमंड! जैसे यही विक्टोरिया हैं। राम-राम, थक गया। अभी तक दम फूल रहा है। ऐसा आज तक कभी न हुआ था कि इतना दौड़ाकर किसी ने कोरा जवाब दे दिया हो। भगवान् की यही इच्छा होगी। मन, इतने दु:खी न हो। माँगना तुम्हारा काम है, देना दूसरों का काम है। अपना धान है, कोई नहीं देता, तो तुम्हें बुरा क्यों लगता है? लोगों से कह दूँ कि साहब जमीन माँगते थे? नहीं सब घबरा जाएँगे। मैंने जवाब तो दे दिया, अब दूसरों से कहने का परोजन ही क्या?
यह सोचता हुआ वह अपने द्वार पर आया। बहुत ही सामान्य झोंपड़ी थी। द्वार पर एक नीम का वृक्ष था। किवाड़ों की जगह बाँस की टहनियों की एक टट्टी लगी हुई थी। टट्टी हटाई। कमर से पैसों की छोटी-सी पोटली निकाली, जो आज दिन-भर की कमाई थी। तब झोपड़ी की छान टटोलकर एक थैली निकाली, जो उसके जीवन का सर्वस्व थी। उसमें पैसों की पोटली बहुत धीरे से रखी कि किसी के कानों में भनक भी न पड़े। फिर थैली को छान में छिपाकर वह पड़ोस के एक घर से आग माँग लाया। पेड़ों के नीचे कुछ सूखी टहनियाँ जमाकर रखी थीं, उनसे चूल्हा जलाया। झोंपड़ी में हलका-सा अस्थिर प्रकाश हुआ। कैसी विडम्बना थी? कितना नैराश्य-पूर्ण दारिद्रय था! न खाट, न बिस्तर; न बरतन, न भाँड़े। एक कोने में एक मिट्टी का घड़ा था, जिसकी आयु का कुछ अनुमान उस पर जमी हुई काई से हो सकता था। चूल्हे के पास हाँडी थी। एक पुराना, चलनी की भाँति छिद्रों से भरा हुआ तवा, एक छोटी-सी कठौती और एक लोटा। बस, यही उस घर की सारी संपत्ति थी। मानव-लालसाओं का कितना संक्षिप्त स्वरूप! सूरदास ने आज जितना नाज पाया था, वह ज्यों-का-त्यों हाँडी में डाल दिया। कुछ जौ थे, कुछ गेहूँ, कुछ मटर, कुछ चने, थोड़ी-सी जुआर और मुट्ठीभर चावल। ऊपर से थोड़ा-सा नमक डाल दिया। किसकी रसना ने ऐसी खिचड़ी का मजा चखा है? उसमें संतोष की मिठास थी, जिससे मीठी संसार में कोई वस्तु नहीं। हाँडी को चूल्हे पर चढ़ाकर वह घर से निकला, द्वार पर टट्टी लगाई और सड़क पर जाकर एक बनिए की दूकान से थोड़ा-सा आटा और एक पैसे का गुड़ लाया। आटे को कठौती में गूँधा और तब आधा घंटे तक चूल्हे के सामने खिचड़ी का मधुर आलाप सुनता रहा। उस धुंधले प्रकाश में उसका दुर्बल शरीर और उसका जीर्ण वस्त्र मनुष्य के जीवन-प्रेम का उपहास कर रहा था।
हाँडी में कई बार उबाल आए, कई बार आग बुझी। बार-बार चूल्हा फँकते-फूँकते सूरदास की आंखों से पानी बहने लगता था। ऑंखें चाहे देख न सकें, पर रो सकती हैं। यहाँ तक कि वह ‘षड़रस युक्त अवलेह तैयार हुआ। उसने उसे उतारकर नीचे रखा। तब तवा चढ़ाया और हाथों से रोटियाँ बनाकर सेंकने लगा। कितना ठीक अंदाज था। रोटियाँ सब समान थीं-न छोटी, न बड़ी; न सेवड़ी, न जली हुई। तवे से उतार-उतारकर रोटियों को चूल्हे में खिलाता था, और जमीन पर रखता जाता था। जब रोटियाँ बन गईं तो उसने द्वार पर खड़े होकर जोर से पुकारा-‘मिट्ठू, आओ बेटा, खाना तैयार है।’ किंतु जब मिट्ठू न आया, तो उसने फिर द्वार पर टट्टी लगाई, और नायकराम के बरामदे में जाकर ‘मिट्ठू-मिट्ठू’ पुकारने लगा। मिट्ठू वहीं पड़ा सो रहा था, आवाज सुनकर चौंका। बारह-तेरह वर्ष का सुंदर हँसमुख बालक था। भरा हुआ शरीर, सुडौल हाथ-पाँव। यह सूरदास के भाई का लड़का था। माँ-बाप दोनों प्लेग में मर चुके थे। तीन साल से उसके पालन-पोषण का भार सूरदास ही पर था। वह इस बालक को प्राणों से भी प्यारा समझता था। आप चाहे फाके करे, पर मिट्ठू को तीन बार अवश्य खिलाता था। आप मटर चबाकर रह जाता था, पर उसे शकर और रोटी, कभी घी और नमक के साथ रोटियाँ खिलाता था। अगर कोई भिक्षा में मिठाई या गुड़ दे देता, तो उसे बड़े यत्न से अंगोछे के कोने में बाँध लेता और मिट्ठू को ही देता था। सबसे कहता, यह कमाई बुढ़ापे के लिए कर रहा हूँ। अभी तो हाथ-पैर चलते हैं, माँग-खाता हूँ; जब उठ-बैठ न सकूँगा, तो लोटा-भर पानी कौन देगा? मिट्ठू को सोते पाकर गोद में उठा लिया, और झोंपड़ी के द्वार पर उतारा। तब द्वार खोला, लड़के का मुँह धुलवाया, और उसके सामने गुड़ और रोटियाँ रख दीं। मिट्ठू ने रोटियाँ देखीं, तो ठुनककर बोला-मैं रोटी और गुड़ न खाऊँगा। यह कहकर उठ खड़ा हुआ।
सूरदास—बेटा, बहुत अच्छा गुड़ है, खाओ तो। देखो, कैसी नरम-नरम रोटियाँ हैं। गेहूँ की हैं।
मिट्ठू—मैं न खाऊँगा।
सूरदास—तो क्या खाओगे बेटा? इतनी रात गए और क्या मिलेगा?
