सोफ़ा
बात 1987 की है, हम लोग लक्ष्मी नगर, दिल्ली में एक किराये के मकान में रहते थे। एक दोपहर मकान मालिक की बड़ी बेटी ने मेरी दीदी को डांट दिया। माँ ने जैसे-तैसे दोनों को समझा दिया, पर शाम को जब बाबा (पिताजी) घर आये तो उनको न समझा सकीं। बाबा बात सुनते ही घर से निकल गए। जाते हुए बोले, “देर हो जाएगी वापस लौटने में।”
माँ इंतज़ार करती रहीं। रात के साढ़े ग्यारह-बारह बजे बाबा वापस आये। थैला रखा, हाथ मुँह धोकर बैठे, और माँ से कहा, “एक चाय बना दो।” देर सबेर, दोपहर या आधी रात में चाय बनना हमारे घर में आम बात थी। माँ चाय बना लाईं दोनों के लिए। चाय की चुस्की लेते हुए बाबा ने कहा, “सामान बांधना शुरू कर दो, कल ही ये घर छोड़ देंगे।”
माँ को मैंने कभी बहस करते नहीं सुना। उस दिन भी थोड़ी ख़ामोशी के बाद माँ ने पूछा, “इतनी जल्दी कहाँ जायेंगे?
“सादतपुर,” बाबा ने कहा, “मैंने बिरेन से बात कर ली है।” “बहुत दिनों से पीछे पड़ा था—दादा आप सादतपुर चले आओ ना, मज़ा आएगा।” “उसी से बात करके आ रहा हूँ। उसने रात में ही जाकर एक घर का इंतज़ाम कर दिया है; कल से ही रह सकते हैं। मकान मालिक भला आदमी है, कह रहा था सफेदी करा देता हूँ, पर मैंने मना कर दिया कि बाद में करा लेंगे। तुम बस चलने की तैयारी कर लो।”
मैं चादर के अंदर लेटा सब सुन रहा था—बिरेन अंकल मुझे अच्छे लगते हैं… बाबा के साथ काफी विचार मिलते हैं उनके। बातचीत से वामपंथी विचारधारा साफ़ झलकती है। जैन हैं; मीट नहीं खाते पर उसकी तरी से रोटी खा लेते हैं।
अगले दिन हम आनन-फानन में सादतपुर पहुँच गए। पता चला कि यहाँ तो सभी जानते है बाबा को। बिरेन जैन, सुरेश सलिल, विष्णु चंद्र शर्मा, बाबा नागार्जुन, डॉ. महेश्वर,…सभी वहीँ रहते हैं। सबने बड़ी आत्मीयता के साथ स्वागत किया हमारा।
घर थोड़ा अजीब था। खिड़की दरवाज़े नहीं थे, बस उनकी चौखटें लगी हुई थीं। बाबा ने बताया “अभी नया बना है, कुछ दिनों में दरवाज़े खिड़की लगा देंगे, अभी जल्दी से सामने का दरवाजा लगवा दिया है रातों रात।
हम सब सामान लगाने में जुट गए। सभी दरवाजों-खिड़कियों पर पुराने चादर और माँ की साड़ियां लटका दी गयीं। उसी साल दीदी की शादी हो गई; मैं भी कॉलेज जाने लगा। घर में रोज़ बाबा के दोस्तों का जमावड़ा लगा रहता। सभी ज़मीन पर चटाई पर बैठ कर बातें करते, माँ चाय बनाती रहतीं और कभी कभी सब खाना भी खा कर जाते।
समय गुज़रता रहा, मेरा कॉलेज चल रहा था, घर में कभी त्रिलोचन शास्त्री आ जाते तो सारी रात का प्रोग्राम हो जाता। घर में ही छोटे-मोटे कवि सम्मेलन का वातावरण बन जाता था। शास्त्री जी कभी ग़ालिब, कभी कबीर पर शुरू हो जाते तो सुबह की चाय पर ही रुकते थे। अद्भुत था वह समय और गुज़र भी रहा था मस्ती में।
धीरे धीरे मैंने फ्रीलांसिंग शुरू कर दी। बाबा बूढ़े होते जा रहे थे और आय का साधन सीमित था। मेरी ज़रूरतें ज़्यादा तो नहीं थीं पर कुछ छोटे-छोटे सपने देखने लगा था मैं, जैसे फ्रिज, सोफ़ा, कांच के गिलास, सोने के लिए बॉक्स वाला बेड, इत्यादि… शायद फ्रीलांसिंग की नई-नई आमदनी का असर था।
ये करीब 1991 की बात है: एक बड़ा काम मिला मुझे, करीब दस हज़ार रुपयों का। दो महीने लगातार काम करने के बाद कहीं जाकर पैसा मिला। मैं खुश था। फर्नीचर की दूकान पर एक मजबूत लकड़ी का सोफ़ा देख आया और बाबा के लिए एक डेस्क भी।