मिट्ठू—मैं तो दूध-रोटी खाऊँगा।
सूरदास—बेटा, इस जून खा लो। सबेरे मैं दूध ला दूँगा।
मिट्ठू रोने लगा। सूरदास उसे बहलाकर हार गया, तो अपने भाग्य को रोता हुआ उठा, लकड़ी सँभाली और टटोलता हुआ बजरंगी अहीर के घर आया, जो उसके झोंपड़े के पास ही था। बजरंगी खाट पर बैठा नारियल पी रहा था। उसकी स्त्री जमुनी खाना पकाती थी। ऑंगन में तीन भैंसें और चार-पाँच गायें चरनी पर बँधी हुई चारा खा रही थीं। बजरंगी ने कहा—कैसे चले सूरे? आज बग्घी पर कौन लोग बैठे तुमसे बातें कर रहे थे?
सूरदास—वही गोदाम के साहब थे।
बजरंगी—तुम तो बहुत दूर तक गाड़ी के पीछे दौड़े, कुछ हाथ लगा?
सूरदास—पत्थर हाथ लगा। ईसाइयों में भी कहीं दया-धर्म होता है। मेरी वही जमीन लेने को कहते थे।
बजरंगी—गोदाम के पीछेवाली न?
सूरदास—हाँ वहीं, बहुत लालच देते रहे, पर मैंने हामी नहीं भरी।
सूरदास ने सोचा था, अभी किसी से यह बात न कहूँगा, पर इस समय दूध लेने के लिए खुशामद जरूरी थी। अपना त्याग दिखाकर सुर्खरू बनना चाहता था।
बजरंगी—तुम हामी भरते, तो यहाँ कौन उसे छोड़े देता था। तीन-चार गाँवों के बीच में वही तो जमीन है। वह निकल जाएगी, तो हमारी गायें और भैंसें कहाँ जाएँगी?
जमुनी—मैं तो इन्हीं के द्वार पर सबको बाँध आती।
सूरदास—मेरी जान निकल जाए, तब तो बेचूँ ही नहीं, हजार-पाँच सौ की क्या गिनती। भौजी, एक घूँट दूध हो तो दे दो। मिठुआ खाने बैठा है। रोटी और गुड़ छूता ही नहीं, बस, दूध-दूध की रट लगाए हुए है। जो चीज घर में नहीं होती, उसी के लिए जिद करता है। दूध न पाएगा तो बिना खाए ही सो रहेगा।
बजरंगी—ले जाओ, दूध का कौन अकाल है। अभी दुहा है। घीसू की माँ, एक कुल्हिया दूध दे दे सूरे को।
जमुनी—जरा बैठ जाओ सूरे, हाथ खाली हो, तो दूँ।
बजरंगी—वहाँ मिठुआ खाने बैठा है, तैं कहती है, हाथ खाली हो तो दूँ। तुझसे न उठा जाए, तो मैं आऊँ।
जमुनी जानती थी कि यह बुध्दू दास उठेंगे, तो पाव के बदले आधा सेर दे डालेंगे। चटपट रसोई से निकल आई। एक कुल्हिया में आधा पानी लिया, ऊपर से दूध डालकर सूरदास के पास आई और विषाक्त हितैषिता से बोली—यह लो, लौंडे की जीभ तुमने ऐसी बिगाड़ दी है कि बिना दूध के कौर नहीं उठाता। बाप जीता था, तो भर-पेट चने भी न मिलते थे, अब दूध के बिना खाने ही नहीं उठता।
सूरदास—क्या करूँ भाभी, रोने लगता है, तो तरस आता है।
जमुनी—अभी इस तरह पाल-पोस रहे हो कि एक दिन काम आएगा, मगर देख लेना, जो चुल्लू-भर पानी को भी पूछे। मेरी बात गाँठ बाँध लो। पराया लड़का कभी अपना नहीं होता। हाथ-पाँव हुए, और तुम्हें दुत्कारकर अलग हो जाएगा। तुम अपने लिए साँप पाल रहे हो।
सूरदास—जो कुछ मेरा धरम है, किए देता हूँ। आदमी होगा, तो कहाँ तक जस न मानेगा। हाँ, अपनी तकदीर ही खोटी हुई, तो कोई क्या करेगा। अपने ही लड़के क्या बड़े होकर मुँह नहीं फेर लेते?
जमुनी—क्यों नहीं कह देते, मेरी भैंसें चरा लाया करे। जवान तो हुआ, क्या जन्मभर नन्हा ही बना रहेगा? घीसू ही का जोड़ी-पारी तो है। मेरी बात गाँठ बाँध लो। अभी से किसी काम में न लगाया, तो खिलाड़ी हो जाएगा। फिर किसी काम में उसका जी न लगेगा। सारी उमर तुम्हारे ही सिर फुलौरियाँ खाता रहेगा।
सूरदास ने इसका कुछ जवाब न दिया। दूध की कुल्हिया ली, और लाठी से टटोलता हुआ घर चला। मिट्ठू जमीन पर सो रहा था। उसे फिर उठाया, और दूध में रोटियाँ भिगोकर उसे अपने हाथ से खिलाने लगा। मिट्ठू नींद से गिरा पड़ता था, पर कौर सामने आते ही उसका मुँह आप-ही-आप खुल जाता। जब वह सारी रोटियाँ खा चुका है, तो सूरदास ने उसे चटाई पर लिटा दिया, और हाँडी से अपनी पँचमेल खिचड़ी निकालकर खाई। पेट न भरा, तो हाँड़ी धोकर पी गया। तब फिर मिट्ठू को गोद में उठाकर बाहर आया, द्वार पर टट्टी लगाई और मंदिर की ओर चला।
यह मंदिर ठाकुरजी का था, बस्ती के दूसरे सिरे पर। ऊँची कुरसी थी। मंदिर के चारों तरफ तीन-चार गज का चौड़ा चबूतरा था। यही मुहल्ले की चौपाल थी। सारे दिन दस-पाँच आदमी यहाँ लेटे या बैठे रहते थे। एक पक्का कुऑं भी था, जिस पर जगधार नाम का एक खोमचेवाला बैठा करता था। तेल की मिठाइयाँ, मूँगफली, रामदाने के लड्डू आदि रखता था। राहगीर आते, उससे मिठाइयाँ लेते, पानी निकालकर पीते और अपनी राह चले जाते। मंदिर के पुजारी का नाम दयागिरि था, जो इसी मंदिर के समीप एक कुटिया में रहते थे। सगुण ईश्वर के उपासक थे, भजन-कीर्तन को मुक्ति का मार्ग समझते थे और निर्वाण को ढोंग कहते थे। शहर के पुराने रईस कुँअर भरतसिंह के यहाँ मासिक वृत्ति बँधी हुई थी। इसी से ठाकुरजी का भोग लगता था। बस्ती से भी कुछ-न-कुछ मिल ही जाता था। नि:स्पृह आदमी था, लोभ छू भी नहीं गया था, संतोष और धीरज का पुतला था। सारे दिन भगवत्-भजन में मग्न रहता था। मंदिर में एक छोटी-सी संगत थी। आठ-नौ बजे रात को, दिन भर के काम-धांधो से निवृत्ता होकर, कुछ भक्तजन जमा हो जाते थे, और घंटे-दो घंटे भजन गाकर चले जाते थे। ठाकुरदीन ढोलक बजाने में निपुण था, बजरंगी करताल बजाता था, जगधार को तँबूरे में कमाल था, नायकराम और दयागिरि सारंगी बजाते थे। मँजीरेवालों की संख्या घटती-बढ़ती रहती थी। जो और कुछ न कर सकता, वह मँजीरा ही बजाता था। सूरदास इस संगत का प्राण था। वह ढोल, मँजीरे, करताल, सारंगी, तँबूरा सभी में समान रूप से अभ्यस्त था, और गाने में तो आस-पास के कई मुहल्लों में उसका जवाब न था। ठुमरी-गजल से उसे रुचि न थी। कबीर, मीरा, दादू, कमाल, पलटू आदि संतों के भजन गाता था। उस समय उसका नेत्राहीन मुख अति आनंद से प्रफुल्लित हो जाता था। गाते-गाते मस्त हो जाता, तन-बदन की सुधि न रहती। सारी चिंताएँ, सारे क्लेश भक्ति -सागर में विलीन हो जाते थे।
सूरदास मिट्ठू को लिए पहुँचा, तो संगत बैठ चुकी थी। सभासद आ गए थे, केवल सभापति की कमी थी। उसे देखते ही नायकराम ने कहा—तुमने बड़ी देर कर दी, आधा घंटे से तुम्हारी राह देख रहे हैं। यह लौंडा बेतरह तुम्हारे गले पड़ा है। क्यों नहीं इसे हमारे ही घर से कुछ माँगकर खिला दिया करते।
दयागिरि—यहाँ चला आया करे, तो ठाकुरजी के प्रसाद ही से पेट भर जाए।
सूरदास—तुम्हीं लोगों का दिया खाता है या और किसी का? मैं तो बनाने-भर को हूँ।
जगधार—लड़कों को इतना सिर चढ़ाना अच्छा नहीं। गोद में लादे फिरते हो, जैसे नन्हा-सा बालक हो। मेरा विद्याधार इससे दो साल छोटा है। मैं उसे कभी गोद में लेकर नहीं फिरता।
सूरदास—बिना माँ-बाप के लड़के हठी हो जाते हैं। हाँ, क्या होगा?