अरे हाँ, मैंने ये तो बताया ही नहीं कि बाबा करते क्या थे। वे चित्रकार, कवि, कहानीकार, और अनुवादक थे। पर इन सबसे उनकी आजीविका का कोई सरोकार नहीं था। रोज़मर्रा की गृहस्थ और बाहरी ज़रूरतों के लिए वे डिज़ाइनर का काम करते थे, जैसे इलस्ट्रेशन, बुक कवर, मैगज़ीन डिज़ाइन, इत्यादि। मैं भी डिज़ाइन ही करता था और साथ में फाइन आर्ट्स की पढ़ाई भी।
बाबा के सारे मित्र, जिनका ज़िक्र मैंने ऊपर किया, वामपंथी विचारधारा के समर्थक थे। परन्तु बाबा और उन लोगों में एक फर्क था—वे सभी निजी मकानों में रहते थे। कुछ के घर दो मंज़िला थे, कुछ ने किरायेदार भी रक्खे हुए थे, और कुछ के पास गाड़ियां भी थीं। पर हमारे घर आकर सब जैसे बराबर के हो जाते थे, और हमें अपने जैसा ही महसूस करते थे।तो पैसा मिलते ही मैं सोफ़ा और डेस्क ख़रीद लाया। बाबा ने ना कभी मेरे पैसों का हिसाब लिया और ना ही कभी उनपर अपना अधिकार जताया। मैंने भी उनसे पूछे बिना ख़रीदारी कर ली थी; उनको और माँ को सरप्राइज़ देने के लिए। दोनों बहुत खुश हुए, सोफ़े को कमरे में हिसाब से लगाया गया। बाबा ने अपने कमरे में डेस्क भी लगा लिया। हमने दोपहर का खाना भी सोफ़े पर बैठकर ही खाया।
शाम से मुझे बाबा के दोस्तों का इंतज़ार होने लगा। उन लोगों का रिएक्शन देखने के लिए मैं उतावला हो रहा था—आखिर अपनी कमाई से मैंने सोफ़ा ख़रीदा था! चूंकि रविवार था, इसलिए उन लोगों के आने की उम्मीद कम ही थी। सब लोग छुट्टी ज़्यादातर अपने परिवार के साथ ही बिताते थे और टीवी देखते थे।पर बिरेन अंकल आ ही गए। मैं मुस्कुराते हुए उनके पीछे खड़ा था। वे कुछ क्षण ख़ामोश रहे, फिर एक गहरी सांस लेकर बोले, “क्यों दादा, अब ज़मीन पर नही बैठा जा रहा क्या?”
मैं स्तब्ध सा खड़ा रहा। समझ में नहीं आया कि कैसे रिएक्ट करूँ। छोटा बच्चा नहीं था मैं, सोचने-समझने की क्षमता थी मुझमें, सो सोचने लगा कि बिरेन अंकल खुश क्योँ नहीं हुए। उनका खुद का दोमंज़िला मकान, गाड़ी, टीवी, और सभी आराम की वस्तुएं तो हैं उनके पास। टाइम्स आफ इंडिया में एडिटर के पद पर कार्यरत हैं, शाम को दो घंटे राजकमल प्रकाशन में पार्ट टाइम एडिटिंग का काम भी करते हैं। कोई कमी नहीं है उनके पास, फिर हमारी छोटी सी खुशी से खुश क्योँ नहीं हुए? मैंने बाबा की तरफ देखा वो मुस्कुरा रहे थे, बोले कुछ भी नहीं। अंकल को बैठने के लिए कहा और माँ से चाय बनाने का निवेदन किया। खुद ज़मीन पर ही बैठे रहे और मेरी तरफ स्थिर आँखों से देखा। मैं सर झुका कर दूसरे कमरे में चला गया।
बिरेन अंकल उस दिन अपेक्षाकृत जल्दी चले गए, ज़्यादा बातें भी नहीं हुई। उनके जाते ही मैं भुनभुनाते हुए बाबा के पास गया। “ये क्या स्टेटमेंट थी बाबा?” मैंने पूछा।
बाबा फिर से मुस्कुरा दिए, मेरा हाथ पकड़ कर अपने पास बैठाया, मेरे सर पर हाथ फिराया और बोले शांत हो जा और ध्यान से सुन, “ये लोग सिर्फ वामपंथी विचारधारा का समर्थन करते हैं, उसे जीते नहीं हैं। इनको सारी सुख सुविधा, सारे आडम्बर, और सारे आराम चाहिए। इनकी विचारधारा जीवन शैली में नहीं, सिर्फ इनकी कविताओं और कहानियों में होती है। और इस बात का एहसास भी इन्हे है कि ये एक दोगली ज़िन्दगी जी रहे हैं। इसलिए ये हमारे घर आते हैं, ज़मीन पर मेरे साथ चटाई पर बैठते हैं, टूटे हुए कप में चाय पीते हैं। हम उनके लिए कंधे हैं, जिसपर सर रखकर ये अपने अंतर्मन को सांत्वना देने और अपनी ग्लानि को कम करने आते हैं।”
“तुम ऐसा मत बनना। आज ही अपने दिमाग के सारे बंद खिड़की दरवाज़े खोल कर एक मोटी और सीधी लकीर खींच लो, और तय कर लो कि तुम लकीर के इधर हो या उधर।”
मैंने लकीर खींच ली। बाबा जबतक रहे, लकीर के उस तरफ ही रहे।