दयागिरि—पहले रामायण की एक चौपाई हो जाए।
लोगों ने अपने-अपने साज सँभाले। सुर मिला और आधा घंटे तक रामायण हुई।
नायकराम—वाह सूरदास वाह! अब तुम्हारे ही दम का जलूसा है।
बजरंगी—मेरी तो कोई दोनों ऑंखें ले ले, और यह हुनर मुझे दे दे, तो मैं खुशी से बदल लूँ।
जगधार—अभी भैरों नहीं आया, उसके बिना रंग नहीं जमता।
बजरंगी—ताड़ी बेचता होगा। पैसे का लोभ बुरा होता है। घर में एक मेहरिया है और एक बुढ़िया माँ। मुआ रात-दिन हाय-हाय पड़ी रहती है। काम करने को तो दिन है ही, भला रात को तो भगवान् का भजन हो जाए।
जगधार—सूरे का दम उखड़ जाता है, उसका दम नहीं उखड़ता।
बजरंगी—तुम अपना खोंचा बेचो, तुम्हें क्या मालूम, दम किसे कहते हैं। सूरदास जितना दम बाँधते हैं, उतना दूसरा बाँधो, तो कलेजा फट जाए। हँसी-खेल नहीं है।
जगधार—अच्छा भैया, सूरदास के बराबर दुनिया में कोई दम नहीं बाँध सकता। अब खुश हुए।
सूरदास—भैया, इसमें झगड़ा काहे का? मैं कब कहता हूँ कि मुझे गाना आता है। तुम लोगों का हुक्म पाकर, जैसा भला-बुरा बनता है, सुना देता हूँ।
इतने में भैरों भी आकर बैठ गया। बजरंगी ने व्यंग करके कहा-क्या अब कोई ताड़ी पीनेवाला नहीं था? इतनी जल्दी क्यों दूकान बढ़ा दी?
ठाकुरदीन—मालूम नहीं, हाथ-पैर भी धोए हैं या वहाँ से सीधो ठाकुरजी के मंदिर में चले आए। अब सफाई तो कहीं रह ही नहीं गई।
भैरों—क्या मेरी देह में ताड़ी पुती हुई है?
ठाकुरदीन—भगवान् के दरबार में इस तरह न आना चाहिए। जात चाहे ऊँची हो या नीची; पर सफाई चाहिए ज़रूर।
भैरों—तुम यहाँ नित्य नहाकर आते हो?
ठाकुरदीन—पान बेचना कोई नीच काम नहीं है।
भैरों—जैसे पान, वैसे ताड़ी। पान बेचना कोई ऊँचा काम नहीं है।
ठाकुरदीन—पान भगवान् के भोग के साथ रखा जाता है। बड़े-बड़े जनेऊधारी, मेरे हाथ का पान खाते हैं। तुम्हारे हाथ का तो कोई पानी नहीं पीता।
नायकराम—ठाकुरदीन, यह बात तो तुमने बड़ी खरी कही। सच तो है, पासी से कोई घड़ा तक नहीं छुआता।
भैरों—हमारी दूकान पर एक दिन आकर बैठ जाओ, तो दिखा दूँ, कैसे-कैसे धार्मात्मा और तिलकधारी आते हैं। जोगी-जती लोगों को भी किसी ने पान खाते देखा है? ताड़ी, गाँजा, चरस पीते चाहे जब देख लो। एक-से-एक महात्मा आकर खुशामद करते हैं।
नायकराम—ठाकुरदीन, अब इसका जवाब दो। भैरों पढ़ा-लिखा होता, तो वकीलों के कान काटता।
भैरों—मैं तो बात सच्ची कहता हूँ, जैसे ताड़ी वैसे पान, बल्कि परात की ताड़ी को तो लोग दवा की तरह पीते हैं।
जगधार—यारो, दो-एक भजन होने दो। मान क्यों नहीं जाते ठाकुरदीन? तुम्हें हारे, भैरों जीता, चलो छुट्टी हुई।
नायकराम—वाह, हार क्यों मान लें। सासतरार्थ है कि दिल्लगी। हाँ, ठाकुरदीन कोई जवाब सोच निकालो।
ठाकुरदीन—मेरी दूकान पर खड़े हो जाओ, जी खुश हो जाता है। केवड़े और गुलाब की सुगंधा उड़ती है। इसकी दूकान पर कोई खड़ा हो जाए, तो बदबू के मारे नाक फटने लगती है। खड़ा नहीं रहा जाता। परनाले में भी इतनी दुर्गंधा नहीं होती।
बजरंगी—मुझे जो घंटे-भर के लिए राज मिल जाता, तो सबसे पहले शहर-भर की ताड़ी की दूकानों में आग लगवा देता।
नायकराम—अब बताओ भैरों, इसका जवाब दो। दुर्गंधा तो सचमुच उड़ती है, है कोई जवाब?
भैरों—जवाब एक नहीं, सैकड़ों हैं। पान सड़ जाता है, तो कोई मिट्टी के मोल भी नहीं पूछता। यहाँ ताड़ी जितनी ही सड़ती है, उतना ही उसका मोल बढ़ता है। सिरका बन जाता है, तो रुपये बोतल बिकता है, और बड़े-बड़े जनेऊधारी लोग खाते हैं।
नायकराम—क्या बात कही है कि जी खुश हो गया। मेरा अख्तियार होता, तो इसी घड़ी तुमको वकालत की सनद दे देता। ठाकुरदीन, अब हार मान जाओ, भैरों से पेश न पा सकोगे।
जगधार—भैरों, तुम चुप क्यों नहीं हो जाते? पंडाजी को तो जानते हो, दूसरों को लड़ाकर तमाशा देखना इनका काम है। इतना कह देने में कौन-सी मरजादा घटी जाती है कि बाबा, तुम जीते और मैं हारा।
भैरों—क्यों इतना कह दूँ? बात करने में किसी से कम हूँ क्या?
जगधार—तो ठाकुरदीन, तुम्हीं चुप हो जाओ।
ठाकुरदीन—हाँ जी, चुप न हो जाऊँगा, तो क्या करूँगा। यहाँ आए थे कि कुछ भजन-कीर्तन होगा, सो व्यर्थ का झगड़ा करने लगे। पंडाजी को क्या, इन्हें तो बेहाथ-पैर हिलाए अमिर्तियाँ और लड्डू खाने को मिलते हैं, इन्हें इसी तरह की दिल्लगी सूझती है। यहाँ तो पहर रात से उठकर फिर चक्की में जुतना है।
जगधार—मेरी तो अबकी भगवान् से भेंट होगी, तो कहूँगा, किसी पंडे के घर जन्म देना।
नायकराम-भैया, मुझ पर हाथ न उठाओ, दुबला-पतला आदमी हूँ। मैं तो चाहता हूँ, जलपान के लिए तुम्हारे ही खोंचे से मिठाइयाँ लिया करूँ, मगर उस पर इतनी मक्खियाँ उड़ती हैं, ऊपर इतना मैल जमा रहता है कि खाने को जी नहीं चाहता।
जगधार—(चिढ़कर) तुम्हारे न लेने से मेरी मिठाइयाँ सड़ तो नहीं जातीं कि भूखों मरता हूँ? दिन-भर में रुपया-बीस आने पैसे बना ही लेता हूँ। जिसे सेंत-मेत में रसगुल्ले मिल जाएँ, वह मेरी मिठाइयाँ क्यों लेगा?
ठाकुरदीन—पंडाजी की आमदनी का कोई ठिकाना नहीं है, जितना रोज मिल जाए, थोड़ा ही है; ऊपर से भोजन घाते में। कोई ऑंख का अंधा, गाँठ का पूरा फँस गया, तो हाथी-घोड़े जगह-जमीन, सब दे दिया। ऐसा भागवान और कौन होगा?
दयागिरि—कहीं नहीं ठाकुरदीन, अपनी मेहनत की कमाई सबसे अच्छी। पंडों को यात्रियों के पीछे दौड़ते नहीं देखा है।
नायकराम—बाबा, अगर कोई कमाई पसीने की है, तो वह हमारी कमाई है। हमारी कमाई का हाल बजरंगी से पूछो।
बजरंगी—औरों की कमाई पसीने की होती होगी, तुम्हारी कमाई तो खून की है। और लोग पसीना बहाते हैं, तुम खून बहाते हो। एक-एक जजमान के पीछे लोहू की नदी बह जाती है। जो लोग खोंचा सामने रखकर दिन-भर मक्खी मारा करते हैं, वे क्या जानें, तुम्हारी कमाई कैसी होती है? एक दिन मोरचा थामना पड़े, तो भागने को जगह न मिले।
जगधार—चलो भी, आए हो मुँहदेखी कहने, सेर-भर दूध ढाई सेर बनाते हो, उस पर भगवान् के भगत हो।
बजरंगी—अगर कोई माई का लाल मेरे दूध में एक बूँद पानी निकाल दे, तो उसकी टाँग की राह निकल जाऊँ। यहाँ दूध में पानी मिलाना गऊ-हत्या समझते हैं। तुम्हारी तरह नहीं कि तेल की मिठाई को घी की कहकर बेचें, और भोले-भाले बच्चों को ठगें।
जगधार—अच्छा भाई, तुम जीते, मैं हारा। तुम सच्चे, तुम्हारा दूध सच्चा। बस, हम खराब, हमारी मिठाइयाँ खराब। चलो छुट्टी हुई।
बजरंगी—मेरे मिजाज को तुम नहीं जानते, चेता देता हूँ। सच कहकर कोई सौ जूते मार ले, लेकिन झूठी बात सुनकर मेरे बदन में आग लग जाती है।
भैरों—बजरंगी, बहुत बढ़कर बातें न करो, अपने मुँह मियाँ-मिट्ठू बनने से कुछ नहीं होता है। बस, मुँह न खुलवाओ, मैंने भी तुम्हारे यहाँ का दूध पिया है। उससे तो मेरी ताड़ी ही अच्छी है।
ठाकुरदीन—भाई, मुँह से जो चाहे ईमानदार बन ले; पर अब दूध सपना हो गया। सारा दूध जल जाता है, मलाई का नाम नहीं। दूध जब मिलता था, तब मिलता था, एक ऑंच में अंगुल-भर मोटी मलाई पड़ जाती थी।
दयागिरि—बच्चा, अभी अच्छा-बुरा कुछ मिल तो जाता है। वे दिन आ रहे हैं कि दूध ऑंखों में ऑंजने को भी न मिलेगा।
भैरों—हाल तो यह है कि घरवाली सेर के तीन सेर बनाती है, उस पर दावा यह कि हम सच्चा माल बेचते हैं। सच्चा माल बेचो, तो दिवाला निकल जाए। यह ठाट एक दिन न चले।
बजरंगी—पसीने की कमाई खानेवालों का दिवाला नहीं निकलता; दिवाला उनका निकलता है, जो दूसरों की कमाई खा-खाकर मोटे पड़ते हैं। भाग को सराहो कि शहर में हो; किसी गाँव में होते, तो मुँह में मक्खियाँ आतीं-जातीं। मैं तो उन सबोंकों को पापी समझता हूँ, जो औने-पौने करके, इधार का सौदा उधार बेचकर अपना पेट पालते हैं। सच्ची कमाई उन्हीं की है, जो छाती फाड़कर धरती से धान निकालते हैं।
बजरंगी ने बात तो कही, लेकिन लज्जित हुआ। इस लपेट में वहाँ के सभी आदमी आ जाते थे। वह भैरों, जगधार और ठाकुरदीन को लक्ष्य करना चाहता था, पर सूरदास, नायकराम, दयागिरि, सभी पापियों की श्रेणी में आ गए।
नायकराम—तब तो भैया, तुम हमें भी ले बीते। एक पापी तो मैं ही हूँ कि सारे दिन मटरगस्ती करता हूँ, और वह भोजन करता हूँ कि बड़ों-बड़ों को मयस्सर न हो।
ठाकुरदीन—दूसरा पापी मैं हूँ कि शौक की चीज बेचकर रोटियाँ कमाता हूँ। संसार में तमाोली न रहें, तो किसका नुकसान होगा?
जगधार—तीसरा पापी मैं हूँ कि दिन-भर औन-पौन करता रहता हूँ। सेव और खुम खाने को न मिलें, तो कोई मर न जाएगा।
भैरों—तुमसे बड़ा पापी मैं हूँ कि सबको नसा खिलाकर अपना पेट पालता हूँ। सच पूछो, तो इससे बुरा कोई काम नहीं। आठों पहर नशेबाजों का साथ, उन्हीं की बातें सुनना, उन्हीं के बीच रहना। यह भी कोई जिंदगी है!
दयागिरि—क्यों बजरंगी, साधु-संत तो सबसे बड़े पापी होंगे कि वे कुछ नहीं करते?
बजरंगी—नहीं बाबा, भगवान् के भजन से बढ़कर और कौन उद्यम होगा? राम-नाम की खेती सब कामों से बढ़कर है।
नायकराम—तो यहाँ अकेले बजरंगी पुन्यात्मा है, और सब-के-सब पापी हैं?
बजरंगी—सच पूछो, तो सबसे बड़ा पापी मैं हूँ कि गउओं का पेट काटकर, उनके बछड़ों को भूखा मारकर अपना पेट पालता हूँ।
सूरदास—भाई, खेती सबसे उत्ताम है, बान उससे मध्दिम है; बस, इतना ही फरक है। बान को पाप क्यों कहते हैं, और क्यों पापी बनते हो? हाँ सेवा निरघिन है, और चाहो तो उसे पाप कहो। अब तक तो तुम्हारे ऊपर भगवान् की दया है, अपना-अपना काम करते हो; मगर ऐसे बुरे दिन आ रहे हैं, जब तुम्हें सेवा और टहल करके पेट पालना पड़ेगा, जब तुम अपने नौकर नहीं, पराए के नौकर हो जाओगे, तब तुममें नीतिधरम का निशान भी न रहेगा।
सूरदास ने ये बातें बड़े गंभीर भाव से कहीं, जैसे कोई ऋषि भविष्यवाणी कर रहा हो। सब सन्नाटे में आ गए। ठाकुरदीन ने चिंतित होकर पूछा—क्यों सूरे, कोई विपत आने वाली है क्या? मुझे तो तुम्हारी बातें सुनकर डर लग रहा है। कोई नई मुसीबत तो नहीं आ रही है?
सूरदास—हाँ, लच्छन तो दिखाई देते हैं, चमड़े के गोदामवाला साहब यहाँ एक तमाकू का कारखाना खोलने जा रहा है। मेरी जमीन माँग रहा है। कारखाने का खुलना ही हमारे ऊपर विपत का आना है।
ठाकुरदीन—तो जब जानते ही हो, तो क्यों अपनी जमीन देते हो?
सूरदास—मेरे देने पर थोड़े ही है भाई। मैं दूँ, तो भी जमीन निकल जाएगी, न दूँ, तो निकल जाएगी। रुपयेवाले सब कुछ कर सकते हैं।
बजरंगी—साहब रुपयेवाले होंगे, अपने घर के होंगे। हमारी जमीन क्या खाकर ले लेंगे? माथे गिर जाएँगे, माथे! ठट्ठा नहीं है।
अभी ये ही बातें हो रही थीं कि सैयद ताहिर अली आकर खड़े हो गए, और नायकराम से बोले—पंडाजी, मुझे आपसे कुछ कहना है, जरा इधार चले आइए।
बजरंगी—उसी जमीन के बारे में कुछ बातचीत करनी है न? वह जमीन न बिकेगी।
ताहिर—मैं तुमसे थोड़े ही पूछता हूँ। तुम उस जमीन के मालिक-मुख्तार नहीं हो।
बजरंगी—कह तो दिया, वह जमीन न बिकेगी, मालिक-मुख्तार कोई हो।
ताहिर—आइए पंडाजी, आइए, इन्हें बकने दीजिए।
नायकराम—आपको जो कुछ कहना हो कहिए; ये सब लोग अपने ही हैं, किसी से परदा नहीं है। सुनेंगे, तो सब सुनेंगे, और जो बात तय होगी, सबकी सलाह से होगी। कहिए, क्या कहते हैं?
ताहिर—उसी जमीन के बारे में बातचीत करनी थी।
नायकराम—तो उस जमीन का मालिक तो आपके सामने बैठा हुआ है। जो कुछ कहना है, उसी से क्यों नहीं कहते? मुझे बीच में दलाली नहीं खानी है। जब सूरदास ने साहब के सामने इनकार कर दिया, तो फिर कौन-सी बात बाकी रह गई?
बजरंगी—इन्होंने सोचा होगा कि पंडाजी को बीच में डालकर काम निकाल लेंगे। साहब से कह देना, यहाँ साहबी न चलेगी।
ताहिर—तुम अहीर हो न, तभी इतने गर्म हो रहे हो। अभी साहब को जानते नहीं हो, तभी बढ़-बढ़कर बातें कर रहे हो। जिस वक्त साहब ज़मीन लेने पर आ जाएँगे, ले ही लेंगे, तुम्हारे रोके न रुकेंगे। जानते हो, शहर के हाकिमों से उनका कितना रब्त-जब्त है? उनकी लड़की की मँगनी हाकिम-जिला से होनेवाली है। उनकी बात को कौन टाल सकता है? सीधो से, रजामंदी के साथ दे दोगे, तो अच्छे दाम पा जाओगे; शरारत करोगे, तो जमीन भी निकल जाएगी, कौड़ी भी हाथ न लगेगी। रेलों के मालिक क्या जमीन अपने साथ लाए थे? हमारी ही जमीन तो ली है? क्या उसी कायदे से यह जमीन नहीं निकल सकती?
बजरंगी—तुम्हें भी कुछ तय-कराई मिलनेवाली होगी, तभी इतनी खैरखाही कर रहे हो।
जगधार—उनसे जो कुछ मिलनेवाला हो, वह हमीं से ले लीजिए, और उनसे कह दीजिए, जमीन न मिलेगी। आप लोग झाँसेबाज हैं, ऐसा झाँसा दीजिए कि साहब की अकिल गुम हो जाए।
ताहिर—खैरख्वाही रुपये के लालच से नहीं है। अपने मालिक की ऑंख बचाकर एक कौड़ी भी लेना हराम समझता हूँ। खैरख्वाही इसलिए करता हूँ कि उनका नमक खाता हूँ।
जगधार—अच्छा साहब, भूल हुई, माफ कीजिए। मैंने तो संसार के चलन की बात कही थी।
ताहिर—तो सूरदास, मैं साहब से जाकर क्या कह दूँ?
सूरदास—बस, यही कह दीजिए कि जमीन न बिकेगी।
ताहिर—मैं फिर कहता हूँ, धोखा खाओगे। साहब जमीन लेकर ही छोड़ेंगे।
सूरदास—मेरे जीते-जी तो जमीन न मिलेगी। हाँ, मर जाऊँ तो भले ही मिल जाए।
ताहिर अली चले गए, तो भैरों बोला-दुनिया अपना ही फायदा देखती है। अपना कल्याण हो, दूसरे जिएँ या मरें। बजरंगी, तुम्हारी तो गायें चरती हैं, इसलिए तुम्हारी भलाई तो इसी में है कि जमीन बनी रहे। मेरी कौन गाय चरती है? कारखाना खुला, तो मेरी बिक्री चौगुनी हो जाएगी। यह बात तुम्हारे धयान में क्यों नहीं आई? तुम सबकी तरफ से वकालत करनेवाले कौन हो? सूरे की जमीन है, वह बेचे या रखे, तुम कौन होते हो, बीच में कूदनेवाले?
नायकराम—हाँ बजरंगी, जब तुमसे कोई वास्ता-सरोकार नहीं, तो तुम कौन होते हो बीच में कूदनेवाले? बोलो, भैरों को जवाब दो।
बजरंगी—वास्ता-सरोकार कैसे नहीं? दस गाँवों और मुहल्लों के जानवर यहाँ चरने आते हैं। वे कहाँ जाएँगे? साहब के घर कि भैरों के? इन्हें तो अपनी दूकान की हाय-हाय पड़ी हुई है। किसी के घर सेंधा क्यों नहीं मारते? जल्दी से धानवान हो जाओगे।
भैरों—सेंधा मारो तुम; यहाँ दूध में पानी नहीं मिलाते।
दयागिरि—भैरों, तुम सचमुच बड़े झगड़ालू हो। जब तुम्हें प्रियवचन बोलना नहीं आता, तो चुप क्यों नहीं रहते? बहुत बातें करना बुध्दिमानी का लक्षण नहीं, मूर्खता का लक्षण है।
भैरों—ठाकुरजी के भोग के बहाने से रोज छाछ पा जाते हो न? बजरंगी की जय क्यों न मनाओगे!
नायकराम—पट्ठा बात बेलाग कहता है कि एक बार सुनकर फिर किसी की जबान नहीं खुलती।
ठाकुरदीन—अब भजन-भाव हो चुका। ढोल-मँजीरा उठाकर रख दो।
दयागिरि—तुम कल से यहाँ न आया करो, भैरों।
भैरों—क्यों न आया करें? मंदिर तुम्हारा बनवाया नहीं है। मंदिर भगवान् का है। तुम किसी को भगवान् के दरबार में आने से रोक दोगे?
नायकराम—लो बाबाजी, और लोगे, अभी पेट भरा कि नहीं?
जगधार—बाबाजी, तुम्हीं गम खा जाओ, इससे साधु-संतों की महिमा नहीं घटती। भैरों, साधु-संतों की बात का तुम्हें बुरा न मानना चाहिए।
भैरों—तुम खुशामद करो, क्योंकि खुशामद की रोटियाँ खाते हो। यहाँ किसी के दबैल नहीं हैं।
बजरंगी—ले अब चुप ही रहना भैरों, बहुत हो चुका। छोटा मुँह, बड़ी बात।
नायकराम—तो भैरों को धामकाते क्या हो? क्या कोई भगोड़ा समझ लिया है? तुमने जब दंगल मारे थे, तब मारे थे, अब तुम वही नहीं हो। आजकल भैरों की दुहाई है।
भैरों नायकराम के व्यंग्य-हास्य पर झल्लाया नहीं, हँस पड़ा। व्यंग्य में विष नहीं था, रस था। संखिया मरकर रस हो जाती है।
भैरों का हँसना था कि लोगों ने अपने-अपने साज सँभाले, और भजन होने लगा। सूरदास की सुरीली तान आकाश-मंडल में यों नृत्य करती हुई मालूम होती थी, जैसे प्रकाश-ज्योति जल के अंतस्तल में नृत्य करती है:
झीनी-झीनी बीनी चदरिया।
काहे कै ताना, काहे कै भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया?
इँगला-पिंगला ताना-भरनी, सुखमन तार से बीनी चदरिया।
आठ कँवल-दस-चरखा डोले, पाँच तत्ता, गुन तीनी चदरिया;
साईं को सियत मास दस लागै, ठोक-ठोक कै बीनी चदरिया।
सो चादर सुर-नर-मुनि ओढ़ैं, ओढ़िकै मैली कीनी चदरिया;
दास कबीर जतन से ओढ़ी, ज्यों-की-त्यों धार दीनी चदरिया।
बातों में रात अधिक जा चुकी थी। ग्यारह का घंटा सुनाई दिया। लोगों ने ढोलक-मँजीरे समेट दिए। सभा विसर्जित हुई। सूरदास ने मिट्ठू को फिर गोद में उठाया, और अपनी झोंपड़ी में लाकर टाट पर सुला दिया। आप जमीन पर लेट रहा